कैसे भारतीय अपने घरेलू कामगारों के स्वास्थ्य को खतरे में डाल रहे हैं: अध्ययन
गैर-लाभकारी संगठन जागोरी पेंट्स की एक नई रिपोर्ट हाल ही में प्रकाशित हुई है जो बताती है कि भारतीय लोग अपने 5 करोड़ घरेलू श्रमिकों के साथ किस तरह का व्यवहार करते हैं. यह रिपोर्ट हम सब के सामने एक बेहद ही गंभीर तस्वीर पेश करती है.
सर्वेक्षण में शामिल लोगों में से एक चौथाई ने कहा कि उन्हें अपने नियोक्ताओं के बर्तनों को इस्तेमाल करने से रोका जाता है. करीब18% लोगों को अपने कार्यस्थल पर भोजन या पानी तक ले जाने कि छूट नहीं मिलती साथ ही 13% श्रमिकों को बीमार पड़ने पर भी छुट्टी नहीं मिली.
रिपोर्ट में मुख्यरूप से घरेलु कामगारों को उनके खतरनाक कार्यस्थलों यानी भारतीय घरों में काम करने के दौरान स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव पर प्रकाश डाला गया है.
रिपोर्ट यह भी बताती है कि विश्व के कई अन्य देशों में भारत कि तुलना में घरेलु कामगारों के हक़ में कही अधिक काम किया जाता है.
37 वर्षीय एक शख्स नाम न बताने कि शर्त पर कहते है कि ” उन्हें अपने नियोक्ता के घर में शौचालय, भोजन, फ़िल्टर पानी के इस्तेमाल करने का हक़ नहीं है.उन्हें बैठने तक कि मनाही होती है.”
दिल्ली स्थित गैर-लाभकारी संगठन जागोरी,दिल्ली-एनसीआर और जयपुर में महिला घरेलु कामगारों कि स्थिति पर किये ‘केयरिंग हैंड्स, फ्रेजाइल हेल्थ: एक्सप्लोरिंग वुमन ऑक्यूपेशनल हेल्थ एंड वेल-बीइंग इन डोमेस्टिक वर्क’ शीर्षक वाले अपने अध्ययन में बताता है कि ” भारतीय लोग अपने घरेलु कामगारों से अलगाव और बहिष्कार वाला व्यवहार कर के अपने घरों में रोजमर्रा की जातिवाद का अभ्यास करते हैं”.
रिपोर्ट काम करने की स्थिति और घरेलू कामगारों द्वारा सामना किए जाने वाले 25 सामान्य स्वास्थ्य मुद्दों के बीच एक स्पष्ट संबंध दिखाती है.
रिपोर्ट के हवाले से पता चलता है कि 30% यानि लगभग हर तीन महिलाओं में से एक ने कहा कि उनके काम ने उनके स्वास्थ्य को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया है. महिलाओं ने बताया कि दर्द और कमजोरी तो आम है,काम के दौरान उन्हें काफी तकलीफ का सामना करना पड़ता है. सर्वेक्षण में शामिल लगभग 41% महिलाओं ने कहा कि उन्हें कई स्वास्थ्य समस्याओं के साथ भी रोज काम करना पड़ता है.
चार घरेलू कामगार में से लगभग एक ने साक्षात्कारकर्ताओं को बताया कि उनके रोजगार के स्थान पर शौचालय तक इस्तेमाल करने कि छूट नहीं दी जाती. 25.8% को अपने नियोक्ताओं के समान बर्तनों का उपयोग करने से प्रतिबंधित किया जाता है साथ ही 40% को अपने नियोक्ताओं के घर पर फर्नीचर का उपयोग करने से रोका जाता है. इस सर्वे के दौरान एक गौर करने वाली बात सामने आई कि उत्तरदाताओं ने अक्सर ‘नियोक्ता’ के बजाय ‘मलिक’ शब्द का उपयोग किया.
