‘मूल्य आश्वासन कृषक (सशक्तिकरण और सुरक्षा) समझौता कृषि सेवा कानून 2020’ किसान बचेंगे या मोदी-4
By एसवी सिंह
राज्य सभा के उप सभापति हरिवंश के साथ मिलीभगत से संसदीय मान्यताओं को कुचलते हुए किसानों के ‘सशक्तिकरण’ के लिए रविवार को जिस दूसरे कानून को पास किया गया, ये वही कानून है। इस कानून द्वारा जमीन का मालिक किसान और सरमाएदार कंपनियों के बीच कोई निश्चित फसल अथवा दूध उत्पादन के लिए लिखित समझौता किया जा सकेगा।
मतलब अब, भेड़ और भेड़िया दोनों एक टेबल पर बैठ आपस के ‘व्यापार’ की शर्तें तय कर सकेंगे!! समझौता कम से कम एक फसल अथवा एक दूध उत्पादन सीजन के लिए और अधिकतम 5 साल के लिए किया जा सकेगा। फसल चक्र या दूध चक्र अगर उससे अधिक है तो उससे अधिक भी हो सकता है। बिक्री की दर और शर्तें भी अनुबंध समझौते में लिखी होंगी।
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अनुबंध समझौते की शर्तों का पालन ना होने पर होने वाले विवाद को सुलझाने के लिए एक ‘विवाद निवारण बोर्ड’ के गठन का प्रावधान है। जिसे 30 दिन के अन्दर विवाद निबटाना होगा। बोर्ड का निर्णय मान्य ना होने पर अपील जिला अधिकारी के सम्मुख की जा सकेगी। यहाँ भी निवारण फैसले के लिए 30 दिन का ही प्रावधान है।
इसका मतलब हुआ की कंपनी के विरुद्ध किसान अदालत में नहीं जा सकेंगे। अंतिम फैसला जिला स्तर के सरकारी अधिकारियों को ही लेना है। किसानों को अपने इस बलपूर्वक किये जाने वाले ‘सशक्तिकरण व मुक्ति’ का विरोध करने के ठोस कारण मौजूद हैं। पहला अनुभव: देश में कई जगह पर बियर उत्पादन करने वाली कंपनियों ने आस पास के गांवों के किसानों के साथ जौ की फसल उगाने के करार किये जिसे एक निश्चित दाम पर खरीदने के करार हुए।
पहली फसल में सब ठीक रहा। अगली फसल में किसानों ने जौ की फसल का क्षेत्र बढ़ा दिया। दूसरी तरफ़ उस विशेष बियर की बिक्री कम हुई। मांग गिर गई। कंपनी ने जौ की फसल खरीदने से मना कर दिया; ‘उत्पाद की गुणवत्ता घटिया है, इसमें नमी ज्यादा है’। किसान फसल का भण्डारण करने की स्थिति में होते नहीं इसलिए औने पौने दाम पर किसी तरह बा- मुश्किल वे अपनी फसल बेच पाए।
दूसरा अनुभव: जमे हुए हरे मटर बेचने वाली कंपनी ‘सफल’ ने पंजाब में किसानों से मटर उगाने का ठीक वैसा ही समझौता किया। मटर के दाम रु @8/ प्रति किलो तय हुआ। जैसे ही कंपनी की मांग से मटर की आपूर्ति ज्यादा हुई, कंपनी ने वही थाथुर-माथुर वजह बताते हुए समझौते को तोड़ दिया। वही मटर किसानों ने 8 रु की जगह मात्र @2.5/ किलो की दर से बेचकर मटर से पीछा छुड़ाया।
तीसरा अनुभव: पंजाब में ही ठण्डा पेय बनाने वाली कंपनी पेप्सी ने किसानों से आलू उपजाने का अनुबंध किया क्योंकि कंपनी पेप्सी के साथ आलू चिप्स के व्यापार को बढ़ाना चाहती थी जो युवाओं को बहुत पसंद है। आगे घटनाक्रम बिलकुल समान रहा। बस एक अंतर रहा; किसानों के आन्दोलन उग्र और हिंसक होने पर ही कंपनी ने आलू खरीदे और मुकदमा अदालत में भी गया।
