कानून वापसी ऐतिहासिक जीत, पर मांगें अभी भी बाकी हैंः संयुक्त किसान मोर्चा
किसान आंदोलन के 368वें दिन आखिरकार मोदी सरकार ने सोमवार को संसद के शीतकालीन सत्र के पहले ही दिन महज चंद घंटों में दोनों सदनों में कृषि क़ानून वापसी का बिल बिना बहस पास करा लिया। राज्यसभा में विपक्ष ने इस कार्यवाही का बॉयकाट भी किया, लेकिन जिस हंगामे और जोर जबरदस्ती के साथ ये बिल पेश किए थे, क़ानून बनने के बाद उसे उसी हड़बड़ी और फुर्ती से वापस ले लिये गए।
विपक्ष इसे मोदी सरकार की चुनावी मजबूरी करार देते हुए अब तक की सबसे बड़ी हार बताया है।
संयुक्त किसान मोर्चे ने कहा है कि भारत में यह एक इतिहास बन गया है, “किसान आंदोलन के बाद यह कदम उठाने के लिए मजबूर होने के बाद, भारत सरकार द्वारा किसान-विरोधी, कॉर्पोरेट-समर्थक काले कृषि कानूनों को भारत की संसद में बिना किसी चर्चा के निरस्त कर दिया गया — यह किसान आंदोलन की पहली बड़ी जीत है, हालांकि अन्य महत्वपूर्ण मांगें अभी बाकी हैं।”
मोर्चे ने बयान जारी कर कहा है कि इन कानूनों को पहले जून 2020 में अध्यादेश के रूप में और बाद में सितंबर 2020 में कानून के रूप में लाया गया था, लेकिन विडंबना यह है कि उस समय भी किसी बहस की अनुमति नहीं दी गई थी। जबकि इस बार भी विपक्ष इस मुद्दे पर बहस कराना चाह रहा था।
मोर्चे का कहना है कि अधिकांश राज्य एपीएमसी अधिनियमों में, किसानों को पहले से ही किसी भी स्थान पर किसी भी खरीदार को अपनी उपज बेचने की स्वतंत्रता है, और ऐसी स्वतंत्रता मोदी सरकार द्वारा पहली बार नहीं दी गई थी जैसा दावा किया जा रहा है। इसके अलावा, शोषण से सुरक्षा के बिना कोई भी तथाकथित स्वतंत्रता अर्थहीन है। अविनियमित प्रणाली बनाने की बात की गई थी, वह कॉर्पोरेट और व्यापारियों के लिए है, न कि किसानों के लिए। यह तथ्य कि इन कानूनों को असंवैधानिक तरीके से लाया गया था, अब भी स्वीकार नहीं किया गया है।
किसानों के साथ व्यापक परामर्श के दावे को इस तथ्य से गलत ठहराया जा चुका है कि किसानों का एक बहुत बड़ा वर्ग विरोध कर रहा है, जो सरकार को पहले ही स्पष्ट रूप से बता चुके हैं कि उनसे कभी सलाह नहीं ली गई। लोकतंत्र में, उद्योग-प्रायोजित कृषि संघों के साथ अवसरवादी परामर्श आगे का रास्ता नहीं है, और गंभीर विचार-विमर्श वाली लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को अपनाया जाना चाहिए।
मोर्चे ने कहा है कि अब तक, कृषि कानून और नागरिकों के एक बड़े वर्ग पर उनके प्रतिकूल प्रभाव के साथ-साथ भारत सरकार की किसान-विरोधी नीतियां स्पष्ट रूप से सामने आ चुकी हैं। अब तक 686 से अधिक किसानों ने शांतिपूर्ण और अनवरत विरोध में अपने प्राणों की आहुति दे दी है। इस भारी मानवीय कीमत की पूरी जिम्मेदारी मोदी सरकार की है।
सत्तारूढ़ दल और उसके संगठनों, जुड़े हुए लोग और वफादार मीडिया की ओर से अब ये सवाल पूछा जाने लगा है कि जब कानून वापसी हो गई तो किसानों की घर वापसी कब होगी लेकिन मोर्चे ने स्पष्ट किया है कि किसान एक बार फिर धैर्यपूर्वक और उम्मीद के साथ इंतजार कर रहे हैं। यह देखा जा सकता है कि भारत के लगभग सभी विपक्षी राजनीतिक दल एमएसपी कानूनी गारंटी सहित इन मांगों का समर्थन कर रहे हैं। कई अर्थशास्त्री इस मांग का समर्थन करने के लिए आगे आए हैं, और यह बता रहे हैं कि इसकी बहुत आवश्यकता है, और भारत के समग्र अर्थव्यवस्था पर इसके कई सकारात्मक परिणाम होंगे। लेकिन कुछ विशेषज्ञ स्वेच्छा से एमएसपी के लिए किसानों की मांग की गलत व्याख्या करने और सार्वजनिक वित्तपोषण बोझ के अतिरंजित आंकड़े पेश करने का विकल्प चुन रहे हैं। किसान आंदोलन जानता है कि इस तरह के भ्रामक आंकड़े जांच की कसौटी पर खड़े नहीं होंगे। एमएसपी गारंटी कानून के लिए निवेश केंद्र सरकार की व्यावहारिक शक्ति के भीतर है, और जब ग्रामीण अर्थव्यवस्था को इस कानून से बढ़ावा मिलेगा, तो यह राजस्व के रूप में वापस आ जाएगा।
विरोध कर रहे किसानों के खिलाफ दर्ज मुकदमों को वापस लेने की एक अन्य मांग पर, हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने संकेत दिया है कि वह केंद्र के निर्देशों के अनुसार ही ऐसा करेंगे। यह एसकेएम के बयान की पुष्टि करता है।
दिल्ली और चंडीगढ़ जैसे स्थानों में मामलों के संदर्भ में, केंद्र का सीधा अधिकार है, जबकि भाजपा शासित राज्यों हरियाणा, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्यप्रदेश आदि में, जहां कई मामले दर्ज किए गए हैं, केंद्र सरकार का निर्णय प्रतीक्षित है।
मोदी सरकार, यह मांग या, विद्युत संशोधन विधेयक को वापस लेने, शहीदों के परिजनों को मुआवजा देने, शहीद स्मारक, अजय मिश्रा टेनी की गिरफ्तारी और बर्खास्तगी आदि सहित अन्य सभी लंबित मांगों के संदर्भ में अपनी जिम्मेदारी से नहीं भाग सकती है।
अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता की कार्रवाई जारी है। इस विरोध का नेतृत्व करने वाली महिलाओं के साथ भारतीय प्रवासी द्वारा लंदन में एक और विरोध प्रदर्शन आयोजित किया गया है।
राजस्थान के स्थानीय चुनावों में यह देखा गया है कि कुछ उम्मीदवार खुद को एसकेएम का प्रतिनिधि बताने का दावा कर रहे हैं। संयुक्त किसान मोर्चा स्पष्ट करता है कि एसकेएम का कहीं भी किसी भी चुनाव में कोई उम्मीदवार नहीं है, और अपील करता है कि नागरिकों को एसकेएम उम्मीदवार होने का दावा करने वाले किसी व्यक्ति द्वारा गुमराह नहीं किया जाना चाहिए।
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