कॉमरेड का सपना!

कॉमरेड का सपना!

-संपादक की ओर से-

एक साल पहले मुंबई में कुछ घंटों की मुलाक़ात में लगा था कि हम मिलकर एक सामूहिक सपने को साकार करने में एक छोटी पहल को अंजाम तक पहुंचा पाएंगे।

दरअसल उसी सपने के सिलसिले में एक संक्षिप्त मीटिंग के लिए उन्होंने मुझे मुंबई बुलाया था। जिस समय मैं मुंबई हवाई अड्डे पर उतरा भयंकर बारिश हो रही थी।

उस बारिश में उनके बुलावे पर मुंबई के कुछ मानिंद एक्टिविस्ट इकट्ठा हुए थे। कॉमरेड ने उन्हें अपने एक फ़ैसले में शामिल होने के लिए बुलाया था और परोक्ष रूप से उस पर राय भी चाहते थे।

मुद्दा था मज़दूर वर्ग का अपना एक स्वतंत्र मीडिया खड़ा करना, जिसकी कोशिश हम चंद लोग पिछले पांच सात साल से कर रहे थे।

शुरू से ही कॉमरेड संजय सिंघवी इस सपने से मुतास्सिर थे, इसके लिए उन्होंने अपनी प्रभावशाली यूनियन ट्रेड यूनियन सेंटर ऑफ़ इंडिया (टीयूसीआई) की केंद्रीय समिति में एक प्रस्ताव भी पारित कराया था। वह टीयूसीआई के जनरल सेक्रेटरी थे।

हम सब इस बात पर मुतमइन थे कि अगर ट्रेड यूनियनें चाहें तो ऐसा काम खड़ा किया जा सकता है, एक ऐसा मज़दूर मीडिया खड़ा हो सकता है जो मज़दूरों में जागरूकता और राजनीति के प्रति सजगता का वाहक बन सके। विचार ये था कि अगर टीयूसीआई इसे ज़रूरी समझती है तो वो इसे अपने कार्यभार के तौर पर स्वीकार करे।

दुर्भाग्य से यह सपना अभी सपना ही है और कॉमेरड संजय सिंघवी के जाने से एक बड़ा धक्का लगा है।

23 अप्रैल, बुधवार की रात्रि 10 बजे मुम्बई के हिन्दुजा अस्पताल में उनका निधन हो गया। ठीक 22 दिन बाद 15 मई को उनका 68वां जन्मदिन था। उनके परिवार में उनकी पार्टनर ज़ेन हैं, जो खुद मज़दूरों के लिए क़ानूनी लड़ाई लड़ती हैं।

8 नवंबर 2022 को दिल्ली के जंतर मंतर पर टीयूसीआई के तीन दिवसीय धरने में एनटीयूआई के जनरल सेक्रेटरी गौतम मोदी के साथ.

वैचारिक यात्रा

कॉमरेड सिंघवी का जीवन एक प्रेरणा रहा है। छात्र जीवन से ही जनता के प्रति हमदर्दी और बदलाव के सपने ने उन्हें विद्रोही बना दिया। वह छात्र राजनीति में शामिल हो गए और फिर परिवर्तनकामी राजनीतिक आंदोलन जो शामिल हुए तो आखिरी सांस तक रहे।

लेकिन उनकी राजनीतिक समझ बहुत रूढ़ नहीं थी। मज़दूरों को संगठित करना, उनके हक़ की लड़ाई लड़ना, संघर्षों में उनके साथ सड़क से लेकर कोर्ट तक शामिल रहने के अलावा मज़दूरों को एक वर्ग के रूप में संगठित करना उनके सपने का अभिन्न हिस्सा रहा।

बदलती दुनिया में अपनी रणनीति को बदलने में वो कभी हिचके नहीं। पांच साल पहले दिसंबर 2019 में सिलवासा में टीयूसीआई का 9वां राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ था। इसे कवर करने के लिए वर्कर्स यूनिटी की टीम को भी आमंत्रित किया गया था।