चूंकि ना उत्पादन में अराजकता का पूंजीवाद का अन्तर्निहित नियम बदलने वाला है और ना सरमाएदार की फ़ितरत बदलने वाली है इसलिए इन ‘किसान-सरमाएदार’ समझौतों का भविष्य भी ठीक वही होना है जो उनका भूतकाल रहा है।सिर्फ समझौतों का ही नहीं, ये दैत्याकार कंपनियां अपने मुनाफ़े के रास्ते में रूकावट बनने वाले समझौतों से कैसे निबटते हैं इसके भी दो एकदम ताज़ा उदाहरण प्रस्तुत हैं जो सितम्बर माह के ही हैं;
पहला: वोडाफोन मोबाइल कंपनी ने पहले हचिसन और फिर आईडिया कंपनियों को निगल लिया (हालाँकि वो खुद अब जियो द्वारा निगली जाने वाली है!), अपनी फ़ितरत के अनुसार कंपनी ने टैक्स में घोटाला किया और सरकार ने उस पर टैक्स और ब्याज मिलाकर कुल रु 27000 करोड़ की वसूली निकाल दी।
इन कंपनियों को टैक्स-जुर्माने अदा करना कभी पसंद नहीं होता!! कंपनी ने सरकार को भुगतान करने के झूठे वादे कर 7000 करोड़ माफ करा लिए। अब वसूली 20000 करोड़ रुपये की रह गई। वोडाफोन का भुगतान का मूड फिर भी नहीं हुआ। कंपनी सुप्रीम कोर्ट चली गई। भारतवर्ष की सुप्रीम कोर्ट में वोडाफोन ने भारतवर्ष की सरकार को हरा दिया।
भारतवर्ष की सरकार ने हेग (स्वीडन) में वोडाफोन के ख़िलाफ़ अंतर्राष्ट्रीय ट्रिब्यूनल में केस दायर कर दिया वहां भी भारतवर्ष की सरकार हार गई। अब 20000 करोड़ रुपये तो छोड़िए, भारतवर्ष की सरकार वोडाफोन कंपनी को 44 करोड़ रुपये हर्जाने और वकील फ़ीस की एवज में भुगतान करेगी!!
दूसरा: फेसबुक कंपनी ने पिछले चुनावों के दरम्यान सत्ता पक्ष से पैसे ग्रहण कर एकदम झूठी, बे-बुनियाद और साम्प्रदायिकता बढ़ाने वालीं मतलब उग्र हिंदूवादी खबरें फैलाईं, ये बात साबित हो गई (ये कंपनी ऐसे कर्म कई देशों में संपन्न कर चुकी है)।
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ये निहायत ही गंभीर अपराध की कार्यवाहियां हैं जिनके तहत कंपनी के ख़िलाफ़ एफ आई आर दायर कर उनके अधिकारियों को तुरंत गिरफ्तार किया जाना चाहिए था। वैसा कुछ ना होते देख दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने ‘लोकतंत्र के सबसे पावन मंदिर’ दिल्ली विधान सभा में प्रस्ताव पारित किया कि देश में फेसबुक के सर्वोच्च अधिकारी को विधानसभा में बुलाकर लताड़ा जाए।
उक्त अधिकारी ने विधानसभा प्रस्ताव का आदेश नकार दिया और विधानसभा जाने की बजाए ‘लोकतंत्र के दूसरे पावन मंदिर’ उच्च न्यायालय में चला गया। उच्च न्यायालय ने उसके फैसले को एकदम उचित ठहराया!! ‘माननीय विधायकों’ के चेहरे खिसियाकर लाल रह गए!!
ये कंपनियां अब इस आकार की हो चुकी हैं कि इनकी मालमत्ता कई देशों की कुल जी डी पी से भी अधिक हैं। ये देशों की सरकारें गिराने या बनाने की हैसियत रखती हैं। ऐसे में जिला अधिकारी इनके विरुद्ध किसान को जो न्याय दिलाएगा वो सब अच्छी तरह जानते हैं!!
(यथार्थ पत्रिका से साभार)
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