हीरा उद्योग की गिरती चमक: सूरत में रोज़गार संकट, 18 महीनों में 71 मज़दूरों ने की आत्महत्या
सूरत के हीरा उद्योग में करीब 8-10 लाख मज़दूर काम करते हैं, लेकिन इनमें से ज्यादातर मज़दूर स्थायी नहीं हैं, और न ही उनके पास नियमित रोजगार है।
हीरा श्रमिक संघ गुजरात (DWUG) के अनुसार, उद्योग में स्थिरता की कमी और आर्थिक संकट ने मज़दूरों के सामने गंभीर चुनौतियाँ खड़ी कर दी हैं।
पिछले 18 महीनों में, रोजगार के संकट, वेतन कटौती और छंटनी के चलते, 71 हीरा श्रमिकों ने आत्महत्या की है।
बेरोज़गारी की मार
पिछले तीन महीनों से राकेशभाई डाभी और उनकी पत्नी हर रोज शाम 7:30 बजे के करीब सूरत की एक गली में सब्जी का सूप बेच रहे हैं। उनके ठेले का नाम, ‘रत्नकलाकार’ (हीरा कारीगर), लोगों का ध्यान आकर्षित करता है।
थोड़ा कुरेदने पर 43 वर्षीय डाभी बताते हैं कि गुजरात के इस हीरा शहर में कई छोटे और मध्यम आकार के व्यवसायों के बंद होने से उन्हें और सैकड़ों अन्य हीरा कारीगरों को कितनी कठिनाई हो रही है।
हीरे की कटाई और पॉलिशिंग के काम में लगे डाभी ने सूरत की गलियों में 18 साल तक काम किया। फिर भी उनकी दैनिक आय 1,200-1,300 रुपये से घटकर 600-700 रुपये हो गई है।
कोई विकल्प न होने पर, अब ये दंपति हर रोज अस्थायी दुकान लगाकर अपने परिवार का पालन-पोषण कर रहे हैं। डाभी की पत्नी को डर है कि कहीं डाभी उनके भाई की तरह कोई चरम कदम न उठा लें, जिसने आर्थिक तनाव के कारण मई में अपनी जान ले ली थी।
डाभी बात करते हुए कहते हैं, ‘ हीरा कारीगर के तौर पर मेरी आय पर्याप्त नहीं है। इसलिए उसने सुझाव दिया कि हम खाद्य व्यवसाय शुरू करें। मेरी पत्नी कहती है कि वह इस व्यवसाय में मेरी मदद करेगी ताकि हम अपने खर्चों का प्रबंधन कर सकें। आज वही परिवार का सहारा है।’
सभी डाभी जितने भाग्यशाली नहीं हैं, क्योंकि कई हीरा कारीगर अक्सर अपने परिवारों के एकमात्र कमाने वाले सदस्य ने नौकरी छूटने के बाद जीवन का अंत करने का कठोर कदम उठाया है।
कभी अपने फलते-फूलते व्यवसाय के लिए मशहूर सूरत, पिछले कुछ वर्षों से आर्थिक मंदी से जूझ रहा है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में हीरों की मांग में गिरावट के कारण इस उद्योग में मंदी आ रही है।
द प्रिंट से बात करते हुए कई हीरा उद्योग के मज़दूरों ने बताया कि स्थिति में सुधार नहीं हुआ है और हर दिन किसी न किसी फैक्ट्री में किसी न किसी मज़दूर की आय या नौकरी खत्म हो जाती है।
काम में गिरावट के बाद 10 घंटे की शिफ्ट 7-8 घंटे हो गई है। दैनिक वेतनभोगियों की तनख्वाह भी घट गई है, उन्होंने बताया।
एक मज़दूर ने कहा, ‘मुझे सोचना पड़ेगा कि दिवाली के बाद क्या करूँगा। मेरा मैनेजर भी नहीं जानता कि आगे क्या करना है। इस दिवाली में मेरी तनख्वाह 25,000 रुपये से घटकर 12,000 रुपये रह गई। हीरा उद्योग में ऐसा पहली बार हो रहा है’।
मदद के लिए हेल्पलाइन
हीरा श्रमिक संघ गुजरात (DWUG) के अनुसार, पिछले 18 महीनों में सूरत में कुल 71 हीरा मज़दूरों ने आत्महत्या की है। इनमें से 45 मामले पिछले एक साल में दर्ज हुए हैं, जिनमें से 31 मामले पिछले छह महीनों में हुए हैं।