सर्वेक्षण में शामिल 524 उत्तरदाताओं में से अधिकांश हिंदू प्रवासी श्रमिक थे, जिनमें से 36.8% अनुसूचित जाति के थे
रिपोर्ट बताती है कि “महिला घरेलू कामगारों का एक बड़ा हिस्सा दलितों का है. हालांकि, यह जानकर आश्चर्य हुआ कि जिन लोगों को फर्नीचर,शौचालय इत्यादि इस्तेमाल करने से रोका जाता है ,उन्हें रसोई में जाने से प्रतिबंधित नहीं किया जाता. इनमे से कई लोगों को तो रसोइयों के तौर पर भी काम पर रखा गया है”.
कई उत्तरदाताओं ने कहा कि नियोक्ता के घर पर उनके द्वारा पकाये गए भोजन या बर्तनों को छूने का अधिकार भोजन पकने तक ही सीमित है,खाना बनते ही वो अछूत हो जाते है.
कार्यस्थल पर बुनियादी सुविधाओं की कमी का सीधा प्रभाव घरेलु कामगारों के स्वास्थ्य पर पड़ता दिखता है. शौचालयों तक पहुंच की कमी के कारण 33% उत्तरदाताओं ने असुविधा का अनुभव किया.
महिला कामगारों ने बताया कि “अपने लंबे कार्य दिवस के दौरान वो अपनी मेंस्ट्रुएल ऐड को अपने नियोक्ता के घर पर नहीं बदल सकते. जिसकी वजह से उन्हें योनि संक्रमण, सूजन, दुर्गंध, चकत्ते और जलन जैसी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. 40 प्रतिशत अपने नियोक्ता के शौचालय में अपनी मेंस्ट्रुएल ऐड को नहीं बदल सकते. लगभग 22.9% महिला कामगार ने कहा कि अगर उन्हें काम पर मासिक धर्म होता है तो वे अपने मेंस्ट्रुएल ऐड को ठीक करने के लिए घर वापस जाना पड़ता हैं”.
प्रमुख शोधकर्ता जुश्या कुमार ने आर्टिकल 14 को बताया “कल्पना कीजिए कि 10 साल तक काम करने और इस दौरान अपने लंबे कार्य दिवस में शौचालय तक पहुँच का न होना काम की स्थिति और स्वास्थ्य के बीच सीधे संबंध की ओर इशारा करता है. हम इस तथ्य से यह समझ सकते है कि इन महिला कामगारों कि क्या स्थिति है.”
रिपोर्ट बताती है कि 17.7% कामगारों को कार्यस्थल पर भोजन और पानी तक इस्तेमाल नहीं करने दिया जाता जबकि 12.8% ने कहा कि उन्हें बीमार होने पर भी छुट्टी नहीं मिलती है.हालाँकि इसके बावजूद कामगारों से जब ये पूछा गया कि क्या वो अपने काम कि परिस्थितियों से संतुष्ट हैं तो लगभग 80.5% कामगारों ने अपना जवाब हां में दिया.
कुमार बताते है “वे सोचते हैं कि कम से कम उनके पास नौकरी है जिसके कारण वे अपने परिवार को पाल रहे हैं. उनके दिमाग में ये बातें बैठ चुकी है कि अगर वो अपने काम से नियोक्ता को संतुष्ट नहीं कर पाए तो उन्हें कभी भी नौकरी से हटाया जा सकता है. इसलिए वो काम कि परिस्थितियों से ज्यादा खुद के पास नौकरी के होने के सवाल को बड़ा मानते हैं”.
अध्ययन में जयपुर के एक सार्वजनिक क्लिनिक के डॉक्टर के हवाले से कहा गया है ” हमारे पास ज्यादातर कामगार फ्रैक्चर कि शिकायत वाले आते हैं. इसके साथ ही काम के दौरान जलने या कटने, शरीर में दर्द, बुखार, उच्च रक्तचाप,गठिया, पीठ दर्द, मधुमेह, तनाव साथ ही लाइजोल-फिनाइल के संपर्क में ज्यादा रहने के कारण त्वचा सम्बंधित समस्याओं के साथ आते हैं”.
