कृषि क़ानून बनाने में मोदी सरकार को इतनी जल्दी क्यों थी? किसान आंदोलन-1
By एस.एस. माहिल
पंजाब के किसान एक अत्यंत बहादुरना संघर्ष कर रहे हैं। इस संघर्ष की शुरुआत केंद्र में किसानों के विरोध में पारित तीन अध्यादेशों के विरोध से हुई थी।
आरएसएस भाजपा की फासीवादी सरकार ने संसद के इस मानसून सत्र में इन तीनों अध्यादेशों को विधेयक के रूप में पेश किया। लोकसभा में भाजपा का स्पष्ट बहुमत है परंतु वह राज्य सभा में वह अल्पमत में है।
इसके बावजूद, बिना बहस और मतविभाजन इन्हें घ्वनि मत से पारित घोषित कर दिया गया, राष्ट्रपति ने भी फटाफट हस्ताक्षर कर दिए। बिजली की तेज गति की तरह इन्हें तुरत-फुरत इन् विधेयकों को अमली जामा पहनाते हुए कानून बना दिया गया है।
दरअसल, सरकार पर विश्व व्यापर संगठन (WTO) और कारपोरेट पूंजी का दबाव था। विश्व व्यापार संगठन की स्थापना अप्रैल, 1994 में मराकेश (मोरक्को) संधि के जरिए हुई थी। उस समय भारत में कांग्रेस की सरकार थी।
प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव थे और डॉ. मनमोहन सिंह वित्त मंत्री। इस तरह कांग्रेस के नेतृत्व में भारत विश्व व्यापार संगठन का सदस्य बना था। इस संधि के एक प्रावधानों के अनुसार मुक्त व्यापार और खुला बाजार के लिए सरकार द्वारा कृषि क्षेत्र के लिए छूट या किसी भी स्वरूप में प्रदान किए जाने वाले सहयोग, सहायता को समाप्त किया जाना जरूरी था।
यह भी शर्त है कि खाद्य सुरक्षा को छोड़कर सरकार कृषि व्यापार से अलग रहेगी। इसमें उसकी कोई दखलंदाजी नहीं रहेगी। उस समय इस संधि को लेकर देश में खासतौर से पंजाब में गंभीर बहस हुई थी।
कैप्टन अमरिन्दर सिंह ने उस समय इस संधि का खुलकर समर्थन किया था। विश्व व्यापार संगठन का समर्थन करते हुए उन्होंने पंजाब ट्रिब्यूनल में एक लेख लिखा था। अब कांग्रेस पार्टी इस तरह का दिखावा कर रही है कि वह इन जनविरोधी कानूनों के खिलाफ है।
पंजाब, राजस्थान और छत्तीसगढ़ जहां कांग्रेस की सरकार हैं, केंद्र सरकार के इन कानूनों को लागू न करने और इनके समानान्तर कानून के लिए प्रस्ताव पारित किए गए हैं। इसके बावजूद तथ्य यह भी है कि कांग्रेस ही मूलतया इन नीतियों के लिए जिम्मेदार है, जिनकी देन ये जन विरोधी कानून हैं।
कृषि में साम्राज्यवादी कॉरपोरेट पूंजी का बढ़ता दखल
विश्व व्यापार संगठन की एक बैठक में 2013 में कृषि क्षेत्र को मुक्त व्यापार के लिए खोलने के लिए भारत को पांच साल की मोहलत दी गई थी। उस वक्त यह भी तय कर दिया गया था कि 2018 तक कृषि उपज की सरकारी खरीद और कृषि संबंधित सभी छूट समाप्त कर दी जाएगी।
भारत सरकार पर आरोप है कि यहां किसानों को छूट और अन्य सुविधाएं देकर वह मुक्त व्यापार समझौते का उल्लंघन कर रही है। अमेरिका ने भारत के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय व्यापार विवाद निपटान अधिकरण में इसकी शिकायत दर्ज की है।
वैसे भी, यह सरकार अमेरिका के निर्देशों का अनुपालन करने वाली सरकार है, इस मामले में भी अमेरिका के दबाव, अंतर्राष्ट्रीय मंच पर अमेरिका की शिकायत से मजबूर होकर मोदी सरकार ने कृषि संबंधित ये तीन जनविरोधी कानून पारित किए हैं।
भारत पर कारपोरेट पूंजी का दबाव भी एक बड़ा कारण है। विश्व पूंजीवादी व्यवस्था गंभीर संकट के दौर में है। यह संकट 2008 से जारी संकट का लाजिमी नतीजा है। यह संकट लगातार गहराता जा रहा है।
विश्व कॉरपोरेट पूंजी इस संकट का सामधान का कोई उपाय नहीं ढूंढ पा रही है। अंतरराष्ट्रीय और भारतीय कॉरपोरेट कृषि क्षेत्र को अपने नियंत्रण में लाने की कोशिश कर रहे हैं। कृषि क्षेत्र में इन जनविरोधी कानूनों के पीछे कॉरपोरेट पूंजी का भी दबाव है।