आर्थिक अस्थिरता और बेरोजगारी सूरत में आत्महत्याओं के मुख्य कारण हैं। इससे निपटने के लिए DWUG ने जुलाई में एक हेल्पलाइन शुरू की। इसके लॉन्च के बाद से ही इस हेल्पलाइन पर 2,500 से अधिक कॉल आ चुकी हैं।
DWUG के उपाध्यक्ष भावेश टैंक बताते है, ‘ जब इन आत्महत्याओं की शुरुआत हुई, तो हमने गुजरात के श्रम मंत्री को इन मज़दूरों और उनके परिवारों को कुछ आर्थिक सहायता प्रदान करने के लिए लिखा। लेकिन सरकार ने कोई कदम नहीं उठाया। जिसके बाद हमने इस हेल्पलाइन को शुरू करने का फैसला किया।’
वो आगे बताते हैं, ‘अगर सरकार ठोस कदम नहीं उठाती है, तो आत्महत्याओं की यह प्रवृत्ति नहीं रुकेगी, भले ही हम ऐसे लोगों की पहचान कर उन्हें मदद करने का भरसक प्रयास कर रहे हैं।’
जेम एंड ज्वैलरी एक्सपोर्ट प्रमोशन काउंसिल (GJEPC) की सितंबर रिपोर्ट के अनुसार, कटे और पॉलिश किए गए हीरों का कुल सकल निर्यात $1,290.89 मिलियन (10,822.37 करोड़ रुपये) रहा, जो पिछले वर्ष की इसी अवधि में $1,673.56 मिलियन (13,892.3 करोड़ रुपये) था, इसमें 22.87 प्रतिशत की गिरावट आई है।
जहां तक कटे और पॉलिश किए गए हीरों के आयात की बात है, तो यह 20.11 प्रतिशत घटकर $126.3 मिलियन (1,058.42 करोड़ रुपये) रह गया, जो पिछले वर्ष $158.1 मिलियन (1,312.73 करोड़ रुपये) था।
DWUG के अनुसार, सूरत में लगभग 8-10 लाख हीरा मज़दूर हैं और पूरे गुजरात में कुल मिलाकर लगभग 25 लाख मज़दूर हैं। इनमें से अधिकांश मज़दूर न तो स्थायी हैं और न ही पेरोल पर पंजीकृत कर्मचारी हैं।
इस कार्यबल का एक बड़ा हिस्सा सौराष्ट्र से आता है, जबकि कई ओडिशा और कर्नाटक जैसे दूरदराज के राज्यों से भी आते हैं।
डाभी बताते हैं, ‘ इस उद्योग में स्थिति अच्छी थी। 2008 में मंदी के दौरान भी कुछ हलचल हुई थी, लेकिन ऐसी स्थिति नहीं थी’।
हालांकि, कोविड के बाद पिछले दो वर्षों में स्थिति बद से बदतर होती चली गई।
भावेश टैंक बताते हैं, ‘ पिछले ढाई वर्षों में आर्थिक मंदी ने बाजार को प्रभावित किया है। वेतन में कमी आई है और इसने मुश्किलें और बढ़ा दी हैं। एक मज़दूर एक महीने या दो महीने तक किसी तरह कठिनाइयों का सामना कर सकता है। लेकिन यह मंदी अब वर्षों से बनी हुई है।’
28 वर्षीय निकुंज टैंक, जो तीन साल से इस क्षेत्र में काम कर रहे थे, 2 अगस्त को अपने कमरे में पंखे से लटके पाए गए। उनके माता-पिता, पत्नी और 15 महीने की बेटी हैं। उनके पिता जयंतिभाई ने बताया कि उनके बेटे पर लगभग 4 लाख रुपये का कर्ज था।
उन्होंने बताया कि, ‘उसकी मासिक तनख्वाह नहीं बढ़ी और अंत तक 15,000 रुपये ही रही। मुझे उसके कर्ज के बारे में पता था, लेकिन उसने कभी नहीं बताया कि वह कितना तनाव में था। उस दिन मैं नीचे था और वह ऊपर अपने कमरे में था। करीब 3.30-4 बजे जब मैं उसे देखने गया, तो मैंने उसे फांसी पर लटका पाया। वह हमारे परिवार का एकमात्र कमाने वाला था।’
‘मैंने आत्महत्या का मन बना लिया था’
45 वर्षीय विनुभाई परमार, एक और हीरा मज़दूर, किस्मत से DWUG हेल्पलाइन के संपर्क में आ गए।
तीन महीने पहले काम से निकाले जाने पर परमार ने कहा कि उनके बर्खास्तगी का कारण मंदी बताया गया।
