मजदूर जानलेवा परिस्थितियों में काम करने को मजबूर ताकि मालिक को हो अधिकतम मुनाफा: कलेक्टिव दिल्ली की विस्तृत रिपोर्ट
मुंडका फैक्ट्री अग्निकांड की तरह दिल्ली के तमाम फैक्ट्रियों में हुई आग की घटनाओं पर COLLECTIVE की दिल्ली टीम ने एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार की है।
यह रिपोर्ट इन सभी दुर्घटनाओं के विश्लेषण के बाद, इनके मूल कारणों पे जोर डालती है कि किस तरह यह घटनाएं महज हादसे नहीं, बल्कि मजदूरों की जान को खतरे में डाल कर बड़ी कंपनियों के लिए ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के आसान रास्ते हैं।
यह रिपोर्ट दर्शाती है कि श्रम कानूनों और कड़े सुरक्षा नियमों को देश के विकास में अड़ंगे के रूप में देखती है।
फलस्वरूप श्रम कानूनो में किए गए संशोधनों में नियमों में ढील दी गई, जिससे ‘Ease of Doing Business’ या व्यापार करने की सरलता के साम्राज्यवादी मापकों पर भारत खरा उतर सके और ज्यादा से ज्यादा विदेशी कंपनियां भारत में पैसा लगाएँ।
कलेक्टिव की रिपोर्ट यहाँ दिए गए लिंक पर जा कर पढ़ सकते हैं:
https://drive.google.com/file/d/1GIDYYU2RcJdODzI6rQQUkDUdurecG777/view
इस रिपोर्ट के मुताबिक मुंडका फैक्ट्री में लगी आग से 30 लोगों की जानें गईं – जिसमें 22 महिलायें थी – और कई लापता हैं। ज्यादातर मजदूर बिहार, हरियाणा और पंजाब से थे और उन्हें ₹6500 से ₹7500 प्रति माह वेतन मिलता था।
नहीं थीं जरूरी अनुमति
जांच में कलेक्टिव की टीम मे पाया की बिल्डिंग को दिल्ली नगर निगम (MCD) औद्योगिक इस्तेमाल के लिए अनुमति नहीं थी। दिल्ली सरकार के श्रम विभाग द्वारा वहाँ की काम करने की स्थति की भी जांच नहीं की गई थी और ना ही अग्नि सेवा विभाग की तरफ से कोई अनुमति थी।
रिपोर्ट कहती है कि कॉर्पोरेट मीडिया लगातार इस घटना को ‘दुखद हादसा’ कहता है। इस तरह की तमाम अग्निकांडों की जांच करने पर – जिनमें 2019 में अनाज मंडी की दुर्घटना जिसने 43 लोगों की जान ली थी और 67 लापता थे – एक स्वरूप सामने आता है
बड़े मालिकों पर नहीं होती उचित कार्यवाही
अनाज मंडी की दुर्घटना होने के बाद प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत कोश (PMNRF) से मुआवाज़ों की घोषणा की गई थी। प्रॉपर्टी और कंपनी के मालिकों को गिरफ्तार कर उनपर आईपीसी धारा 304A (लापरवाही के कारण हुई मौत) और 308 (गैर इरादतन मौत का प्रयास) के तहत केस दर्ज किया गया, जिनमें दोषी को बेल मिलने का प्रावधान होता है।
रिपोर्ट कहती है की जनमानस का ध्यान ऐसी दुर्घटनाओं के प्रति तभी आकर्षित होता है जब हादसे का परिमाण बड़ा हो। बाद में लीपा-पोती के लिए गिरफ़्तारी और मुआवजे की घोषणाएं की जाती हैं ताकि जनता का रोष काबू में रहे।
लेकिन किसी भी मामले में कॉर्पोरेट मालिकों को सज़ा नहीं हुई है। जो मूलभूत परिस्थितियाँ जिनके कारण अनियंत्रित उद्योग सुरक्षा नियमों के उल्लंघन करने पर मजबूर होते हैं, उनमें कोई तबदीली नहीं आती है।
कई बार इन छोटे प्लांटों को आउट्सोर्सिंग एजेंसीयां या वेंडर कंपनी का नाम दे कर अंतर्राष्ट्रीय सप्लाइ चेन का हिस्सा बना लिया जाता है।
भारत जैसे ‘विकासशील’ देश में इसे प्रगति का एकमात्र संभव रास्ता समझा जाता है।
जब भी हम ‘एक्सीडेंट’ शब्द का इस्तेमाल करते हैं, तो वह इस तथ्य को छुपाता है कि इतने अधिक संख्या में हो रहे औद्योगिक चोटों का कारण ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए अपर्याप्त सुरक्षा इंतेजाम हैं।
