रिपोर्ट : मज़दूरी में गिरावट की चिंताजनक तस्वीर
भारत में सार्वजनिक बहसों में नौकरियों पर इतनी ज्यादा केंद्रित चर्चा होती है की इस दौरान वेतन से सम्बंधित शोषण के मुद्दे की खतरनाक उपेक्षा होती रही है. यहाँ तक की मिडिया भी इस पर चर्चा करने से बचता रहा है. मजदूरी-गरीबी और इसके परिणाम भारतीय राजनीतिक वर्ग और नीति निर्माताओं के लिए कभी भी पर्याप्त मुद्दा नहीं बन पाते हैं.
अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर सस्टेनेबल एम्प्लॉयमेंट की स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया (एसडब्ल्यूआई) 2023 शीर्षक वाली हालिया जारी रिपोर्ट कोविड के बाद के भारत में वेतन में ठहराव की ओर इशारा कर रही है साथ ही इसके बेहद चिंताजनक परिणामों पर भी चर्चा कर रही है.
अगले लोकसभा चुनाव में अब सिर्फ छह महीने का समय बचा है. ऐसे में राजनीतिक दल रोजगार, गिग वर्कर्स के लिए कल्याणकारी योजनाएं और पुरानी पेंशन योजना (ओपीएस) को बहाल करने का वादा कर रहे हैं.
रिपोर्ट बताती है की नियमित वेतन या वेतनभोगी कामगारों की संख्या में वृद्धि हुई है और कृषि रोजगार में कार्यबल की हिस्सेदारी में गिरावट आई है. साथ ही साथ ये रिपोर्ट युवाओं, अनुसूचित जातियों (एससी) और महिलाओं सहित मज़दूरों की विभिन्न श्रेणियों के वेतनभोगी के रूप में संख्यात्मक अनुमान की भी जानकारी देती है.
एसडब्ल्यूआई की रिपोर्ट पिछले पांच वर्षों में वेतन में ठहराव के नए सबूत पेश करती है. हालांकि इस रिपोर्ट के निष्कर्षों की पहले से भी अंदाजन तौर पर चर्चा होती रही है लेकिन ये रिपोर्ट इस मुद्दे पर एक व्यापक तस्वीर को हम सबके सामने प्रस्तुत करती है.
रिपोर्ट में जिक्र है की युवाओं, अनुसूचित जातियों (एससी) और महिलाओं की विभिन्न श्रेणियों के भीतर कैजुअल वर्कर्स की संख्या में वृद्धि हुई है और कृषि रोजगार हिस्सेदारी में गिरावट आई है.
यह रिपोर्ट कुछ बेहद ही परेशान करने वाले मुद्दों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित कराता है. आंकड़े बताते है की 2017-18 के बीच, जब कैजुअल वर्कर्स के लिए औसत मासिक आय 12,318 रुपये थी जो 2021-22 के बीच गिरावट के साथ घटकर 12,089 रुपये हो गई.पिछले दो वर्षों में तो ये आय12,000 रुपये प्रति माह से कम भी काम रही है.
एक निराशाजनक तस्वीर
अगस्त 2023 में द हिंदू द्वारा किए गए डेटा विश्लेषण से पता चला है कि पांच वर्षों में भोजन की लागत में 65 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जबकि वेतन/मजदूरी में सिर्फ 28 से 37 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. साथ ही लोगों ने अपने भोजन के खर्च में कटौती के साथ-साथ भोजन की गुणवत्ता से भी समझौता किया है.
कैजुअल वर्कर्स की मज़दूरी जो 2017-18 में 6,959 रुपये थी. हर साल मामूली रूप से बढ़ती रही और 2021-22 में 7,856 रुपये तक पहुंच गई. कैजुअल वर्कर्स ही एकमात्र ऐसी श्रेणी है रही है,जिसका वेतन स्थिर नहीं हुआ है.
