बलात्कार और हत्या के बढ़ते आंकड़े: क्या सुप्रीम कोर्ट की कार्रवाई पर्याप्त है?

बलात्कार और हत्या के बढ़ते आंकड़े: क्या सुप्रीम कोर्ट की कार्रवाई पर्याप्त है?

पश्चिम बंगाल के आरजी कर अस्पताल में हुए बलात्कार और हत्या की घटना ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया है।

इस वीभत्स अपराध ने न केवल स्वास्थ्य सेवाओं के ढांचे पर सवाल उठाए हैं, बल्कि यौन हिंसा और पुलिस की निष्क्रियता के गंभीर मुद्दों को भी उजागर किया है।

इस घटना के बाद से नागरिक संगठन, नारीवादी समूह, छात्र और जन आंदोलन सुप्रीम कोर्ट से न्याय की मांग कर रहे हैं।

हाल ही में इस मामले पर एक खुला पत्र मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ को भेजा गया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट की धीमी कार्रवाई पर सवाल उठाए गए हैं और न्यायपालिका से त्वरित और सख्त कदम उठाने की अपील की गई है।

घटना और सुप्रीम कोर्ट की प्रतिक्रिया

आरजी कर अस्पताल में एक प्रशिक्षु डॉक्टर के साथ बलात्कार और हत्या की घटना ने जनता को गहरे आक्रोश में डाल दिया है।

सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में ‘स्वतः संज्ञान’ तो लिया, लेकिन जांच की गति इतनी धीमी है कि अभी तक कोई ठोस निष्कर्ष नहीं निकला है। सीबीआई की जांच भी ठप्प पड़ी हुई है।

इससे जनता में विश्वास की कमी और विरोध की लहरें और तेज हो गई हैं।

चिकित्सा समुदाय और आम जनता द्वारा लगातार विरोध प्रदर्शन किए जा रहे हैं। विरोध करने वाले डॉक्टर, जो एक बेहतर और पारदर्शी स्वास्थ्य व्यवस्था की मांग कर रहे हैं, खुद को स्वास्थ्य प्रणाली की खामियों के खिलाफ खड़ा पा रहे हैं।

जबकि भ्रष्टाचार और धमकी का सामना करते हुए, चिकित्सकों का यह संघर्ष न केवल स्वास्थ्य सेवाओं की बेहतरी के लिए है, बल्कि देश की न्याय प्रणाली की निष्क्रियता के खिलाफ भी एक लड़ाई है।

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सुरक्षा और संस्थागत खामियां

इस घटना ने एक गंभीर सवाल खड़ा किया है: क्या देश के चिकित्सा संस्थान या अन्य सार्वजनिक संस्थान सुरक्षित हैं?

आरजी कर अस्पताल जैसी घटनाएं इस बात की पुष्टि करती हैं कि स्वास्थ्य सेवा संस्थानों में बुनियादी सुरक्षा मानकों का घोर अभाव है।

आराम-कक्ष, शौचालय, छात्रावास, स्वच्छता और परिवहन जैसी सुविधाओं की स्थिति बेहद दयनीय है।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित राष्ट्रीय टास्क फोर्स (NTF) की संरचना पर भी गंभीर सवाल उठाए जा रहे हैं।

यह आशंका व्यक्त की जा रही है कि यह टास्क फोर्स, जिसमें उच्च स्तरीय अधिकारी शामिल हैं, भ्रष्टाचार और संस्थागत खामियों की जांच करने में सक्षम नहीं होगी।

इसके अलावा, सुप्रीम कोर्ट द्वारा सीआईएसएफ की तैनाती का निर्णय भय और निगरानी की संस्कृति को बढ़ावा देता है, जबकि यह त्वरित जांच में मदद नहीं करता।

 

 

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PoSH अधिनियम और यौन उत्पीड़न