रिपोर्ट के अनुसार :-
63% उत्तरदाताओं ने झुकने के कारण असुविधा की सूचना दी
53.2% ने लंबे समय तक खड़े रहने के कारण असुविधा की सूचना दी
32% ने भोजन के बिना लंबे समय तक काम करने के कारण असुविधा की सूचना दी
30% ने सर्दियों के दौरान भी सफाई के लिए ठंडे पानी के उपयोग के कारण असुविधा की सूचना दी
21% ने रसायनों के साथ काम करने के कारण असुविधा की सूचना दी
रिपोर्ट में थकान, कमजोरी, जोड़ों में दर्द, शरीर में दर्द, एसिडिटी, चक्कर आना, त्वचा का बदरंग होना, एलर्जी, उंगलियों और पैर की उंगलियों में अकड़न और सांस लेने में कठिनाई को शामिल करने के लिए ‘असुविधा’ शब्द का इस्तेमाल किया गया है.
इसके साथ ही रिपोर्ट में कई कामगारों ने काम करते समय कटने, जलने और बिजली के झटके लगने के साथ ही ऊंचाई से गिरने का भी उल्लेख किया है.
ज्यादातर मामलों में नियोक्ता अपने घरेलू कामगार के दर्द से अनजान थे.एक-दो मामले सामने आए जहाँ नियोक्ता अपने घरेलू कामगार को फिजियोथेरेपिस्ट के पास ले गया और बिल का भुगतान किया.
एक 55 वर्षीय महिला कामगार ने बताया कि जब उन्होंने अपने पीठ दर्द के बारे में अपने नियोक्ता को बताया तो उन्होंने उनको जवाब दिया कि “अगर आपसे काम नहीं हो रहा तो हमे बता दीजिये हम किसी और को काम पर रख लेंगे”.
रिपोर्ट बताती है कि ” घरेलु कामगारों के काम के हालातों पर एक भयानक चुप्पी दिखती है, वो बेहद बुरे हालातों में भी काम करने को विवश हैं. कामगार के साथ-साथ नियोक्ता को भी यही लगता है कि काम के अच्छे हालात देना या कामगार के स्वास्थ्य या बाकि कि सुविधाएं देना नियोक्ता कि जिम्मेदारी नहीं है. नियोक्ता पेन किलर या ठण्ड के दिनों में काम के दौरान गर्म पानी उपलब्ध करा देने को ही बहुत बड़ा काम मानते है”.
सर्वेक्षण से पता चला कि 30.7% महिला कामगारों ने अपनी गर्भावस्था के दौरान काम किया. कई तो नौवें महीने तक या प्रसव के तुरंत बाद फिर से काम पर आने लगी. क्यूंकि नौकरी जाने का खतरा हर वक़्त उनके सर पर मंडराते रहता है.
39 वर्षीय एक महिला कामगार ने बताया कि प्रसव के 10 दिनों बाद ही उन्हें काम पर बुलाया जाने लगा. उन्होंने कुछ दिनों कि छुट्टी मांगी तो काम से हटा देने कि धमकी दी गई. एक और महिला ने बताया कि जब उन्होंने अपने नियोक्ता से अपने इलाज के लिए रुपयों कि मदद मांगी तो उन्हें सिरे से मना कर दिया गया.
कई घरेलू श्रमिकों ने कहा कि वो अपने स्वास्थ्य की उपेक्षा करते है क्योंकि उनके पास समय नहीं होता या फिर उन्हें छुट्टी नहीं मिलती.
घर एक खतरनाक कार्यस्थल
घरेलू कामगारों पर किए गए इस शोध से पता चलता है कि देश में लगभग 5 करोड़ घरेलू कामगार होने के बावजूद उनके काम को औपचारिक रोजगार के रूप में मान्यता नहीं दिए जाने का एक कारण यह है कि यह काम कार्यस्थल के बजाय निजी घरों के भीतर होता है.
