मूल्य (MSP) बढ़ाओ’ नारे वाले किसान आन्दोलन किस के हित में हैं? किसान बचेंगे या मोदी-7

मूल्य (MSP) बढ़ाओ’ नारे वाले किसान आन्दोलन किस के हित में हैं? किसान बचेंगे या मोदी-7

By एसवी सिंह

लघु और सीमांत किसान समाज का अधिकतम शोषित तबका है और विडम्बना देखिए, उनके शोषक वे खुद हैं। उनकी हालत मजदूर से भी ज्यादा दयनीय और पीड़ादायक है, उनके काम के घंटे तय नहीं हैं, उन्हें उस वक़्त तक काम करना होता है जब वो मूर्छित होकर गिर ना पड़ें। तब भी कराहट के साथ ये ही कहते पाए जाते हैं, ‘काश थोड़ा काम और कर पाता, दिन थोड़ा और लम्बा होता’!!

बीमार होने पर भी काम पर ना जाने का विकल्प उनके पास नहीं होता क्योंकि वे खेती के साथ पशु भी पालते हैं और पशुओं को उस दिन भी खाने को चारा चाहिए जब वे बीमार हों और उन्होंने खुद खाना ना खाया हो!! वे खुद और साथ में उनके छोटे छोटे बच्चे और महिलाएं उनकी उस छोटी सी जोत की क़ैद में तड़पने को विवश रहते हैं जिसमें कितनी भी मेहनत कर ली जाए बचना तो कुछ है ही नहीं।

जैसे जैसे उनकी खेती की जमीन का आकार छोटा होता जाता है, उनकी मुसीबतों का पहाड़ बड़ा होता जाता है। रोज जो हम किसान आत्महत्या की हृदयविदारक दास्तानें पढ़ते हैं वे सब सीमांत किसान ही होते हैं। उनकी ज़िन्दगी वैसे ही नर्क है इसलिए वे ये दर्दनाक फैसला करने में देर नहीं करते।

उनके साथ ऐसा क्यों हो रहा है, उनका कसूर क्या है, वे उसकी वजह से अंजान होते हैं, साथ ही उनका भोलापन और अज्ञानता उन्हें कृषि उत्पादों की कीमतें (MSP) बढ़ाने के लिए धनी किसानों द्वारा चलाए जा रहे आन्दोलनों का हिस्सा बना देते हैं। इन मूल्य बढ़ाओ आन्दोलनों की अगली कतारों में पुलिस की लाठी-गोली खाने वाले किसान हमेशा सीमांत किसान ही होते हैं, धनी किसान सुरक्षित दूरी पर अपनी एस यू वी में बैठे अगले चुनाव लड़ने की गोटियाँ बिठा रहे होते हैं।

खेती किसानी में भी अब पुराने बैल हल और रहट की सिचाई के दिन लद चुके और ट्रेक्टर-हारवेस्टर सीमांत किसानों के बस में नहीं इसलिए ‘खेती करें या छोड़ बैठें’ ये दुविधा इनके सामने हमेशा बनी रहती है। शहर में निजी चौकीदारी की नौकरी भी उनका उस खेती से पिण्ड छुड़ाने के लिए काफी होती है। कृषि उत्पादों में भी उनके पास बेचने लायक कुछ होता ही नहीं।

उनकी खरीद उनकी बिक्री से हमेशा ज्यादा होती है। इसलिए हर मूल्य बढ़ाओ आन्दोलन के सफल होने पर उनकी मुसीबतें और कर्ज़ बढ़ते जाते हैं। वे कभी भी पेटभर नहीं खा पाते। वे दुधारू पशु पालते हैं लेकिन उनके बच्चे दूध का स्वाद किसी त्यौहार के मौके पर ही ले पाते हैं क्योंकि अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए उन्हें एक एक बूंद दूध बेच देना होता है।

हमारे देश में खेती किसानी की दशा और जाति आधारित उत्पीड़न के मुद्दे पर अमेरिका में जन्मीं भारतीय स्कॉलर, समाजशास्त्री तथा मानवाधिकार कार्यकर्ता गेल ओम्वेट ने बहुत वैज्ञानिक अध्ययन किया है तथा उनकी शोध रिपोर्ट, ‘भारत में पूंजीवादी खेती तथा ग्रामीण वर्ग’ से ये उद्धरण हमारे विषय से सामायिक है;-

