भारी बोझ, कठिन जिंदगी: झारखंड के कोयला साइकिल मजदूरों की अनकही कहानी
झारखंड, भारत का खनिज भंडार कहा जाता है, जिसमें देश के कुल खनिज संसाधनों का 40 प्रतिशत से अधिक हिस्सा शामिल है। इसके कोयला भंडार में 27.3 प्रतिशत का योगदान है, जिससे यह भारत का सबसे बड़ा कोयला उत्पादक राज्य बन गया है।
इस राज्य में मेहनतकश लोगों का एक ऐसा वर्ग है, जिनका जीवन और आजीविका इस कोयले से ही बंधी हुई है। इन्हें झारखंड के “साइकिल कोयला मजदूर” के नाम से जाना जाता है, जो अपनी जीविका के लिए हर रोज़ सैकड़ों किलो कोयला साइकिल पर लादकर, ऊंची-नीची पगडंडियों से होकर बाज़ार तक ले जाते हैं।
यह मजदूर प्रतिदिन अपने जीवन को जोखिम में डालते हैं, इन छोड़ी हुई खदानों से कोयला बटोरते हैं और कड़ी मेहनत करते हैं ताकि उनके परिवार का पेट भर सके।
गिरिडीह और बोकारो के ये मजदूर सुबह-सुबह अपने घर से निकलते हैं और 8-10 घंटे तक इस भारी बोझ को ढोते हैं। उन्हें बदले में कुछ सौ रुपये मिलते हैं, जो उनकी आजीविका का एकमात्र साधन है।
चुनाव के दौरान, जब ये मजदूर मतदान करते हैं, तब उनमें एक छोटी सी उम्मीद होती है कि शायद नई सरकार उनके लिए कुछ बेहतर कर सके। लेकिन हर बार चुनाव की यह उम्मीद अंततः निराशा में बदल जाती है, और उनकी जिंदगी में कोई बड़ा बदलाव नहीं आता।
‘घर वापस लौटने का सफर बहुत कठिन है’
मथुरा रविदास बोकारो के असुरबांध गांव में रहते हैं और हर दिन लगभग 240 किलो कोयला अपनी साइकिल पर लादते हैं।
वह इस कोयले को 650 रुपये में खरीदते हैं और 900 रुपये में बेचते हैं। उन्हें इससे बहुत ज्यादा मुनाफा नहीं होता, पर यह उनके परिवार के भरण-पोषण के लिए पर्याप्त है। उनके परिवार में छह बच्चे हैं, और वह अकेले ही परिवार का भरण-पोषण करते हैं।
मथुरा कहते हैं, ‘घर वापस लौटने का सफर बहुत कठिन है। चढ़ाई इतनी खड़ी होती है कि मैं अक्सर गिर पड़ता हूं और चोट लग जाती है। कई बार ऐसा लगता है कि क्या कभी मेरे बच्चों के लिए ऐसा जीवन होगा जिसमें उन्हें इस बोझ को नहीं उठाना पड़ेगा।’
मथुरा को राहुल गांधी के बारे में जानकारी नहीं है, जिन्होंने चुनाव से कुछ समय पहले एक कोयला भरी साइकिल को धक्का देने का प्रयास किया था। मथुरा ने कहा, ‘यह अच्छा लगा कि किसी ने ध्यान दिया, लेकिन हम अब भी वास्तविक बदलाव की प्रतीक्षा कर रहे हैं।’
‘काश हमारे बच्चे इस बोझ से मुक्त हो सके’
मुन्ना यादव गिरिडीह से चोटी खरगडीहा तक 25 किलोमीटर का सफर तय कर कोयला बेचते हैं। वे अपनी साइकिल पर 15 टोकरी कोयला लादते हैं, जिसका वजन लगभग 300 किलो होता है।
वे इसे 120 रुपये में खरीदते हैं और 220 रुपये में बेचते हैं। मुन्ना ने बताया कि पिछले 20 सालों से उनका यही काम है।
वे कहते हैं, ‘हर चुनाव में एक छोटी सी उम्मीद रहती है कि शायद इस बार विधायक हमें इस बोझ से मुक्ति दिला देंगे।’
मुन्ना बताते हैं कि उनके गांव में 100 से 150 लोग इसी काम में लगे हुए हैं। अगर वे बीमार पड़ते हैं, तो उन्हें इलाज के लिए बेंगाबाद जाना पड़ता है, क्योंकि उनके इलाके में स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध नहीं हैं।
मुन्ना का सपना है कि उनके बच्चे एक बेहतर जीवन जिएं और उन्हें इस कठिनाई से गुजरना न पड़े। उन्होंने कहा, ‘जो भी सरकार बने, हम आशा करते हैं कि वे हमारी सुनें और हमें वास्तविक रोजगार दें।’
झारखंड का अदृश्य लेकिन आवश्यक कार्यबल
झारखंड में कोयला केवल एक संसाधन नहीं है, बल्कि लोगों के लिए जीवन का एक साधन और कठिनाई का प्रतीक भी है।
यहां के साइकिल कोयला मजदूर अपनी जान जोखिम में डालकर कठिन परिस्थितियों में काम करते हैं।
नवंबर 2022 में राज्य सरकार ने कोयला-आश्रित क्षेत्रों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए ‘जस्ट ट्रांजिशन टास्क फोर्स’ की स्थापना की थी, ताकि कोयला-आश्रित क्षेत्रों के लोगों को और अधिक स्थायी रोजगार के साधन मिल सकें।
हालांकि इस पहल के बावजूद, मथुरा रविदास और मुन्ना यादव जैसे मजदूरों के जीवन में कोई ठोस सुधार नहीं हुआ है।
इस राज्य में ऐसे हजारों मजदूर हैं जो हर रोज़ अपने परिवारों के लिए यह जोखिम उठाते हैं। इन मज़दूरों का सिर्फ एक ही सपना है कि उनके बच्चों को एक बेहतर भविष्य मिल सके साथ ही वो खुद को इस बोझ से मुक्त कर सकें।
झारखंड के कोयला मजदूरों का संघर्ष यह दर्शाता है कि आज भी देश में ऐसे अदृश्य कार्यबल मौजूद हैं, जो कठिन परिस्थितियों में काम कर रहे हैं, लेकिन जिनकी हालत पर शायद ही कोई ध्यान देता है।
(NDTV की खबर से साभार )
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