विनुभाई परमार कहते हैं, ‘ जब उन्होंने मुझसे काम पर न आने को कहा, तो मैं बहुत घबरा गया और घर लौट आया। वहाँ जाकर पता चला कि मेरी पत्नी को करंट लग गया था और वह बेहोश हो गई थी। मेरी सारी बचत अस्पताल और देखभाल के बिलों में चली गई। मैं आघात और दबाव में था, लेकिन बात करने के लिए कोई नहीं था।’
परमार, जो पिछले 35 वर्षों से हीरा उद्योग में काम कर रहे थे, ने टैंक को एक एसओएस कॉल किया।
परमार बताते हैं, ‘ मैंने उन्हें अपनी हालत के बारे में सब कुछ बताया और यहां तक कि उन्हें अपने मरने की इच्छा भी बताई। इन लोगों ने मुझे समझाया और मुझे इस तरह के कदम की निरर्थकता समझाई। उन्होंने मुझे एक महीने का राशन किट भी दिया।’
वर्तमान में, वह एक फैक्ट्री में दैनिक मजदूरी पर काम कर रहे हैं, जो हीरा कार्यशालाओं के लिए मशीनरी बनाती है।
परमार के मामले की तरह ही, टैंक ने एक और घटना याद की जब उन्हें एक महीने पहले एक मज़दूर का फोन आया, जो आत्महत्या करने वाला था।
टैंक ने तुरंत अपनी टीम को सूचित किया, और उस व्यक्ति को ऑफिस लाया गया। टैंक ने याद करते हुए बताया ‘शुरू के दो घंटों तक वह केवल रोता रहा’ ।
टैंक बताते हैं, ‘ हमने उसे रोने दिया। फिर उसने बताया कि उसे नौकरी से निकाल दिया गया है और उसकी आर्थिक स्थिति बहुत खराब है। उसके घर में खाने-पीने की भी कोई चीज़ नहीं थी। हमने उसकी पत्नी को भी ऑफिस बुलाया और उनसे बात की। हमने उसे प्रारंभिक मदद दी और अब वह और उसका परिवार थोड़े बेहतर स्थिति में हैं।’
DWUG के सदस्य उन कॉल करने वालों का हालचाल लेते रहते हैं जो हेल्पलाइन का उपयोग करते हैं ताकि उनकी भलाई सुनिश्चित की जा सके।
हालांकि वे पेशेवर काउंसलर नहीं हैं, फिर भी वे ऐसे मज़दूरों से लगातार बात करते रहते हैं ताकि उनका मनोबल ऊँचा रखा जा सके।
उद्योग के बदलते रूप पर हीरा व्यापारियों का कहना है कि वर्तमान स्थिति के लिए यूक्रेन-रूस और गाजा-इज़राइल युद्ध और प्राकृतिक हीरों की मांग में कमी जैसे कारणों ने मंदी की स्थिति बना दी है।
सूरत के महिधरपुरा इलाके के सबसे बड़े रत्न बाजार में हीरा व्यापारी मनोज कचरिया ने माना कि बेशकीमती पत्थर के बाजार का बुरा वक्त चल रहा है।
वो कहते हैं, ‘ मेरे स्टॉक की कीमत अब कम से कम 50 प्रतिशत गिर गई है। मैं आमतौर पर हीरे का निर्यात करता था, लेकिन मेरे अंतरराष्ट्रीय बाजार के नियमित ग्राहक फिलहाल खरीदने के लिए तैयार नहीं हैं।’
प्राकृतिक और लैब-ग्रोन्ड हीरों का द्वंद्व
एक अन्य प्रमुख कारण लैब-ग्रोन्ड डायमंड्स का आगमन है। हालांकि लैब में बने हीरे को डिजाइन और काटने में उतने ही घंटे और मज़दूर लगते हैं, लेकिन ये काफी सस्ते होते हैं, खनिज हीरों के मूल्य का केवल दसवां हिस्सा। इस उद्योग की वृद्धि 2018 में शुरू हुई और तब से सात गुना बढ़ चुकी है।
लैब में बने हीरों, जिन्हें CVD (केमिकल वेपर डिपोजिशन) हीरे के रूप में भी जाना जाता है, से जुड़े व्यापारी, दीपेश धनक ने कहा कि सरकार अब इस उद्योग में इन हीरों को प्रोत्साहित कर रही है।
धनक बताते हैं, ‘ व्यापारियों में भ्रम की स्थिति है। प्राकृतिक हीरों की मांग 40-50 प्रतिशत गिर गई है, इसलिए मज़दूरों के लिए कोई काम नहीं है और इसी कारण बड़े पैमाने पर छंटनी हो रही है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि CVD फल-फूल रहा है। वह भी धीरे-धीरे ही बढ़ रहा है।’
