अमेरिका के दबाव में भारत के किसानों को कारपोरेट के हवाले कर देने की कहानीः भाग-2
अगर खरीद की व्यवस्था कम कर दी जाती है या बिल्कुल खत्म कर दी जाती है तो सार्वजनिक वितरण प्रणाली अनिवार्यतः और भी कमज़ोर हो जायेगी जिसके गंभीर परिणाम देश के सभी मेहनतकश लोगों को भुगतने पड़ेंगे।
क्योंकि वे भोजन के लिए ऊंची कीमतें चुकाने के लिए मजबूर होंगे, इसलिए उनकी वास्तविक आय (यानी उनके वेतन से जो खरीदा जा सकता है) घट जायेगी।
इस प्रकार नये किसान-विरोधी कानूनों को रद्द करने की किसानों की मौजूदा मांग, दरअसल, भारत के तमाम मेहनतकश लोगों की फौरी मांग है।
उसे केवल अतिरिक्त उत्पादन करने वाले राज्यों के किसानों या केवल देश के तमाम किसानों की ही मांग के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए।
क्योंकि औद्योगिक रोजगार की स्थिति भी बेहद खराब है, खेती से उजड़ने वाले किसानों को किसी अन्य क्षेत्र में रोजगार नहीं मिल सकेगा।
भारत की मजदूर आबादी बहुत ज्यादा है और इतनी बड़ी आबादी प्रवासी के तौर पर कहीं भी नहीं खपेगी।
दूसरी ओर विदेश में रोजगार मिलने की संभावनाएं भी तेजी से कम होती जा रही हैं। इस तरह खेती से उजड़े हुए किसानों की भर्ती बेरोजगार मजदूरों की आबादी में हो जाएगी।
रिजर्व मजदूर सेना में बढ़ोत्तरी से वेतन में आम तौर पर गिरावट आ जायेगी क्योंकि मजबूरी और हताशा में मजदूर दुर्लभ नौकरियों के लिए आपस में प्रतिस्पर्धा करेंगे।
रोजगार के अवसरों में कमी और वेतन में आम गिरावट का परिणाम उत्पादों की कुल मांग में कमी के रूप में सामने आएगा जिससे रोजगार और कम हो जायेगा।
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देश को कारपोरेट लूट के आगे बेसहारा छोड़ने जैसा
जो देश अपनी जनता के लिए दो जून की रोटी की व्यवस्था नहीं कर सकता, साम्राज्यवादी ताकतें कभी भी उसकी बांह मरोड़ सकती हैं।
1960 के दशक में खाद्य संकट के दौरान जब भारत नकदी की तंगी से जूझ रहा था तब देश को खाद्य सहायता के रूप में अमरीका से भारी मात्रा में गेहूं आयात करने के लिए मजबूर किया गया था।
उस समय अमरीका अपने फ़ालतू गेहूं को निर्यात करने के लिए जी जान से कोशिश कर रहा था। अमरीका ने इस ‘‘सहायता’’ का इस्तेमाल भारत की आर्थिक और विदेश नीति को निर्धारित करने के लिए एक लीवर के रूप में किया।
शांता कुमार समिति की रिपोर्ट बड़ी चालाकी और सफाई से यह घोषित करती है कि अब वे दिन लद गये: कि अब भारत के पास विदेशी मुद्रा के प्रचुर भंडार हैं और पलक झपकते ही बड़ी मात्रा में खाद्यान्न आयात किये जा सकते हैं और कि देश में खाद्यान्न का उत्पादन जरूरत से कहीं ज्यादा है।
इसलिए अब खाद्यानों की सार्वजनिक खरीद, भंडारण और वितरण की कोई जरूरत नहीं, यानी भारतीय खाद्य निगम (ऍफ़.सी.आई) और सार्वजनिक वितरण प्रणाली की अब व्यवहार में कोई जरूरत नहीं और उनका बोरिया-बिस्तर समेट देना चाहिए।
लेकिन भारत के विदेशी मुद्रा भंडार का निर्माण निर्यात अधिशेष से नहीं हुआ है; इसलिए वह सुरक्षित नहीं है।
इसके बजाय उसका निर्माण उधार और अन्य देनदारियों द्वारा हुआ है और उसके लगभग 80 प्रतिशत को विदेशी निवेशक कभी भी अल्पकालिक सूचना पर लेकर भाग सकते हैं।
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विश्व व्यापार संगठन का लगातार दबाव
यही वजह है कि देश के केंद्रीय बैंक के पास विदेशी मुद्रा के अभूतपूर्व रूप से बड़े भंडार के बावजूद भारत सरकार अमरीकी सरकार को ‘‘स्वैप लाइन’’ खोलने के लिए पटाने की कोशिश में लगी है ताकि आपात स्थिति में केंद्रीय बैंकों के बीच सीधे उधार का लेन-देन हो सके।