Directorate General Factory Advice Service and Labour Institutes की 2019-20 की रिपोर्ट Introduction to Effective Incident/Accident Analysis के मुताबिक 98% कार्यस्थल दुर्घटनाएं मैनेज्मेन्ट के नियंत्रण में होते हैं।
आईपीसी की धारा 80 के अनुसार वैधता की सीमा के अंदर हो रहे किसी भी काम के दौरान हुई दुर्घटना को अपराध नहीं माना जा सकता। लेकिन भारत में जितने भी औद्योगिक हादसे होते हैं, उनमें से कोई भी इस धारा की परिभाषा में फिट नहीं होते।
जून 2017 को राजस्थान सरकार ने पुलिस को आदेश दिया कि औद्योगिक मौतों में दोषियों के खिलाफ केस आईपीसी धारा 304 (नॉन-बेलेबल) के तहत नहीं बल्कि धारा 304A (बेलेबल) के तहत दर्ज किए जाएँ ताकि Ease of Doing Business को बढ़ावा दिया जा सके।
मजदूर की जान की कीमत मुनाफे से कम
पूर्वी दिल्ली के विश्वास नगर में 7 दिसम्बर 2005 को एक कपड़ा फैक्ट्री में लगी आग की जांच में पाया गया था कि मूलभूत सुरक्षा व्यवस्थाओं से कॉस्ट-कटिंग के नाम पर समझौते किए गए थे, जिसके कारण आग लगी।
भारत में सामान्यतः फैक्ट्री मालिकों और कॉम्पनियों पर गंभीर धाराएं नहीं लगाई जाती हैं ताकि माहौल निवेश के अनुकूल बना रहे। जबकि ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड में सुरक्षा व्यवस्थाओं में लापरवाही से हुई मौतों को रोकने के लिए कड़े कानून बनाए गए हैं।
गृह मंत्रालय द्वारा आपराधिक कानूनों में सुधार के लिए बनाई गई कमिटी ने एक प्रश्नावली में पूछा गया था कि क्या कॉर्पोरेट हत्या को आईपीसी के तहत अपराध माना जाना चाहिए।
तुगलकाबाद के एक कपड़ा फैक्ट्री में 25 जनवरी 2011 को लगी आग की जांच में पाया गया था आग लगने का कारण मशीनों की ठीक तरीके से निरीक्षण ना होना था, जिसके फलस्वरूप बॉइलर के फूटने से छत ढह गई थी। इस प्रकरण में एक भी गिरफ़्तारी नहीं की गई।
कहा जाता है की सुरक्षा व्यवस्थाओं के निरीक्षण को दरकिनार करने के लिए सरकारी अधिकारियों को दिए गए रिश्वत और पीड़ितों को दिए गए औसत मुआवजे की कुल लागत अगर सुरक्षा प्रणालियों को दुरुस्त करने की लागत से कम रहती है, तो कंपनी मालिकों के लिए मजदूरों का जोखिम भरे कार्यस्थल में काम करते रहना स्पष्ट रूप से ज्यादा लाभदायक है।
बड़ी और स्थापित कंपनियां सामान्यतः जोखिम भरे काम और श्रम-गहन कामों को छोटी और अनियंत्रित फ़र्मों को सौंप देती हैं ताकि अगर सुरक्षा व्यवस्थाएं जन मुद्दा बनें, तो सारा ध्यान छोटी कंपनियों पर केंद्रित रहे और स्थापित कंपनियों तक बात पहुंचे ही ना।
पीरागढ़ी की एक पीवीसी जूता कंपनी में 27 अप्रैल 2011 को लगी आग की जांच में सुरक्षा नियमों का घोर उल्लंघन पाया गया। बिल्डिंग में ठसाठस भरे गत्ते के डब्बों से आने जाने के रास्ते बाधित थे।
राजनेताओं, मालिकों और प्रशासन की मिलीभगत
पुलिस और विभिन्न प्रशासनिक विभाग की मालिकों से मिलीभगत रहती है और राजनैतिक पार्टियों को मालिकों की ओर से फंड मिलते हैं जिससे राजनेता उन्हीं के पाले में रहते हैं।
दिल्ली के श्रम कमिशनर के ऑफिस के डाटा के मुताबिक औद्योगिक दुर्घटनाओं की संख्या 1988 में 1214 थीं जबकि 2009 में घट कर केवल 40 रह गईं।
इन आंकड़ों को हालाकी दुर्घटनाओं की संख्या में पाटन के रूप में नहीं देखा जा सकता बल्कि सुरक्षा जाँच और जानकारी इकट्ठा करने की सरकारी प्रणालियों में लापरवाही से समझा जा सकता है।
जिन फैक्ट्रियों में सुरक्षा जांच हुए, उनकी संख्या में 2011 से 2016 के बीच लगातार गिरावट देखने को मिली है।
(रिपोर्ट और चित्र COLLECTIVE Delhi से साभार प्रकाशित हैं।)
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