तीसरा कानून: ‘आवश्यक वस्तु संशोधन कानून 2020’ किसान बचेंगे या मोदी-5
By एसवी सिंह
ये कानून 22 सितम्बर को पास हुआ। उस दिन संसदीय हेराफेरी की आवश्यकता ही नहीं रही क्योंकि तब तक 10 सांसद निलंबित हो चुके थे और उसका विरोध करते हुए विपक्ष वाक आउट कर गया था। ये कानून, एक बहुत पुराने और जनहित वाले ‘आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955’ को बदलने के लिए लाया गया है।
आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 कानून की धारा 3(1) के अनुसार सरकार जीवनावश्यक वस्तुओं जैसे खाद्यान्न, रासायनिक खाद एवं पेट्रोलियम आदि पदार्थों को आवश्यक वस्तु घोषित कर इनका उत्पादन, खरीद, वितरण, भण्डारण आदि को नियंत्रित एवं विनियमित कर सकती है। मौजूदा आवश्यक वस्तु संशोधन कानून ने जीवनावश्यक वस्तुओं को भी सरकारी नियंत्रण से पूरी तरह हटा दिया है।
इसमें कहा गया है कि सरकार कोई भी नियंत्रण, इन वस्तुओं जैसे गेहूं, चावल, आलू, प्याज, खाद्य तेल आदि पदार्थों पर, सिर्फयुद्ध, अकाल, अत्याधिक मूल्य वृद्धि तथा अति गंभीर प्राकृतिक विपदा के समय ही कर सकती है। अन्यथा ये वस्तुएं भी बाकि वस्तुओं जैसे ही ‘बाज़ार नियम’ से संचालित होंगी। इस कानून का सबसे घातक और घोर जन विरोधी पहलू ये है कि कोई भी कंपनी कितना भी अनाज खरीदकर कितना भी स्टॉक जमा कर सकती है।
अनाज, दालें, आलू, प्याज, खाद्य तेल आदि अत्यंत जीवनावश्यक वस्तुओं के मामले में इस प्रस्तावित खुले बाज़ार में सरकार इन चार परिस्थितियों में ही हस्तक्षेप कर सकेगी; युद्ध, अकाल, असाधारण मूल्य वृद्धि तथा गंभीर प्रकृति की प्राकृतिक विपदा। स्टॉक करने के सीमा के बारे में सरकार तब ही हस्तक्षेप करेगी जब कीमतों में तीव्र वृद्धि हो।
‘तीव्र वृद्धि’ का मतलब इस तरह बताया गया है; कीमतों में 100% की वृद्धि, खराब ना होने वाले खाद्य पदार्थों के मामले में 50% की वृद्धि। कीमत वृद्धि को पिछले 12 महीनों में हुए बदलाव अथवा खुदरा मूल्यों में पिछले 5 साल के औसत भाव, दोनों में जो कम हो, के आधार पर तय किया जाएगा।
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एक बार सारा अनाज सेठ जी के गोदामों में चला जाने के बाद इस मूल्य वृद्धि को रोकने के उपायों को लागू कैसे किया जाएगा, इस विषय पर कुछ नहीं कहा गया है। हाँ, एक जगह स्टॉक सीमा को समझते हुए जो कहा गया है उससे इस बदलाव की गंभीरता और लोगों के जीवन मरण के प्रश्न पर सरकार की असीमित उदासीनता ज़ाहिर हो जाती है। “कीमतें नियंत्रित करने के आदेश उस कृषि-कंपनी के बारे में लागु नहीं होंगे जिसके पास जमा स्टॉक उसके कारखाने में लगी मशीनों की क्षमता से अधिक नहीं है”!!
क्या इस देश में इस तरह कारखानों की मशीनों की उत्पादन (Processing) क्षमता का ब्यौरा रखा जाना संभव है? क्या कारखानेदार इतने भले लोग हैं कि वे अपने निजी प्लांट की प्रोसेसिंग क्षमता उतनी ही रखेंगे जितनी सरकार चाहेगी? क्या वे उस क्षमता बढ़ाने के लिए सरकार के फरमान का इन्तेजार करते बैठेंगे? ऐसा सोचना हास्यास्पद या रोनास्पद ही कहा जाएगा!!
आज जब औद्योगिक पूंजी और बैंकिंग पूंजी एक हो चुके हैं जिससे एक एक एकाधिकारी पूंजीपति को उपलब्ध पूंजी की कोई सीमा नहीं है, अगर अकेली अडानी ग्रीन अथवा रिलायंस रिटेल कंपनी देश का सारा गेहूं और चावल खरीद ले तो किसी को कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए।
अपने मुनाफ़े के लिए कुछ भी हेराफेरी, घपला, झूठ, फरेब करने से परहेज ना करने वाली ये कंपनियां फिर क्या हाल करेंगी, अंदाज लगाकर ही सिहरन होती है। लोगों की ज़िन्दगी की कीमत इन सत्ताधीशों के दिमाग में क्या है, इससे ये भी ज़ाहिर हो जाता है। ये कानून तीनों कानूनों में सबसे भयावह है। गरीब की थाली में जो सूखी रोटी बची है वो भी ग़ायब हो जाएगी। देश फिर से ब्रिटिश कालीन अकाल देखने को मजबूर होगा दूसरी तरफ़ सरमाएदारों की पूंजी के अम्बार और विशाल होते जाएंगे।
(यथार्थ पत्रिका से साभार)
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