इस घटना ने कार्यस्थलों पर यौन उत्पीड़न की रोकथाम के लिए बने PoSH अधिनियम की विफलताओं को भी उजागर किया है। 13 साल बीत जाने के बावजूद, कार्यस्थलों पर इस अधिनियम का क्रियान्वयन बेहद कमजोर है।

कई संस्थानों में ICC (Internal Complaints Committee) और LCC (Local Complaints Committee) जैसे आवश्यक ढांचे अभी भी स्थापित नहीं हुए हैं, और जहां स्थापित हैं, वहां वे निष्क्रिय या प्रशासन के प्रभाव में काम कर रहे हैं।

खासतौर पर असंगठित क्षेत्र, मुस्लिम, दलित महिलाओं और LGBTQ+ समुदाय के लोग यौन हिंसा और भेदभाव का शिकार हो रहे हैं।

इस मुद्दे को गंभीरता से लेते हुए नारीवादी संगठनों ने इस अधिनियम में LGBTQ+ समुदाय को भी शामिल करने की मांग की है, ताकि उन्हें भी समान सुरक्षा और न्याय मिल सके।

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राजनीतिक दलों की भूमिका और दंड से मुक्ति

देश में बलात्कार और यौन हिंसा के मामलों में राजनीतिक दलों की भूमिका भी संदेह के घेरे में है।

चाहे उत्तराखंड की नर्स का सामूहिक बलात्कार हो या मणिपुर और बंगाल में महिलाओं पर हुए अत्याचार, ये घटनाएं यह बताती हैं कि सत्ता में बैठे लोग ऐसे अपराधों को रोकने में विफल रहे हैं।

इसके साथ ही, भाजपा जैसी सत्तारूढ़ पार्टियों पर बलात्कारियों और अपराधियों को बचाने का आरोप भी लगाया जा रहा है।

उन्नाव और कठुआ के मामलों से लेकर बिलकिस बानो मामले तक, इन पार्टियों की राजनीति ने न्याय की प्रक्रिया को कमजोर किया है।

मांगें और न्याय की दिशा में कदम

इस खुले पत्र में न्यायपालिका से निम्नलिखित मांगें की गई हैं:

. बलात्कारियों और हत्यारों की पहचान कर उन्हें जल्द से जल्द सजा दी जाए।

. अपराध से जुड़े साक्ष्य नष्ट करने वालों को गिरफ्तार किया जाए।

. सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित टास्क फोर्स में क्षेत्रीय डॉक्टरों, छात्रों और कार्यकर्ताओं को शामिल किया जाए
ताकि वास्तविकता के आधार पर जांच हो सके।

. मामले की सुनवाई के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट की स्थापना की जाए।

. पीड़ितों पर हुए शारीरिक हमलों के लिए दोषी पुलिस अधिकारियों और पार्टी कार्यकर्ताओं को दंडित
किया जाए।

. चिकित्सा संस्थानों सहित सभी संस्थानों में लैंगिक समानता सुनिश्चित करने के लिए ‘जेंडर ऑडिट’ की जाए।

. PoSH अधिनियम के तहत ICC और LCC समितियों की स्थापना को सख्ती से लागू किया जाए।

. LGBTQ+ समुदाय को भी PoSH अधिनियम के तहत सुरक्षा प्रदान की जाए।

. हाल ही में पारित भारतीय न्याय संहिता (BNS) को संशोधित किया जाए ताकि यौन उत्पीड़न के मामलों में समय पर एफआईआर दर्ज हो सके।

आरजी कर अस्पताल में हुआ बलात्कार और हत्या का यह मामला न केवल एक अपराध की कहानी है, बल्कि यह देश की न्याय प्रणाली, स्वास्थ्य सेवाओं और कार्यस्थलों पर यौन उत्पीड़न के प्रति सरकार की उदासीनता को उजागर करता है।

जब तक न्यायपालिका इस पर कड़ा कदम नहीं उठाती, तब तक यौन हिंसा और दमन की यह संस्कृति देश के सबसे कमजोर वर्गों को निशाना बनाती रहेगी।

 

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Abhinav Kumar

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