हसदेव अरण्य में जंगल कटाई फिर से शुरू, कई गावों के सरपंचों को फ़र्ज़ी मामलों में जेल भेजने के आरोप
छत्तीसगढ़ के हसदेव अरण्य में जंगल काटने के स्थानीय आदिवासी समुदाय के लगातार विरोध के बावज़ूद नई सरकार द्वारा कटाई फिर से शुरू करा दी गई.
मालूम हो कि हसदेव अरण्य की कटाई का लम्बे समय से स्थानीय लोगों द्वारा विरोध किया जा रहा है.
हसदेव अरण्य छत्तीसगढ़ में स्थित एक सघन वन क्षेत्र है जो छत्तीसगढ़, झारखण्ड और ओडिशा सीमा से लगा हुआ है.
छत्तीसगढ़ के हसदेव अरण्य क्षेत्र में 137 हेक्टेयर में फैले जंगल में हजारों पेड़ काटे जा चुके हैं.
आरोप है कि आने वाले दिनों में यहां 2.50 लाख से अधिक पेड़ काटे जाने हैं. ये पेड़ परसा ईस्ट और कांता बसन (पीईकेबी) कोयला खदान के लिए काटे जा रहे हैं. पीईकेबी को अडानी समूह द्वारा संचालित राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम को आवंटित किया गया है.
1 लाख 70 हज़ार हेक्टेयर में फैले इस जंगल को बचने के लिए पिछले 2 साल से एक गहन आंदोलन चलाया जा रहा है.
स्थानीय लोगों के अनुसार यह जंगल हाथियों, भालू, सरीसृप सहित कई और जानवरों का घर है. साल और महुआ जैसे आर्थिक और आध्यात्मिक रूप से महत्वपूर्ण पेड़ हैं, जो स्थानीय लोगों की आजीविका का भी साधन हैं. वे लोग इन पेड़ों को देवता के रूप में पूजते हैं. इन पेड़ों को काट दिया गया है, जिन्हें 100 से अधिक वर्षों से संरक्षित किया गया है.
ख़बरों की माने तो आंदोलन की वजह से रुके जंगल की कटाई प्रदेश में नई गठित भाजपा सरकार के सत्ता में आने के बाद कटाई फिर से शुरू कर दी गई है.
पिछले कुछ दिनों में 15 हज़ार से ज्यादा पेड़ों की कटाई की गई है और स्थानीय लोगों के विरोध को दबाने के लिए भारी संख्या में पुलिस बल की तैनाती कर दी गई है.
इसी सिलसिले में बीते दिनों दिल्ली स्थित प्रेस क्लब में हसदेव अरण्य को बचाने में अग्रणी भूमिका निभा रहे ‘छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन’ द्वारा एक प्रेस वार्ता आयोजित कर इस मामले से जुड़े घटनाक्रम की जानकारी मिडिया को दी गई.
उमेश्वर जो की हसदेव के स्थानीय निवासी हैं ने जानकारी देते हुए बताया कि ” माइनिंग कंपनी द्वारा फ़र्ज़ी ग्राम सभा कर के जंगल काटने का अधिकार ले लिया गया. 670 दिनों से ये आंदोलन चल रहा है. हसदेव के आस-पास के कई गावों के मुखिया-सरपंच को फ़र्ज़ी मामलों में फंसा के जेल में डाला जा रहा है.”
उन्होंने आगे कहा ” सरकार विकास की बात करती है,लेकिन ये कैसा विकास है जो हमसे हमारा घर,जमीन और जंगल छीन कर किया जा रहा है. आदिवासी इस विकास में कहाँ हैं ? इस विकास की भेंट हमारे जंगल और जमीन ही क्यों चढ़ते हैं?”
सुप्रीम कोर्ट में हसदेव मामले से जुड़े प्रख्यात वकील प्रशांत भूषण ने भी इस प्रेस वार्ता में भाग लिया.
उन्होंने बताया ” हसदेव जंगल की कटाई केंद्र सरकार,राजस्थान सरकार और छत्तीसगढ़ सरकार की मिलीभगत से कराई जा रही है. आखिर माइनिंग कंपनी को लीज क्लीरेंस, फारेस्ट क्लीरेंस और एन्वायरन्मेंट क्लीरेंस तो केंद्र की सरकार ने ही दिया है जबकि ये पूरा इलाका ‘नो गो’ है.”
‘नो गो’ वन मंत्रालय द्वारा सर्वे के बाद घोषित किये गए उन वन्य इलाकों को कहा जाता है, जिनकी 50 फीसदी भूमि पेड़ों या पेड़ों की छावं से ढकी हुई हो.
प्रशांत भूषण आगे बताते है ‘हसदेव आरण्य देश का सबसे बड़ा ‘नो गो’ एरिया है. NGT ने बाद में केंद्र सरकार की सारी क्लीरेंस ख़ारिज करते हुए माइनिंग पर रोक लगा दी. जिसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा. सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय वानिकी अनुसंधान शिक्षा परिषद (आईसीएफआरई) और भारतीय वन्यजीव संस्थान (डब्ल्यूआईआई) को इस मामले की जाँच कर रिपोर्ट जमा करने को बोला.’