लेकिन 2017-18 और 2021-22 के बीच पांच वर्षों में इन वर्कर्स की औसत मासिक आय में सिर्फ 6 रुपये की वृद्धि हुई. रिपोर्ट में कहा गया है कि कमाई में उतार-चढ़ाव की ये श्रृंखला स्पष्ट रूप से 2020-21 के कोविड का ही प्रभाव है.
एसडब्ल्यूआई रिपोर्ट में विभिन्न प्रकार के रोजगार के लिए राज्यों (2021-22) में औसत मासिक श्रम आय सम्बन्धी आंकड़ों का भी जिक्र है.आंकड़ों से पता चलता है कि छत्तीसगढ़ में जहाँ कैजुअल वर्कर्स की मासिक आय 10,000 रुपये प्रति माह है वही दिल्ली और गोवा जैसी जगहों पर कही-कही 20,000 रुपये प्रति माह से भी अधिक देखने को मिलता है.
रिपोर्ट बताती है की इस साल के अंत में जिन राज्यों में चुनाव होने हैं, उनमें मध्य प्रदेश में कैजुअल वर्कर्स की औसत मासिक मजदूरी दर सबसे कम 4,951 रुपये है. वही छत्तीसगढ़ में 5,643 रुपये, तेलंगाना के लिए यह आंकड़ा 6,954 रुपये और राजस्थान के लिए 7,854 रुपये है. वही इन पांच राज्यों में कैजुअल वर्कर्स के लिए दैनिक मजदूरी दर 165 रुपये से 261 रुपये तक थी.
दिल्ली, गोवा, केरल, जम्मू और कश्मीर, लद्दाख, उत्तराखंड, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश को छोड़कर बाकि लगभग सभी ही राज्यों में कैजुअल वर्कर्स की मजदूरी कम ही देखने को मिली है.
मैदानी इलाकों के राज्यों में, दिहाड़ी मजदूर प्रति माह 10,000 रुपये से कम कमाते हैं. इन आंकड़ों की वजह से ये बात समझ आती है की आखिर क्यों ओड़िशा का कोई मज़दूर इतनी दूर केरल जाकर मज़दूरी करता है. ओडिशा में जहां औसत मासिक मज़दूरी प्रवासी 6,000 रुपये से भी कम है वही केरल में उन्हें औसत मासिक मज़दूरी 11,000 रुपये से भी अधिक प्राप्त हो जाती है.
एक नियमित मज़दूर की औसत मासिक कमाई पश्चिम बंगाल और असम में सबसे कम लगभग 15,000 रुपये प्रति माह है वही पहाड़ी राज्यों अरुणाचल, लद्दाख और मिजोरम में सबसे अधिक लगभग 31,000 रुपये प्रति माह है. हिंदी पट्टी के राज्यों में यह राजस्थान में सबसे अधिक 23,000 रुपये प्रति माह है.
अनिश्चित बाजार, नीतिगत उपेक्षा
डिप्रेस्सेड वेजेज के कारणों की अगर पड़ताल की जाये तो आंशिक रूप से नौकरियों में अनिश्चितता और बढ़ी हुई संविदाकरण( contractualization ) ही सबसे बड़ी समस्या के रूप में उभरती हैं.
जुलाई 2023 में श्रम ब्यूरो द्वारा जारी उद्योगों के आंकड़ों के वार्षिक सर्वेक्षण से पता चला है कि यह प्रवृत्ति कोविड से पहले शुरू हुई थी. 2018-19 और 2019-20 के बीच अनुबंध श्रमिकों को रोजगार देने में 71 प्रतिशत की वृद्धि हुई है.
द टेलीग्राफ ने पिछले महीने नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा राष्ट्रीय स्तर के न्यूनतम वेतन के संशोधन में देरी की रिपोर्ट की थी. इसमें आर्थिक सर्वेक्षण 2022-23 का हवाला देते हुए कहा गया है कि मज़दूरों द्वारा मजदूरी के रूप में प्राप्त राशि की क्रय शक्ति, जिसे वास्तविक मजदूरी के रूप में जाना जाता है. मुद्रास्फीति (महंगाई ) के आगे घुटने टेक दिया है.
