हसदेव अरण्य कोयला परियोजना: जंगल कटाई के खिलाफ आदिवासी समूहों का बढ़ता विरोध
ये उत्तरी छत्तीसगढ़ के हसदेव अरण्य का इलाक़ा है जो 1 लाख 70 हज़ार हेक्टेयर में फैला हुआ है. जहां आदिवासी बैठे हैं ये इलाक़ा बिलकुल ‘परसा ईस्ट केटे बासेन कोयला परियोजना’ के पहले ‘फेज़’ की खादान से लगा हुआ है.राजस्थान और छत्तीसगढ़ में बिजली के लिए ‘परसा ईस्ट केटे बासेन कोयला परियोजना’ के दूसरे चरण के खनन को मंज़ूरी दे दी गयी है.
कोयले के खनन की वजह से हसदेव अरण्य के 8 लाख पेड़ों को काटा जाना है.
वर्ष 2011 में इस परियोजना को हरी झंडी दी गयी थी. उससे पहले वर्ष 2010 तक इस इलाक़े में खनन को प्रतिबंधित रखा गया था.
वर्ष 2011 में तीस गांवों के लोगों ने कुछ सामजिक संगठनों के साथ मिलकर ‘हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति’ का गठन किया.
वर्ष 2015 में कांग्रेस के नेता राहुल गांधी भी इस इलाक़े में आये और उन्होंने आदिवासियों के संघर्ष का समर्थन किया.
वर्ष 2018 में कांग्रेस ने विधानसभा के चुनावों में जब जीत हासिल की तो आन्दोलन कर रहे आदिवासियों और स्थानीय लोगों को उम्मीद जगी कि अब पार्टी अपना वायदा निभाएगी और खनन बंद हो जाएगा. लेकिन इसी साल परियोजना के दूसरे चरण को भी राज्य सरकार ने हरी झंडी दे दी.
2021 के अक्टूबर माह में सरगुजा जिले से लेकर राज्य की राजधानी रायपुर तक 300 किलोमीटर की पदयात्रा निकालकर आदिवासियों ने विरोध भी जताया.
6 अप्रैल 2023 को भूपेश बघेल सरकार ने जब अनुमति दी गयी तो घोटबर्रा की गोंड आदिवासी समाज की महिलाओं ने पेड़ों से लिपटकर ‘चिपको आन्दोलन’ की तर्ज़ पर अपना विरोध जताया.
इलाक़ा संविधान की पांचवीं अनुसूची के अंतर्गत आता है जहां पंचायत राज (अनुसूचित इलाक़ों में विस्तार) क़ानून यानी 1996 के पेसा क़ानून के तहत भी आता है.
साथ ही 2006 के वन अधिकार क़ानून के तहत आदिवासियों को हसदेव के जंगलों में सामुदायिक अधिकार भी प्राप्त हैं.
स्थानीय बताते हैं “आदिवासी समुदाय का विरोध का अपने चरम पर है. ये लड़ाई आदिवासी समुदाय के लिए सिर्फ जंगल-जमीन को बचाने की लड़ाई नहीं है बल्कि ये उनके अस्तित्व को बचाने की भी लड़ाई है.”
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