कर्नाटक में जब बंधुआ मजदूरी के खात्मे और ज़मीन बंटवारे ने राजनीति का रुख़ मोड़ दिया था…
By स्वाति कृष्णा, बेंगलुरू से
कर्नाटक की राजनीति पर दो जातीय-धार्मिक समूहों वोक्कालिगा और लिंगायत का दबदबा रहा है लेकिन 70 के शुरुआती दशक में दलित, जनजातीय और अन्य समूहों को एक जगह लाकर सामाजिक न्याय की नींव पड़ी।
ये समय है 1972 में देवराज उर्स ने इस बर्चस्ववादी राजनीति को चुनौती दी।
देवराज उर्स ने एससी-एसटी-दलित गुटबंदी कर पहली बार वोक्कालिगा और लिंगायत को राज्य की सत्ता से बाहर रखा। इस नए समीकरण से उर्स कर्नाटक के सबसे लंबे समय तक शासन करने वाले मुख्यमंत्री बने।
देवराज उर्स खुद शाही खानदान से आते थे, लेकिन उनके शासनकाल में सामाजिक न्याय की नींव डाली जा सकी जो आज भी कर्नाटक के प्रगतिशील हिस्से के लिए एक बेंचमार्क है।
1975 में पिछड़ा वर्ग की रिपोर्ट (हवानुर रिपोर्ट) उर्स सरकार के समय आई। सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस रिपोर्ट को काफी हद तक वैज्ञानिक आधार बताते हुए इसकी तारीफ़ की थी। इसके बाद एल.जी. हवानुर, उर्स सरकार में कानून मंत्री बने और इस रिपोर्ट को लागू करने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही।
इस रिपोर्ट में पिछड़े समुदाय के लोगों को आरक्षण और नौकरियों में नियुक्ति के लिए दिशानिर्देश दिए गये थे। इसके आधार पर कर्नाटक में आरक्षण नीति बनी, जिसे सरकारी, शैक्षणिक एवं अन्य संस्थाओं में लागू किया गया। पिछड़ी जातियों के लोगों को मुख्यधारा में लाने में इसकी बड़ी भूमिका रही, और उन्हें राजनीति में भी सफलता हासिल हुई।
उर्स ने पिछड़ों की शिक्षा पर विशेष जोर दिया। उनकी शिक्षा सुचारू रूप से हो सके, इसके लिए ओबीसी हॉस्टल बनवाये। इतना ही नहीं, बल्कि मैसूर क्षेत्र में बंधुआ मजदूरी एवं दलितों द्वारा मैला ढोने की प्रथा का उन्मूलन किया।
देवराज उर्स ने असली मायनों में भूमि सुधार को भी लागू किया, जिसकी वजह से बहुत सारी पिछड़ी जातियों को पहली बार ज़मीन का अधिकार हासिल हो सका।
यहाँ पर यह बात विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि मंडल आयोग की रिपोर्ट 1980 में बनकर तैयार हुई और इसे 1990 में लागू किया गया, लेकिन कर्नाटक में 1975 से ही हवानुर कमीशन के द्वारा पिछड़ों और दलितों को मुख्यधारा में लाने का काम शुरू हो चुका था।
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कर्नाटक राज्य की शुरुआती कहानी
कर्नाटक को वैसे भी दक्षिण का द्वार कहा जाता है। कर्नाटक संभवतः अकेला ऐसा राज्य होगा, जहाँ एक भी मजबूत क्षेत्रीय पार्टी नहीं है। जब-जब चुनाव नजदीक आता है, अधिकांश लोग कांग्रेस-बीजेपी जैसी राष्ट्रीय पार्टियों की ओर टकटकी लगा लेते हैं।
कहने के लिए जनता दल (सेक्युलर) एक क्षेत्रीय दल है, लेकिन उसने कभी भी राज्य की आकांक्षाओं और जरूरतों को अपना मुद्दा नहीं बनाया। बल्कि यह एक जाति विशेष की पार्टी और एक परिवार की पार्टी ही बन कर रह गई है।
कर्नाटक की राजनीति को समझने के लिए कर्नाटक के क्षेत्रों को समझना पड़ेगा। यहाँ का मैसूर क्षेत्र तटीय क्षेत्र एवं महाराष्ट्र क्षेत्र से काफी अलग है। खान-पान, पहनावा ही नहीं बल्कि जातीय समीकरण में भी यह भिन्नता साफ़ नजर आती है। सिर्फ एक बात इन्हें जोड़कर रखे हुए है और वह है कन्नड़ भाषा।
1956 में भाषा के आधार पर कई राज्यों का निर्माण किया गया, जिनमें से एक कर्नाटक भी था। पहले इसे मैसूर राज्य के नाम से जाना जाता था। 1956 में कन्नड़ बोलने वाले क्षेत्रों का एकीकरण कर कर्नाटक राज्य का निर्माण किया गया। अंग्रेजों के समय में 20 प्रशासनिक इकाइयां थीं, जिनमें मैसूर, हैदराबाद, मुंबई प्रेसीडेंसी एवं मद्रास प्रेसीडेंसी प्रमुख थीं।
भूतपूर्व मैसूर क्षेत्र जो कि दक्षिण कर्नाटक में है सिर्फ कन्नड़ राजकीय भाषा थी। बाकी जगहों पर उर्दू, मराठी या तमिल राजकीय भाषा थी। इसीलिए राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 के तहत इन सभी क्षेत्रों को जोड़कर नया कर्नाटक राज्य बना।
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वोक्कालिगा और लिंगायत का दबदबा