श्रम मंत्रालय द्वारा निर्धारित राष्ट्रीय स्तर का न्यूनतम वेतन 176 रुपये प्रति दिन या 5,280 रुपये प्रति माह है. यह वह दर है जिसके नीचे राज्यों को अपनी न्यूनतम मजदूरी तय नहीं करनी चाहिए. इसे आखिरी बार 2017 में संशोधित किया गया था.
हालांकि इसे हर दो साल में संशोधित किया जाना चाहिए. न्यूनतम मजदूरी दरों को निर्धारित करने के बारे में सरकार कितनी लापरवाह है,उसके इस करवाई से समझा जा सकता है. इस बीच बढ़ती महंगाई घरेलू आय पर कहर बरपा रही है.
भले ही राष्ट्रीय बहुआयामी गरीबी सूचकांक ने गरीबी में गिरावट की सूचना दी है, लेकिन नए सबूत हैं कि कम आय के कारण भारतीय प्रमुख रूप से कुपोषित हैं.
खाद्य सुरक्षा और पोषण की वैश्विक रिपोर्ट बताती है कि भारत में स्वस्थ आहार की लागत ब्रिक्स देशों (ब्राजील, रूस, भारत, चीन, दक्षिण अफ्रीका और नए जोड़े गए देशों) और अन्य पड़ोसियों में सबसे कम है.
लगभग तीन-चौथाई आबादी के लिए एक स्वस्थ आहार का जुगाड़ कर पाना असंभव हो गया है, जिससे भारत इथियोपिया, पाकिस्तान और नेपाल के बाद चौथा सबसे कुपोषित देश बन गया है. एक आहार को बहुत महंगा तब माना जाता है जब यह किसी देश की औसत आय का 52 प्रतिशत से अधिक खर्च करता है.
जून 2021 में, श्रम मंत्रालय ने “न्यूनतम मजदूरी और राष्ट्रीय स्तर पर न्यूनतम मजदूरी के निर्धारण पर तकनीकी इनपुट और सिफारिशें प्रदान करने के लिए” एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया और इसे तीन साल का समय दिया. जबकि सरकार को देश के सबसे गरीब लोगों को जो भुगतान किया जाना चाहिए,उसे लागू करने में तत्परता दिखानी चाहिए थी.
वेतन संहिता 2019 में पारित की गई थी, लेकिन अभी तक इसे लागू नहीं किया गया है. 2017 में, अनूप सत्पथी समिति को न्यूनतम मजदूरी की समीक्षा के लिए नियुक्त किया गया था और 2019 में उन्होंने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की थी. लेकिन उस पर भी कोई चर्चा देखने को नहीं मिलती.
एक और समस्या यह है कि न्यूनतम मजदूरी सरकारों द्वारा संशोधित की जाती है लेकिन लागू नहीं की जाती है. दिल्ली की आम आदमी पार्टी (आप) सरकार साल में दो बार न्यूनतम मजदूरी में संशोधन करके ब्राउनी पॉइंट हासिल करना पसंद करती है, लेकिन इन्हें लागू नहीं किया जाता है.
अनौपचारिक (इनफॉर्मल) मजदूरों की मजदूरी तो कोई चुनावी मुद्दा भी नहीं बन पाती. गिग वर्कर का मुद्दा राजनेताओं और उपभोक्ता-मतदाताओं दोनों के लिए निर्माण मज़दूरों, स्वच्छता श्रमिकों, घरेलू श्रमिकों और कृषि और वन मज़दूरों के मजदूरी शोषण की तुलना में अधिक भावनात्मक मुद्दा बन गए हैं. शायद ऐसा इसलिए है क्योंकि गिग वर्कर्स अधिक दिखाई देते हैं . शहरी उपभोक्ताओं के दैनिक जीवन का एक हिस्सा होते हैं जबकि बाद में हाशिए पर रहते हैं.
(द प्रिंट की खबर से साभार)
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