हम पहुंचे, वहां पूरे देश भर से अलग अलग हिस्सों से सैकड़ों मज़दूर नेता, कार्यकर्ता और यूनियनों के सदस्य पहुंचे थे।

तब कॉमरेड संजय ने कहा था कि, “मज़दूर वर्ग को इकट्ठा होना होगा। म्राज्यवाद, नव उदारीकरण, प्राईवेटाइजेशन का विरोध ज़रूरी है और ऐसी यूनियनें जो पारदर्शी हैं, मज़दूरों के हक़ के लिए ईमानदारी से लड़ना चाहती हैं, उन्हें साथ आना होगा। ये वक़्त साथ आने का है।”

इसी सपने के चलते कॉमरेड सिंघवी ने मज़दूर अधिकार संघर्ष अभियान (मासा) के गठन के अहम भूमिका निभाई, वे संस्थापक सदस्य थे। मासा देश भर के खुद को क्रांतिकारी मानने वाली ट्रेड यूनियनों का एक मंच है।

इस संगठन ने लेबर कोड के ख़िलाफ़ व्यापक पैमाने पर मज़दूरों के बीच जागरूकता अभियान चलाया। राज्यों में इसे लेकर सम्मेलन किए गए, पुस्तिकाएं और पर्चे निकाले गए।

कॉमरेड संजय सिंघवी का मानना था कि लेबर कोड को हर हाल में रोकना होगा, वरना पहले से ही खस्ताहाल में रह रहा मज़दूर वर्ग और मुसीबत में पड़ेगा।

हालांकि बाद के समय में इस संगठन से मोहभंग की नौबत भी आई क्योंकि यह उपकरण भी अन्य ट्रेड यूनियन फ़ेडरेशनों जैसी रस्मी कार्रवाईयों से आगे नहीं बढ़ पाया।

असल में कॉमरेड संजय सिंघवी का मानना था कि किसी लड़ाई को बिना एकजुटता के परवान नहीं चढ़ाया जा सकता। मोर्चा ज़रूरी है लेकिन समान विचार रखने वाले मज़दूर संगठनों को एक होना होगा। बीते दो तीन सालों से उनका प्रयास था कि सच्ची और ईमानदार यूनियनों को आपस में विलय कर लेना चाहिए ताकि बिखरी हुई ताक़त एक बड़ी शक्ति बन जाए।

साथ ही केंद्रीय ट्रेड यूनियनों के साथ भी तालमेल बिठाकर मज़दूर कार्रवाई में पहलकदमी लेने का विचार भी आगे किया।

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नवंबर 2022, जंतर मंतर

संघर्ष और एकजुटता का संदेश

इसी सपने के साथ टीयूसीआई के बैनर तले दिल्ली के जंतर मंतर पर 8 नवंबर 2022 को तीन दिवसीय धरना आयोजित किया गया, जिसमें बाकी ट्रेड यूनियनों को भी शामिल होने का न्योता दिया गया था।

उस दौरान कॉमरेड संजय सिंघवी ने कहा था कि “टीयूसीआई मासा में भी शामिल है और साथ ही अन्य ट्रेड यूनियनों के साथ एकता स्थापित करने की भी कोशिश कर रही है ताकि चार लेबर कोड के ख़िलाफ़ लड़कर उसे वापस कराया जा सके।”

उनका सपना था कि लेबर कोड के ख़िलाफ़ लड़ने की चाहत रखने वाली सभी यूनियनों को राज्य स्तर पर एक मंच पर आना चाहिए और इस तरह साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई को व्यापक बनाना चाहिए।

बिना मज़दूर वर्ग की मुक्ति के शोषण से पूरे मानव समाज की मुक्ति असंभव है। एक दूरगामी बदलाव बिना विचारधारा के संभव नहीं।

ये कुछ कोशिशें कॉमरेड ने हाल के सालों में शुरू की थीं। लेकिन सपने के सामने ज़िंदगी छोटी पड़ गई।

