ख़ास इंटरव्यू सुधा भारद्वाजः निर्वासन के एक साल
देश की जानी मानी ट्रेड यूनियन लीडर, मानवाधिकार कार्यकर्ता और एक्टिविस्ट सुधा भारद्वाज के लिए छत्तीसगढ़ पिछले करीब 40 सालों से घर जैसा रहा है।
लेकिन पिछले चार सालों से वो वहां जा नहीं पाईं। पहले तीन साल जेल के अंदर रहने के कारण और फिर रिहा होने के बाद ज़मानत की शर्तों के कारण। उन्हें मुंबई छोड़कर जाने की इजाज़त नहीं है।
जेल में रहने के दौरान कैदियों की कानूनी मदद में वो कभी पीछे नहीं रहीं। शायद यही कारण रहा कि जेल में वो लॉयर आंटी के नाम से प्रसिद्ध थीं। वो बताती हैं कि जेल से आज भी ख़त आते रहते हैं।
छत्तीसढ़ में वो मज़दूरों के बीच काम करती थीं। लेकिन चार साल पहले उन्हें भीमा कोरेगांव हिंसा मामले में गिरफ़्तार कर लिया गया था। उस समय वो दिल्ली के एक कॉलेज में लॉ प्रोफ़ेसर की नौकरी शुरू ही की थी।
इस मामले में कई बार ज़मानत ख़ारिज होने के बाद आखिरकार 9 दिसम्बर 2021 को वो बाहर आईं।
रिहाई के एक साल पूरे हो रहे हैं। वो कहती हैं कि रिहाई भी ‘एक निर्वासन’ ही है उनके लिए।
ये एक साल कैसा रहा, छत्तीगढ़ कार्यक्षेत्र रहा है, वहां न जाने पाने का मलाल, जेल में उनके क्या अनुभव रहे, एक महिला के तौर पर ट्रेड यूनियन लीडर होने की क्या चुनौतियां रहीं. इन विषयों पर वर्कर्स यूनिटी ने उनसे विस्तृत बात की।
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