‘इन संस्थानों की पहली रिपोर्ट ने भी जंगल की कटाई को पर्यावरण के नज़रिये से काफी खतरनाक बताया.
इसके बावज़ूद बिना किसी ऑक्शन के कोल लीज राजस्थान सरकार को मिला और उन्होंने वो अडानी समूह को दे दिया, साथ ही अडानी समूह को राजस्थान सरकार से ये भी अधिकार मिला की वो इस कोयले में से 29 % कोयला अपने पास रख सकता है.’
भूषण बताते है ” हसदेव जंगल इस देश का सबसे बड़ा ‘नो गो’ एरिया है,जबकि जिस कोयले के लिए इतने बड़े पैमाने पर जंगल कटा जा रहा वो कोल रिज़र्व का मात्र 2 % है. क्या सरकार के पास इस जंगल को बचाने का विकल्प नहीं था.”
हसदेव जंगल को बचाने के क़ानूनी लड़ाई के साथ लम्बे समय से जुड़े सुनील श्रीवास्त्व कहते हैं ” हसदेव अरण्य का पूरा मामला क्रोनी कैपटिलिज्म का जीता-जागता नमूना है.अपने चहेते उद्योगपति के लिए मौजूदा सरकार किसी भी नियम को ताक पर रखने को तैयार है.जबकि ये पूरा मामला फिलहाल कोर्ट में पेंडिंग है.”
सुनील बताते हैं ‘ अक्सर विरोध कर रहे लोगों पर विकास का अवरोधक होने का आरोप लगाया जाता है,जबकि ऐसा बिलकुल नहीं है.’
वो बताते हैं कि” हमारे देश के पास 3.5 लाख मिलियन टन कोयले का रिकार्डेड भंडार पहले से है. जबकि हमारी हर साल कि खपत 1 हज़ार मिलियन टन की है. अब अगर ये मान भी लिया जाये कि हमने 10 % जीडीपी ग्रोथ को भी छू लिया, तब भी कोयले की हमारी जरुरत 2.5 हज़ार टन की ही होगी. तो फिर हसदेव जैसे जंगल की बलि देने की जरुरत क्यों है जिसे मध्य भारत का फेफड़ा कहा जाता है.”
हसदेव में खनन का असली करण बताते हुए सुनील कहते हैं ” सारे नियमों और आदिवासियों की भावनाओं को ताक पर रख कर हसदेव में खनन सिर्फ इसलिए किया जा रहा क्योंकि वहां खनन सस्ता है. कोयला कम गहराई पर ही मिल जाता है. दूसरा प्रमुख कारण ये है कि अडानी समूह का अपना पावर प्लांट छत्तीसगढ़ में है. अब जबकि खनन के 29 % प्रतिशत कोयले पर अडानी समूह का अधिकार है, ऐसे में अपने प्लांट तक कोयला ले जाने के लिए उसको कोल ब्लाक नज़दीक चाहिए. राजस्थान सरकार के साथ अपने एग्रीमेंट के अनुसार अडानी समूह ने ये अधिकार अपने पास ही रखा था कि कोयले के लिए कौन से कोल ब्लाक का चयन किया जाये.”
सुनील बताते हैं ” नियम कहते हैं कि सरकारी बिजली उत्पादन कंपनी को सस्ता कोयला मुहैया कराया जाये ताकि सस्ती बिजली पैदा हो और लोगों तक सस्ती बिजली पहुंचे. लेकिन इस मामले में राजस्थान सरकार खुद को अलॉट की गई कोल ब्लाक से अडानी समूह से कोयला खरीद रही और वो भी बाजार मूल्य से ज्यादा पर. इसके साथ ही 29 % कोयला अडानी समूह को रखने की छूट भी दे रहा.”
इसके साथ ही सुनील बताते है ” राजस्थान अपने करीबी राज्य मध्य प्रदेश से भी कोयला ले सकता है ,जहाँ 150 कोल ब्लाक हैं, लेकिन इसके बावजूद वो कोयला लेने छत्तीसगढ़ जा रहा जहाँ 400 रुपये प्रति टन ट्रांसपोर्टेशन ज्यादा खर्च हो रहा. राजस्थान सरकार सिर्फ कोयले के ढुलाई का 600 करोड़ साल का खर्च कर रही.”
छत्तीसगढ़ में देश का 18 % कोयला है. इसके साथ ही हसदेव के अलावा 200 और कोल ब्लाक है इस राज्य में जहाँ से कोयला लिया जा सकता था.
देश का मात्र 15 प्रतिशत कोयला हसदेव जैसे जंगलों के नीचे दबा पड़ा है. क्या ऐसे में दूसरे विकल्प तलाश कर इन सामाजिक,आर्थिक और पर्यावरणीय नज़रिये से बेहद जरुरी जंगलों को बचाया नहीं जा सकता.
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