अगर अमरीका भारत को आपातकालीन परिस्थिति में उधार देने के लिए स्वैप लाइन खोलता है तो वह इसकी बड़ी आर्थिक और रणनीतिक कीमत वसूलेगा।
अगर भारत की खाद्य सुरक्षा पूरी तरह से अपने विदेशी मुद्राभंडार की अस्थिर नींव पर टिकी हुई हो और उसके पास खाद्यान्न के वास्तविक भंडार न हों, तो विदेशी मुद्रा भंडार का संकट बहुत तेजी से खाद्य संकटमें तब्दील हो सकता है।
इसके अलावा, जब भारत जैसा बड़ा देश दुनिया के अनाज बाजार में आयातक बनकर प्रवेश करेगा तो अंतर्राष्ट्रीय बाजार में अनाज के दाम आसमान छूने लगेंगे।
कल्पना कीजिए अगर कोविड लाकडाउन के समय जब विदेशी मुद्रा बहुत तेजी से बाहर जा रही थी, भारत के पास पर्याप्त खाद्य भंडार नहीं होता तो उसे तुरंत खाद्यान्न आयात की प्रक्रिया शुरू करनी पड़ती।
हाल के वर्षों में भारत के ऊपर बड़ा भारी दबाव रहा है किवह अपने कृषि-बाजार को खोले। विभिन्न निर्यातक देश एकजुट होकर विश्व व्यापार संगठन के जरिए भारत पर दबाव बनाते रहे हैं कि भारत की गेहूं, चावल, दालें, कपास और चीनी के बारे में नीतियां विश्व व्यापार संगठन के कृषि-समझौते का उल्लंघन करती हैं।
इस मुहिम की अगुवाई अमरीका करता रहा है और भारत के इस दावे का विरोध करता रहा है कि किसानों को दिया जा रहा समर्थन कृषि-समझौते के अनुरुप है।
2013 में विश्व-व्यापार संगठन के बाली (इंडोनेशिया) सम्मेलन में भारत के खाद्यान्नों की सरकारी खरीद, भंडारण और वितरण कार्यक्रम की विकसित देशों द्वारा निंदा की गयी।
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आखिरकार अमेरिका के दबाव में मोदी सरकार झुकी
तीसरी दुनिया के कुछ अन्यदेशों के समर्थन से भारत को विश्व-व्यापार संगठन में एक अस्थायी राहत हासिलहुई जब मसौदे में ‘‘शांति की धारा’’ जोड़कर (किसी और चीज के बदले) दंडात्मक कार्रवाई को तब तक के लिए स्थगित कर दिया गया जब तक मसले का हलन हीं निकाल लिया जाता।
हालांकि, विकसित देश इस मुद्देका हल निकालने के लिए तैयार नहीं हैं, इसके बजाय भारत पर दबाव बनाये हुए हैं कि वह अपने किसानों को समर्थन देना बंद करे।
इस साल 25 मई को, कोविड संकट के चरम दिनों में हुई विश्व व्यापार संगठन की एक वर्चुअल (आनलाइन) बैठक में खाद्यान्नों के निर्यातक देशों के समूह ने इस संकट के जवाब में कुछ सरकारों द्वारा अपने किसानों को दिये जा रहे नये सहायता पैकेजों की आलोचना की और यह दावा किया कि वे वैश्विक खाद्य-व्यापार को ‘‘विकृत’’ करेंगे।
इसके बावजूद कि भारत ने विश्व-व्यापार संगठन के मंच पर विरोध का प्रदर्शन किया, सार्वजनिक खरीद खत्म करने की दिशा में सरकार द्वारा उठाये जा रहे कदम, सारतः एकतरफा तौर पर इस पूरे विवाद का विकसित देशों के पक्ष में निपटारा कर देते हैं।
विकसित देश इस बात को बखूबी समझते हैं कि जब भारतीय खाद्य निगम (एफ.सी.आई.) अपने वर्तमान रूप में मौजूद नहीं रह जायेगा, तो खाद्यान्नों के मामले में भारत की यथोचित आत्मनिर्भरता जल्द ही मिट जायेगी।
इसके अलावा, खाद्यान्नों के बड़े सुरक्षित भंडारों के अभाव में, सरकार मुनाफाखोर निजी निगमों के खिलाफ हस्तक्षेप की ताकत खो देगी, निहत्थी रह जायेगी। इसलिए 1965 का भारतीय कृषि और खाद्य व्यवस्था का संकट आज भी प्रासंगिक है। (क्रमशः)
(ये लेख रिसर्च यूनिट फॉर पालिटिकल इकोनॉमी से लिया गया है जिसे ट्रेड यूनियन सॉलिडेरिटी कमेटी ने प्रकाशित किया है। मूल लेख को यहां पढ़ा जा सकता है।)
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