इप्का लेबोरेटरीजः चार वर्करों को 15 साल बाद बकाया वेतन समेत कार्यबहाली के आदेश
By संदीप राउज़ी
केंद्र शासित प्रदेश सिलवासा में स्थित फार्मा कंपनी इप्का लेबोरेटरीज़ में 15 साल पहले निकाले गए चार वर्करों को पुनः कार्यबहाली करने का आदेश आया है। बॉम्बे हाईकोर्ट की डिवीज़न बेंच ने कार्यबहाली आदेश का देते हुए पिछले 15 साल का वेतन ब्याज़ समेत देने का आदेश दिया।
उच्च न्यायालय ने इस आदेश को लागू करने के लिए कंपनी को तीन महीने की मोहलत दी है।
ये वर्कर हैं- अवधेश सिंह यादव, शंकर सी वसावा, चेतन एम पटेल, अश्विनी आर सिंह।
वर्करों का कहना है कि उनका कंपनी पर अभी तक कुल 27 से 30 लाख रुपये तक बकाया है जिसे कंपनी को देना होगा।
बेरोज़गारी के दौरान इन वर्करों के लिए रोज़मर्रे का जीवन काफी संघर्षमय हो गया था। बच्चों को पढ़ाने, शादी ब्याह करने और घर चालने के लिए दिहाड़ी मजदूरी कर किसी तरह खर्च पूरा करने की कोशिश करते थे।
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अवधेश सिंह यादव की हालत सबसे बुरी थी। अवधेय यूपी के रहने वाले हैं और इस बीच उन्हें गांव जाकर खेती बाड़ी करके गुजारा करना पड़ा।
क्या था मामला?
साल 2007 में कंपनी में मजदूरों और मैनेजमेंट के बीच वेतन समझौता वार्ता चालू थी। इसी दौरान मैनेजमेंट और मजदूरों में तनाव अधिक बढ़ गया था।
कंपनी ने आरोप लगाया कि उसके एक अधिकारी को चार मज़दूरों ने पीटा है और अंदरूनी जांच बैठा दी।
मज़दूरों ने कहा कि इस घरेलू जांच कमेटी में क्रांतिकारी कामगार यूनियन के एक प्रतिनिधि को शामिल किया जाना चाहिए ताकि नैसर्गिक न्याय की शर्तों को पूरा किया जा सके। उल्लेखनीय है कि क्रांतिकारी कामगार यूनियन के ये मज़दूर सदस्य थे।
लेकिन मैनेजमेंट का कहना था कि केंद्र शासित प्रदेश में क्रांतिकारी कामगार यूनियन रजिस्टर्ड नहीं थी इसलिए जांच कमेटी में उनके लिए जाने की अनुमति नहीं दी जा सकती।
जांच के दौरान चार या पांच बार की तारीख़ों के बाद इन चारों वर्करों को टर्मिनेट कर दिया गया।
गौरतलब है कि वेतन समझौता वार्ता के दौरान अगर किसी वर्कर को टर्मिनेट किया जाता है तो कंपनी को उस लेबर अधिकारी के सामने इसके लिए मंजूरी लेनी पड़ती है जिसके मध्यस्थता में चार्टर आफ़ डिमांड पर वार्ता चल रही होती है।
इस मामले में कंपनी ने जब मंजूरी मांगी तो लेबर अधिकारी ने ये मंजूरी दे दी और चार वर्करों को टर्मिनेट कर दिया गया।
क्रांतिकारी कामगार यूनियन के सेक्रेटरी आर.डी. जादव ने वर्कर्स यूनिटी को बताया कि जब कंपनी मंजूरी के लिए आवेदन करती है तो मज़दूरों से जवाब मांगा जाता है और दोनों पक्ष सबूत पेश करते हैं। बाकायदा मुकदमे जैसी कार्यवाही होती है। लेकिन इस मामले में आवेदन देते ही बिना मजदूरों का पक्ष जाने उन्हें तत्काल टर्मिनेट कर दिया गया।
इसके बाद मजदूरों ने इस मनमानी कार्यवाही के ख़िलाफ़ बॉम्बे हाईकोर्ट का दरवाज़ खटखटाया। इस मामले में 2009 में हाईकोर्ट ने मज़दूरों के पक्ष में फैसला सुना दिया।
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लेकिन कंपनी ने रिव्यू पेटीशन दाखिल कर दिया जिसे कोर्ट ने सुनवाई के लिए स्वीकार भी कर लिया। तबसे मुकदमा चल रहा था। 23 नवंबर 2022 को हाईकोर्ट ने अपना आदेश पारित कर दिया।
आर.डी. जादव ने कहा – “सिलवासा में जो अंधा कानून चल रहा था और जो मजदूरों के खिलाफ़ प्रशासन और मैनेजमेंट मिलीभगत से जो बर्ताव कर रहे थे, इस फैसले ने उनके मुंह पर तमाचा मारा है।”
उनका कहना है कि मज़दूरों के पक्ष में आज तक ऐसा फैसला नहीं हुआ, ये मजदूरों के लिए बड़ी जीत है।
मज़दूरों की तरफ़ से जानी मानी वकील जेन कॉक्स ने दलील की थी।
क्रांतिकारी सुरक्षा रक्षक संगठना के उपाध्यक्ष गजानंद गोविंद सालुंके का कहना है कि “जेन कॉक्स मज़दूरों के लिए अपनी पूरी ज़िंदगी लगा दी।’
‘वो मज़दूरों के ही मुकदमे लेती हैं और उनको न्याय दिलाने की पूरो कोशिश करती हैं।”
उन्होंने बताया कि, “जेन इंग्लैंड से लॉ की डिग्री हासिल की और फिर इंडिया आ गईं और महाराष्ट्र में उन्होंने मज़दूरों के बीच काम करना शुरू किया।”
‘ठेका मजदूरों के लिए खासकर उन्होंने कई महत्वपूर्ण क़ानूनी लड़ाई लड़ी। वो बहुत मामूली फ़ीस पर मज़दूरों के मुकदमे लड़ती हैं। अधिकांश मामले में उन्हें जीत हासिल हुई।
(संदीप राउज़ी वर्कर्स यूनिटी के फाउंडिंग एडिटर हैं।)
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