घरेलू काम को कई अधिनियमों में बाहर रखा गया है जैसे कि न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948; मजदूरी संदाय अधिनियम, 1936; कर्मकार प्रतिकर अधिनियम, 1923; ठेका श्रम (विनियमन और उत्सादन) अधिनियम 1970; मातृत्व लाभ अधिनियम, 1961
महिला कामगारों के पास न्याय पाने का कोई साधन नहीं है.वे उन नियोक्ताओं की दया पर बने हुए हैं जिनकी क्रूरता और दुर्व्यवहार की कहानियां केवल तभी सामने आती हैं जब वे चरम पर होती हैं.
जागोरी रिपोर्ट से पता चलता है कि उन्होंने जिन महिलाओं का साक्षात्कार लिया उनमें से 47% ने अपने कार्यस्थल पर किसी न किसी प्रकार की हिंसा का अनुभव किया है.
करीब 7 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न का सामना करने की बात कही.जैसे कि अश्लील या विचारोत्तेजक टिप्पणी, अभद्र प्रदर्शन, यौन संबंध बनाने का प्रयास, छेड़छाड़ और पोर्न दिखाना इत्यादि .
रिपोर्ट में घरेलू कामगारों के लिए एक व्यापक राष्ट्रीय कानून बनाने और घरेलू कामगारों तथा उनके नियोक्ताओं के पंजीकरण की मांग की गई है.
हालांकि कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न या पीओएसएच अधिनियम, 2013 ने असंगठित क्षेत्र में महिलाओं के लिए जिला अधिकारी द्वारा स्थापित की जाने वाली स्थानीय शिकायत समितियों के लिए एक संरचना को रेखांकित किया है. लेकिन जागोरी ने पाया कि ये सक्रिय नहीं थीं और महिलाओं को उनके बारे में कोई जानकारी नहीं है.
रिपोर्ट में इस बात पर भी प्रकाश डाला गया है कि कैसे इस क्षेत्र के कामगारों के लिए दुनिया के कई अन्य देश घरेलू कामगारों के लिए प्रगतिशील कानून बनाने में हमारे देश से कहीआगे हैं.
सिंगापुर का विदेशी श्रमशक्ति रोजगार अधिनियम, 1990 प्रवासी महिला घरेलु कामगारों को बीमा, चिकित्सा देखभाल और आवास का अधिकार देता है.थाईलैंड में यह सुनिश्चित किया गया है कि घरेलू श्रमिकों को साप्ताहिक अवकाश, वार्षिक छुट्टी, बीमार छुट्टी और ओवरटाइम मिले.
फिलीपींस भी घरेलू श्रमिकों को न्यूनतम मजदूरी, दिन में कम से कम तीन पर्याप्त भोजन, आराम की अवधि, सामाजिक सुरक्षा कवरेज और श्रम संगठन में शामिल होने का अधिकार सुनिश्चित करता है. यह घरेलू श्रमिकों को दुर्व्यवहार, ऋण बंधन और बाल श्रम से भी बचाता है.
वियतनाम का श्रम कोड 2019 निर्दिष्ट करता है कि एक नियोक्ता को घरेलू श्रमिक के साथ एक लिखित रोजगार अनुबंध में प्रवेश करना होगा. अनुबंध को मजदूरी भुगतान, वेतन अवधि, दैनिक काम के घंटे, नोटिस अवधि का जिक्र करता है.
जागोरी रिपोर्ट ने घरेलू कामगारों के श्रम और जीडीपी में उनके योगदान को मान्यता देने के महत्व को रेखांकित किया है. रिपोर्ट बताती है कि घरेलु कामगार हिंसा से मुक्त सभ्य काम और कार्यस्थलों के हकदार हैं.
( आर्टिकल 14 की खबर से साभार )
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