60 साल के Swiggy डिलीवरी ब्वॉय, रोज़ाना चलाते हैं 50 किमी साइकिल, तब जाकर जलता है चूल्हा
By संदीप राउज़ी
ये हैं 60 साल के दामोदरलाल गुप्ता, स्विगी (Swiggy) डिलीवरी ब्वॉय (Delivery Boy)। साइकिल से खाना पहुंचाने का काम करते हैं और इस उम्र में भी रोज़ाना 50 से 60 किलोमीटर साइकिल चलाते हैं, दिल्ली में। और आमदनी?
“आमदनी और हमारे हाल के बारे में कुछ न पूछें तो ही अच्छा। इस उम्र और इस गर्मी में कम से कम 50 किलोमीटर रोज़ चलाने के बाद मिलता क्या है, 400 रुपये?” बहुत मनुहार के बाद वो प्रश्नवाचक सा जवाब देते हैं।
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दामोदरलाल ने किसी निजी मेडिकल कॉलेज से 80 के दशक में आर्युवेद से चिकित्सकीय पढ़ाई की थी और डिग्री हासिल की थी। लंबे समय तक वो रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिशनर रहे। उनका दावा है कि प्राथमिक चिकित्सकीय विधियों का उन्हें खासा ज्ञान है।
वो कहते हैं, “हमारी डिग्री बिहार के एक कॉलेज से थी, जिसे बाद में यूपी की सरकार ने अमान्य कर दिया और रातों रात मेरा चिकित्सकीय दवाखाना गैरकानूनी हो गया। सरकार ने दसियों साल की चिकित्सकीय सेवा के एवज में हेल्थ वर्कर भी नहीं माना।”
दक्षिणी दिल्ली के व्यस्ततम सड़क पर पानी पीने के लिए रुके दामोदरलाल उत्तर प्रदेश के गोरखपुर के रहने वाले हैं और मज़दूर वर्ग की उस श्रेणी का प्रतिनिधित्व करते हैं जो अपने घर से उजड़ने के बाद शहर दर शहर अपनी आजीविका के लिए भटकती रहती है, यानी अप्रवासी मज़दूर।
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एक दिन में अधिकतम 15 ऑर्डर साइकिल से
उन्होंने दिल्ली से पहले मुंबई में मज़दूर बस्तियों में कई जगह मेडिकल प्रैक्टिस की है और बताते हैं कि उनका सर्टिफिकेट वहां मान्य था। लेकिन जबसे वो डिलीवरी ब्वॉय बने हैं, उनकी दुनिया ही पलट गई है।
वो कहते हैं ऐप आधारित रोज़गार एक छलावा है और हमारे नौजवानों का भयंकर शोषण है, “बस आप यूं समझिए कि जब मैं इस उम्र में डिलीवरी ब्वॉय का काम कर रहा हूं और मुश्किल से 400-500 रुपये कमा पाता हूं जबकि मुझे केवल अपना खर्च ही उठाना है, नौजवान, जिनके ऊपर पूरे परिवार की ज़िम्मेदारी है, उन पर क्या बीत रही होगी?”
दामोदरलाल फूड डेलिवरी का काम करते हुए करीब तीन साल हो गए हैं। पहला लॉकडाउन लगने के बाद उनका दवाखाना बंद हो गया था। मजबूरी में उन्हें ये काम अपनाना पड़ा।
उन्होंने बताया, “शुरू में मैंने इलेक्ट्रिक साइकिल से फूड डिलीवरी की। उसका किराया पहले 99 रुपये प्रतिदिन था। बाद में उन्होंने इसे 200 कर दिया। दिन भर के काम के बाद 200 रुपये देने पर कुछ बचता नहीं। इसलिए मैंने पैडल वाली साइकिल से काम करना शुरू कर दिया।”
वो कहते हैं, “मैं स्विगी की थर्ड पार्टी कंपनी शैडोफैक्स के लिए काम करता हूं। वे मुझे एक डिलीवरी के 25 से 35 रुपये तक देते हैं। एक दिन में मैं 12-15 आर्डर पूरे कर लेता हूं। इनमें कुछ ऑर्डर एक से तीन किलोमीटर तक जबकि कुछ अधिकतम पांच किलोमीटर तक होते हैं।”
दिल्ली की भीषण गर्मी और 44-45 डिग्री तापमान में इस उम्र में तपती सड़कों पर साइकिल चलाना क्या जोखिम भरा काम नहीं है?