“भारत के ग्रामीण परिदृश्य में छाए हुए किसान आन्दोलनों की मुख्य ताकत पूंजीपति किसान हैं। ये भी महज इत्तेफाक नहीं है कि ये आन्दोलन विकसित  पूंजीवादी खेती वाले क्षेत्रों में ही अधिक हो रहे हैं, उनकी, कृषि उत्पाद का मूल्य बढ़वाने की मांग भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था के व्यवसायीकरण को ही साबित करती है, और ये बात आज़ादी पूर्व में होने वाले किसान आन्दोलनों से इस बात में पूर्णत: भिन्न है कि इनके निशाने पर कोई ग्रामीण शोषक नहीं होता है; बल्कि ये आन्दोलन, इस विचारधारा के तहत कि शहर ही ग्रामीण भाग का शोषण कर रहे हैं; ‘सभी किसानों’ को जोड़ने की बात करते हैं। ये तथ्य धनी किसानों का औद्योगिक बुर्जुआजी के प्रति आक्रोश दर्शाता है और इसीलिए कुलक (धनी शोषक किसान) अपने  नेतृत्व में सारे ग्रामीण लोगों को गोलबंद करना चाहते हैं और उन्हें इस मकसद में सिर्फ लघु किसान ही नहीं बल्कि अत्यंत निर्धन किसानों को अपने पीछे लगाने में कामयाबी भी मिल रही है, खासतौर से तब जब कई वामपंथी पार्टियाँ भी उनका समर्थन कर रही हैं।”

 

आज जब पूंजी चंद हाथों में केन्द्रित होती जा रही है और ये एकाधिकारी पूंजीपति किसी विशेष क्षेत्र में ही नहीं बल्कि सभी क्षेत्रों, फल सब्जी से हवाई जहाज तक के सभी व्यवसायों को अपने कब्जे में करते जा रहे हैं, सरकारें उनके आगे नतमस्तक हैं और जब मध्यम ही नहीं कितने ही विशालकाय पूंजीपति भी बाज़ार में टिक नहीं पा रहे हैं ऐसी स्थिति में लघु और सीमांत व्यवसायियों; किसान हों या उद्योगपति, उनका गंतव्य स्थान सर्वहारा वर्ग ही है, ये तय है।

पहले भी यही होना था। इन कृषि नीति बदलाव का प्रभाव ये होने वाला है की इस प्रक्रिया की गति बढ़ जाने वाली है। पहले ये काम सालों में होता था, अब महीनों में ही निबट जाएगा। कृषि उत्पादों का खरीदी मूल्य बढ़वाना और स्वामीनाथन कमीशन की रिपोर्ट लागू करवाना जिससे कृषि उत्पादों के दाम 50% बढ़ाए जाने का प्रावधान है, शुद्ध रूप से धनी किसानों के हित और गरीब, शोषित लघु और सीमांत किसानों के अहित की मांगें हैं।

यही कारण है कि कई किसान संगठन इनका समर्थन भी कर रहे हैं जैसे महाराष्ट्र का शरद जोशी द्वारा स्थापित शेतकरी संघटना और दक्षिण के राज्यों में सक्रीय फेडरेशन ऑफ़ आल इंडियन फार्मर्स एसोसिएशन (FAIFA)। दूसरी ओर अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति जो 250 विभिन्न किसान संगठनों का एक संयुक्त गठबंधन है, इन नीतिगत बदलावों का जोरदार विरोध कर रहा है।

प्रत्येक जिले में आन्दोलन करते हुए इस संगठन ने 25 तथा 26 नवम्बर को दिल्ली बंद का आह्वान किया है। लेकिन इसके अखिल भारतीय संयोजक वी के सिंह ने भी किसानों की असली स्थिति स्वीकार करते हुए कहा है; “ये (समर्थन मूल्य रु 1850 रहते हुए मक्का को उससे आधे दाम पर बेचने को मजबूर होना) इसलिए हुआ है क्योंकि उन किसानों (लघु एवं सीमांत) के पास ना तो भण्डारण के साधन हैं और ना देश में दूर बेचने जाने के संसाधन हैं क्योंकि 86% किसानों के पास तो खेती की जमीन मात्र 2 या 3 एकड़ ही बची है।”

वस्तु स्थिति ये है कि आज भी, नए कृषि कानून लागू होने से पहले भी, कुल 6% किसान ही कृषि उपज मंडियों में निर्धारित दर पर अपनी फसल बेच पाते हैं। 86% किसान तो अपनी खड़ी फसल को औने-पौने दामों पर बेचने को विवश होते हैं और उनके अनाज को ये धनी किसान ही खरीद लेते हैं।

गन्ना खरीद में तो ये ‘व्यापार’ आम है। धनी किसान आधे दाम पर गन्ना खरीदकर चीनी मीलों पर ट्रकों से गन्ना सप्लाई करते हैं। बगैर गन्ना उपजाए, ये लोग किसानों से कई गुना ज्यादा गन्ने की आपूर्ति करते हैं। (समाप्त)

(यथार्थ पत्रिका से साभार)

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Workers Unity Team

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