एक अन्य हीरा व्यापारी, जो उद्योग में अन्य खिलाड़ियों के लिए मशीनरी प्रदान करने का काम भी करते हैं, ने कहा कि पूरी दुनिया में इस उद्योग में संकट है।
वो कहते हैं, ‘ इसलिए हमारा निर्यात प्रभावित हुआ है। कारोबार में लाभ का मार्जिन घट गया है। प्राकृतिक हीरे की लागत CVD की तुलना में बहुत अधिक है, हालांकि साधारण व्यक्ति दिखने में दोनों का अंतर नहीं समझ सकता। इसलिए लोगों ने CVD को तरजीह देना शुरू कर दिया। लेकिन यहां भी बाजार ठहराव में आ गया है।’
आगे वो बताते हैं, ‘ उदाहरण के लिए, 2018 में 4 लाख रुपये का प्राकृतिक हीरा अब 2.5 लाख रुपये का हो गया है। वहीं CVD में 50,000 रुपये का हीरा अब 10,000 रुपये का हो गया है। ऐसे में कोई व्यक्ति 10,000 रुपये का हीरा लेना पसंद करेगा।’
जब CVD की मांग बढ़ी, तो कई व्यापारियों ने उसमें शिफ्ट कर लिया, लेकिन इस होड़ ने आपूर्ति में अधिशेष बढ़ा दिया, जिससे अब इस व्यापार को भी नुकसान हो रहा है।
एक और व्यापारी बताते हैं, ‘ जैसे-जैसे हीरे की कीमत गिरी, वैसे-वैसे श्रम की लागत भी प्रभावित हुई। लेकिन यह पूरी तरह हमारी गलती नहीं है। खरीदारों ने अपनी कीमतें घटा दीं, लेकिन हमारे लिए लैब में हीरा उगाने की लागत वही है। हम भी समझ नहीं पा रहे हैं कि क्या करें।’
धनक कहते हैं, ‘ हालांकि मज़दूरों को प्राकृतिक हीरे से CVD कारखानों में स्थानांतरित किया जा सकता है। लेकिन इसमें समय लगेगा। यह तुरंत नहीं हो सकता। यह एक प्रक्रिया है। कई बड़े प्राकृतिक हीरे के व्यापारी लैब में बने हीरों में स्थानांतरित नहीं हो पा रहे हैं, और उनमें से कुछ अपने कारखानों को बंद कर रहे हैं।’
टैंक बताते हैं, ‘ यहां कोई काम नहीं है। पिछले तीन-चार महीनों से जेम एंड ज्वैलरी एक्सपोर्ट प्रमोशन काउंसिल (GJEPC) की मदद से DWUG ने 250 परिवारों को एक महीने तक चलने वाले राशन किट वितरित किए हैं। 150 परिवारों के बच्चों की स्कूल फीस का भी प्रबंध किया गया। आने वाले समय में और 200 परिवारों की मदद की जाएगी।’
सरकार से सहायता की माँग
सितंबर में, DWUG ने गुजरात के गृह मंत्री हर्ष सांघवी को एक पत्र लिखा, जिसमें हीरा मज़दूरों की आत्महत्या की प्रवृत्ति को रोकने के लिए हस्तक्षेप करने का अनुरोध किया गया।
पत्र में कहा गया है कि, ‘ हमें अपने अभियान में पुलिस की मदद की आवश्यकता है और उन्हें इस अभियान को चलाने में पहल करनी चाहिए। हम यह भी मांग करते हैं कि इन आत्महत्याओं की जांच सही ढंग से होनी चाहिए। जो भी आरोपी है, उसे कड़ी सजा मिलनी चाहिए।’
बाद में, गुजरात के गृह मंत्री ने सूरत के पुलिस आयुक्त से बात की, जिन्होंने तब सभी सहायक पुलिस आयुक्तों को संघ द्वारा बताए गए बिंदुओं की जाँच करने का निर्देश दिया।
सड़क किनारे ठेले पर वापस आते हुए, डाभी अपने अगले कदम को लेकर स्पष्ट हैं क्योंकि वह और उनकी पत्नी ‘रत्नकलाकार’ सूप ठेले से खुश हैं।
वो कहते हैं, ‘ मुझे हीरा उद्योग में वापस नहीं जाना है। यहां कोई काम नहीं है। अब मैं एक और व्यवसाय शुरू करने के बारे में सोच रहा हूँ, शायद खाद्य क्षेत्र में।’
( द प्रिंट की खबर से साभार )
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