वर्कर को वर्कर ही नहीं मानती कंपनी
वो कहते हैं, “मैं अपनी उम्र के लिहाज से आराम से काम करता हूं। डेली मैं 100 रुपये का कोल्ड ड्रिंक, पानी आदि खा पी जाता हूं। दो दिन काम करने के बाद एक दिन ब्रेक ले लेता हूं। इस तरह से महीने में 6-7 हज़ार रुपये कमा लेता हूं।”
गौरतलब है कि ऐप आधारित इन गिग वर्करों को ये कंपनियां वर्कर नहीं मानती हैं। वो इन्हें पार्टनर कहती हैं लेकिन शर्तें सारी वे अपनी थोपती हैं।
अगर वे इन्हें वर्कर मानें तो श्रम क़ानून भी मानने पड़ेंगे, उन्हें ईएसआई, पीएफ़, हेल्थ, सुरक्षा, मुआवजा, मजदूरी सब को लेकर जबावदेह होना पड़ेगा। इसीलिए वे डिलीवरी ब्यॉव को पार्टनर कहती हैं।
लेकिन 10 मिनट की इस सेवा का जोखिम जितना बड़ा है, डिलीवरी वर्करों को न्यूनतम आजीविका भी उसमें पूरा नहीं पड़ता।
दामोदरलाल कहते हैं कि स्विगी और शैडोफैक्स में आपसी सांठ गांठ के चलते डिलीवरी वर्कर भी आपस में बंट जाते हैं।
कई बार विरोध, हड़ताल या काम बंदी का भी इन कंपनियों पर असर नहीं पड़ता क्योंकि वहां रोज़ भर्ती होती है। जहां दस लोगों का काम हैं वहां पचास लोग लाइन में लगे हुए हैं।
कब जागेगी भारत सरकार?
देश की गिग इकोनामी अगले कुछ सालों में दो अरब डॉलर की होने जा रही है, लेकिन इसमें जुड़े वर्करों के काम के हालात, मजदूरी, काम के घंटे को लेकर अभी तक सरकार ने कोई गाइडलाइन नहीं बनाई है।
दामोदरलाल कहते हैं कि ‘सबसे पहले तो सरकार को इन कंपनियों की मनमानी पर लगाम कसनी चाहिए। काम के घंटे और मज़दूरी को तय किया जाना चाहिए। वर्करों की आवाज़ को सुनना चाहिए ताकि कंपनियां मनमर्ज़ी न चला सकें।’
अभी हाल ही में स्विट्ज़रलैंड की एक अदालत ने ऐप आधारित कंपनियों को नियोक्ता यानी नौकरी देने वाला करार दिया है, जिसका मतलब ये हुआ कि उसमें काम करने वाले डेलीवरी ब्वॉय कंपनी के वर्कर हुए और उनके कुछ खास अधिकार हैं, मसलन काम के घंटे, सामूहिक मजदूरी समझौता, यूनियन बनाने का अधिकार, सुरक्षा, स्वास्थ्य की गारंटी आदि।
ट्रेड यूनियन एक्टिविस्ट योगेश कहते हैं, “भारत में भी ट्रेड यूनियनें लगातार इस बात की मांग कर रही हैं लेकिन अभी तो भारत में हिंदू राष्ट्र निर्माण चल रहा है और वर्कर भी इस मांग को अभी दूसरे नंबर पर रखे हुए हैं।”
(This story is supported by Notes to Academy)
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