उनकी मृत्यु की ख़बर के बाद से ही मज़दूर वर्ग में शोक है। यह एक ऐसी क्षति है, ऐसा आघात है जो आने वालों में सालती रही रहेगी। उनके जाने से जो खालीपन पैदा हुआ है उसे भरने में वक़्त लगेगा।

क़रीब साल भर पहले जब उस बारिश के दिन मुंबई में उनसे मुलाक़ात हुई थी, तो ऐसा लगा था कि वह अपनी बीमारी से उबर गए हैं। वह मुझे एयरपोर्ट तक छोड़ने भी आए।

वह स्वस्थ और उर्जावान दिख रहे थे। उनकी आंखों में सपने की चमक थी- अन्याय, भेदभाव और असमानता से मुक्त दुनिया के लिए दुनिया भर के लोगों के प्रतिरोध को खड़ा करने के सपने की!

लेकिन जैसा हम सोचते हैं, ज़िंदगी वैसी नहीं चलती। कैंसर ने उन पर दोबारा हमला बोल दिया। कीमो और रेडियो थेरेपी के कई चरण चलाए गए, लेकिन स्थिति नाजुक होती चली गई। कुछ महीने पहले उनसे फ़ोन पर बात हुई थी, उनकी आवाज़ में वही उत्साह झलक रहा था, मिलने का वादा था जो पूरा नहीं हो पाया और जिसका अफसोस रहेगा।

उन्होंने एक प्रतिबद्ध जीवन जिया, कई लोगों के लिए प्रेरणा रहे, उन्होंने दिखाया कि बदलती दुनिया में अपनी रणनीति और कौशल को कैसे बदलना चाहिए।

श्रमजीवी पत्रकारों के लिए संघर्ष

वामपंथी बुद्धिजीवी और पत्रकार आलोक श्रीवास्तव ने उनके लिए श्रद्धांजलि में लिखा कि “मुंबई से एडवोकेट संजय सिंघवी के निधन की खबर मिल रही है। उन्हें कैंसर था… कुछ साल पहले तक पूरी तरह स्वस्थ थे… वे एक नेक, समर्पित कम्युनिस्ट थे। उनके पिता के. के. सिंघवी भारत के शीर्षस्थ वकीलों में थे।”

“29 साल पहले उन्होंने जिस दक्षता, कर्मठता और कौशल से ‘धर्मयुग’ का मुकदमा लड़ा था, उससे न सिर्फ ‘धर्मयुग’ के 15 कर्मचारियों की नौकरियां बची थीं।”

“टाइम्स -ग्रुप द्वारा ‘नवभारत टाइम्स’ को बेचने का पूरा प्रोग्राम ध्वस्त हो गया था, बल्कि देश भर के लाखों पत्रकारों की नौकरियां बची थीं, क्योंकि वह मुकदमा ‘वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट 1955’ को खत्म कर देता, यदि पराजय होती।”

“भारत के लाखों पत्रकार नहीं जानते कि संजय सिंघवी और उनके पिता के. के. सिंघवी की प्रतिभा और श्रमजीवी वर्ग के प्रति उनका दृष्टिकोण था कि सुप्रीम कोर्ट तक उस मुकदमे में हमें विजय हासिल हुई थी।”

“संजय साहित्य, विचारधारा और मार्क्सवाद के अध्येता थे। वे उस पीढ़ी के अंग थे जो हमारे देश से अब लुप्त हो रही है, जिसने क्रांति और साम्यवाद के सपने को अपने जीवन में जिया था और उसके लिए काम किया था।”

कॉमरेड संजय सिंघवी भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) मास लाइन के पोलित ब्यूरो सदस्य  थे।

हम उन्हें नमन करते हैं और दुनिया भर के श्रमिकों के एक सच्चे मित्र के अपूरणीय क्षति पर वर्कर्स यूनिटी शोक प्रकट करती है। उनके साथियों के शोक में हम खुद को शामिल मानते हैं।

कॉमरेड का सपना सबका सपना है, यह मज़दूर वर्ग की मुक्ति का सपना है! इसे इसी सदी में पूरा होना है।

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Workers Unity Team

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