यह स्थिति अकस्मात उत्पन्न नहीं हुई है। भारत का शासक वर्ग नब्बे के दशक के मध्य से इन नीतियों को लागू करने की कोशिश कर रहा है। इन नीतियों के प्रमुख सूत्रधार थे डॉ. मनमोहन सिंह।
उनके द्वारा नियुक्त विशेषज्ञ समिति (डॉ. सरदार सिंह जौहल की अध्यक्षता में) की रिपोर्ट “वैश्वीकरण के युग में प्रतिस्पर्धात्मक भारतीय कृषि का विकास” में छोटे किसानों को जमीन से बेदखल करके हजारों एकड़ जमीन के बड़े-बड़े कृषि फार्म बनाने, शेयर बाजार की तर्ज पर भूमि बाजार निर्मित करने और कृषि उत्पादों की सरकारी खरीद की व्यवस्था समाप्त करने की नीति पेश की गई थी।
इसी कमेटी ने ठेका खेती शुरू किए जाने का भी प्रस्ताव किया था। राजनीतिक मजबूरियों और जन प्रतिरोध के कारण कांग्रेस इन सिफारिशों को लागू नहीं कर सकी थी।
पंजाब के मुख्यमंत्री के रूप में अमरिन्दर सिंह ने अपने पहले कार्यकाल के दौरान, इन्हीं सरदार सिंह जोहल की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ समिति नियुक्त की थी। इस समिति ने कृषि उपज के लिए सरकारी बाजार के साथ खुला बाजार व्यवस्था कायम किए जाने की सिफारिश की थी।
प्रधानमंत्री के रूप में नरेन्द्र मोदी के प्रथम कार्यकाल में केंद्र सरकार ने शांता कुमार की अध्यक्षता में एक समिति नियुक्त की। शांता कुमार अटल बिहारी वाजपेयी कैबिनेट मंत्री रह चुके थे।
इस समिति ने अपनी रिपोर्ट में भारतीय खाद्य निगम (FCI) की भूमिका का घटाने (एक तरह से इसे समाप्त ही करने) और खाद्य सुरक्षा के लिए आवश्यकता से अधिक कृषि उपज की खरीद समाप्त करने की अनुशंसा की थी।
पंजाब के एक किसान नेता के अनुसार, 2017 में नीती अयोग ने एक उच्च-स्तरीय बैठक आहूत की थी। इस बैठक में सम्मलित लगभग 150 व्यक्तियों में सरकारी अधिकारी, कृषि और आर्थिक विशेषज्ञ, कॉरपोरेट क्षेत्र के प्रतिनिधि और तीन किसान नेता थे।
कृषि क्षेत्र में वृद्धि दर की कमी की समस्या और कृषि में विकास की गति को तेज करने के उपाय इस बैठक का मुख्य विषय था। बैठक में उपस्थित विशेषज्ञों ने कृषि क्षेत्र में बड़े स्तर पर निवेश की आवश्यकता पर जोर दिया।
किसान इस स्तर पर निवेश करने की स्थिति में नहीं हैं इस आकलन के साथ कृषि में निवेश के लिए कॉरपोरेट क्षेत्र को आमंत्रित किए जाने की राह सुझाई गई।
कॉरपोरेट निवेश के लिए इस शर्त पर तैयार थे लेकिन उनकी शर्त थी कि सरकार उन्हें 10,000 एकड़ का खेत उपलब्ध कराए। किसान इस भूमि पर खेतिहर मजदूर की हैसियत से काम कर सकते हैं इसके अतिरिक्त उनका किसी प्रकार का दखल नहीं होगा।
बैठक में मौजूद पंजाब के किसान नेता का कहना है कि उन्होंने इस नीति को लागू करने पर जबरदस्त विरोध के बारे में सचेत किया था। अब इन तीन कानूनों के माध्यम से इसी नीति को लागू किया जा रहा है।
शासक वर्ग के दोनों मुख्य राजनीतिक दल कृषि क्षेत्र में विश्व व्यापार संगठन और कारपोरेट पूंजीपतियों की शर्तों को लागू करने के लिए लगातार काम करते रहे हैं। संघी फासीवादी सरकार, लोकसभा में हासिल बहुमत में मदांध है।
कोरोना के नाम पर देश में भय का वातावरण बनाया गया, कराेना के नाम पर जनता का मुंह बंद करने के लिए दमनकारी फ़ासीवादी तरीकों का इस्तेमाल किया गया और साम्राज्यवाद द्वारा निर्देशित इस नीति को ही पूरी तरह लागू करके किसानों को कॉरपोरेट भेड़ियों के हवाले किया गया है।
ठेका खेती पर अधिनियम के जरिए कृषि क्षेत्र में कॉरपोरेट पूंजी के प्रवेश के लिए रास्ता खोला गया है। कृषि उत्पाद के वितरण पर अधिनियम कृषि-व्यापार में कॉरपोरेट की सुविधा प्रदान करता है और, न्यूनतम समर्थन मूल्य की अनिवार्यता समाप्ति और उपज की सरकारी खरीद की व्यवस्था का अंत करने की राह प्रशस्त की जा रही है।
इस तरह, किसान को कृषि से खदेड़ कर बाहर करने के लिए यह योजना है। (क्रमशः)
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