कर्नाटक की राजनीति में हमेशा से ही दो जातियों का दबदबा रहा है-वोक्कालिगा और लिंगायत। दोनों ही खेती से जुड़ी, जमींदार और सामंती विचारधारा की जातियां हैं।
जहां मैसूर क्षेत्र वोक्कालिगा (गोडा) जाति का वर्चस्व है, वहीं उत्तर और मध्य कर्नाटक में लिंगायत समुदाय का वर्चस्व रहा है। लिंगायत जाति कर्नाटक के बाद महाराष्ट्र और तेलंगाना में भी है लेकिन उनका कर्नाटक जैसा वर्चस्व नहीं है।
पुराने जनगणना के आधार पर देखें तो कर्नाटक में लिंगायत 17% हैं और वोक्कालिगा की आबादी 14% है। इतनी आबादी के बावजूद इन दोनों जातियों का ही कर्नाटक की राजनीति पर दबदबा बना हुआ है।
ये दोनों जातियां ओबीसी में आती हैं, लेकिन इनका वोट बैंक अन्य जातियों की तरह बिखरा हुआ नहीं है।
यही वजह है कि हर बार ये बड़े वोट ब्लॉक के तौर पर सामने आते हैं और इसीलिए कम संख्या में होते हुए भी राजनीतिक रूप से इनका राज्य की राजनीति में गैर आनुपातिक रूप से प्रतिनिधित्व बना हुआ है।
एकीकरण से पहले मैसूर राज्य के कांग्रेस अध्यक्ष रहे एस. निजलिंगप्पा को एकीकरण के पुरस्कार के रूप में एकीकृत कर्नाटक का पहला मुख्यमंत्री बनाया गया। निजलिंगप्पा भी लिंगायत थे। 1962 में वे दुबारा मुख्यमंत्री बनते हैं।
आजादी के बाद से ही इन दोनों जातियों की मदद से राजनीतिक पार्टियां सत्ता में आती रही हैं। कुल 23 मुख्यमंत्रियों में से 16 इन्हीं दो जातियों से आते रहे हैं। इसी से समझ में आ जाना चाहिए कि क्यों बीजेपी हो या कांग्रेस, दोनों ही पार्टियां इन जाति को रिझाने में लगी हुई हैं।
भाजपा और जेडीएस की एंट्री से पहले दोनों समुदायों का प्रतिनिधित्व अकेले कांग्रेस के जरिये होता था, और इनका वोट का आधार लगातार सशक्त होता रहा।
इस समीकरण को 1972 में देवराज उर्स ने तोड़ा.
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लिंगायत वोट बीजेपी सहारा है और साम्प्रदायिकता धार
वर्तमान में कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष, मल्लिकार्जुन खड़़गे को राजनीति में लाने का श्रेय भी देवराज उर्स को जाता है। इंदिरा गाँधी के वफादार माने जाने वाले उर्स कांग्रेस विभाजन के बाद भी इंदिरा गाँधी के साथ बने रहे, और कांग्रेस को भारी मतों से जिताने के बाद एक बार फिर से मुख्यमंत्री निर्वाचित हुए।
कर्नाटक में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार 1983 में जाकर बनी। जनता पार्टी की यह सरकार रामकृष्ण हेगड़े के नेतृत्व में बनी। लेकिन एक सच यह भी है कि 1983 के बाद से आजतक कोई भी पार्टी लगातार सरकार बना पाने में सफल नहीं हुई है। कांग्रेस-जनता दल की सरकारों का सिलसिला अदला-बदली के साथ चलता रहा।
2008 में बी.एस येद्दुरप्पा के नेतृत्व में कर्नाटक में पहली बार भाजपा को सत्ता में आने का मौका मिला, जिसमें कांग्रेस से छिटककर लिंगायत वोटों की सबसे अहम भूमिका रही। यहीं से भाजपा का दक्षिण भारत में चुनावी द्वार की संभावना खुली। भाजपा और जेडीएस की रस्साकसी में सिद्धारमैय्या एक बार फिर से देवराज उर्स का फार्मूला आजमाते हैं।
2013 में कांग्रेस नेता सिद्धारमैय्या अहिंदा (अल्पसंख्यक,पिछड़ी जातियां एवं दलित) का नया फार्मूला ले के आते हैं। सिद्धारमैया खुद कुरबा (गड़ेरिया) ओबीसी जाति से आते हैं, जिसकी राज्य में आबादी करीब 8% है।
इस बीच भाजपा और संघ परिवार द्वारा राज्य में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को तेज करने के लिए माहौल को विषाक्त बनाने की भरसक कोशिश की, जिससे कि हिंदुत्व को प्रमुख मुद्दा बनाया जा सके। लेकिन चुनाव से पहले अब वह भी जातियों को साधने में लग गई है। चुनाव से पहले वोक्कालिगा और लिंगायत के आरक्षण में वृद्धि इसी का नमूना है।
कांग्रेस भी इसी तर्ज पर जातीय जनगणना की बात उठाने लगी है और आरक्षण की लिमिट को 75% तक बढ़ाने की बात कर रही है।
ऐसे में देखना होगा कि क्या इस बार भी जातीय समीकरण ही काम आएगा या फिर लोग बेरोजगारी और महंगाई पर अपने मताधिकार का इस्तेमाल करेंगे।
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