मारुति के टर्मिनेटेड वर्करः ‘बिना अपराध सालों जेल में रखा गया, उसका हिसाब कौन देगा?’
By अभिनव कुमार
“आम दिनों की तरह हम सब उस दिन मॉर्निंग शिफ्ट में अपना काम शुरू कर चुके थे। तभी खबर आती है कि प्लांट में सुपरवाइज़र और एक मज़दूर में बहस हो गई और मैनेजमेंट ने मज़दूर को सस्पेंड कर दिया है। जबकि सुपरवाइज़र पर किसी तरह की कोई करवाई नहीं की गई।”
हरियाणा के मानेसर में मारुति प्लांट के अंदर 18 जुलाई 2012 को मज़दूर असंतोष और उसके बाद हुई उस घटना को जीतेंद्र याद करते हैं, जिसके बाद दो हज़ार से अधिक मज़दूरों की ज़िंदगी हमेशा के लिए बदल गई।
इस घटना के बाद जिन 2200 मज़दूरों को निकाल दिया गया जीतेंद्र उनमें से एक हैं. बीते गुरुवार को गुड़गांव के मिनी सचिवालय पर इन मज़दूरों ने धरना दिया और पुनः बहाली की मांग की।
जीतेंद्र बताते हैं, “हमारी यूनियन मैनेजमेंट पर मज़दूर के सस्पेंशन को वापस लेने का दबाव बनाती है. यूनियन की मांग थी कि मज़दूर का सस्पेंशन वापस लो और सुपरवाइज़र को भी ससपेंड करो जो मज़दूरों को लगातार परेशान कर रहा था. लेकिन मैनेजमेंट इसे सिरे से ख़ारिज कर देता है, मज़बूरन यूनियन काम ठप कर देती है।”
वो कहते हैं, “मेरी ड्यूटी पेंट शॉप में थी और अचानक खबर आती है कि मज़दूरों ने फैक्ट्री में तोड़-फोड़ शुरू कर दी है। जो लोग तोड़-फोड़ कर रहे थे वो कहीं से भी हमारे बीच के नहीं लग रहे थे। उनकी कदकाठी पहलवानों जैसी थी, उन्होंने मज़दूरों के ड्रेस ही पहने थे लेकिन हममें से कोई भी उन्हें नहीं जानता था। वो लोग प्लांट में लगे सारे सीसीटीवी कैमरों का मुंह ऊपर की तरफ घुमा रहे थे, जबकि ऊपर कैमरों तक पहुँचने के सारे रास्ते बंद थे। आखिर वो लोग वहां तक कैसे पहुंचे। हमें पहली नज़र में ही लग गया था कि ये लोग बाहरी हैं।”
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कैसे हुई आगजनी, अभी भी सवाल
आगजनी की शुरुआत को लेकर वो बताते हैं, “माहौल गरमाता देख हमारे यूनियन प्रधान राममेहर ने हिदायत दी कि सभी मज़दूर अपने घर लौट जाएं। मैं अभी घर पहुंचा ही था कि खबर आती है कि फैक्ट्री में आगजनी हो गई है और इस घटना में एक मैनेजर की मौत हो गई है। मज़दूरों को पुलिस रास्ते से उनके घरों से उठा रही थी। मैनेजर की हत्या का इल्जाम मज़दूरों पर थोप दिया गया था।”
जीतेन्द्र हरियाणा के फरीदाबाद के रहने वाले हैं और उन्होंने दिसम्बर 2006 में मारुति कार प्लांट में काम शुरू किया था। 3 साल की ट्रेनिंग के बाद उन्हें 2009 के आखिर में परमानेंट कर दिया गया था।
ध्यान रहे 18 जुलाई, 2012 की घटना के बाद मारुति ने 546 वर्करों और अप्रेंटिस को बर्खास्त कर दिया था और 1800 से अधिक ठेका मज़दूरों को बाहर कर दिया था। इसके साथ ही 147 वर्करों को पुलिस द्वारा गिरफ्तार किया गया था।
बीते एक दशक के अपने संघर्ष को याद करते हुए जीतेन्द्र बताते हैं, “नौकरी से निकाले जाने के बाद तो जैसे मैं शॉक में चला गया। परिवार के भविष्य की चिंता और लाचारी ने मुझे मानसिक रूप से परेशान कर दिया, यहां तक कि मुझे दवाइयों पर निर्भर होना पड़ा। वृद्ध पिता ने जैसे- तैसे परिवार को संभाला। आज छोटी सी एक परचून की दुकान ही हमारा आसरा है। दुकान भी पत्नी ही चलाती है।”
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घटना के अनुत्तरित सवाल
मिनी सचिवालय पर धरने में पहुंचे कई मज़दूर महीनों बाद एक दूसरे से मिल रहे थे। हालांकि उनका संघर्ष लगातार जारी है।
इन्हीं में से दूसरे मज़दूर बताते हैं, “मारुति के गुरुग्राम प्लांट में यूनियन थी, लेकिन मानेसर प्लांट में नहीं थी। मज़दूरों को मैनेजमेंट के द्वारा लगातार परेशान किया जाता था। कंपनी में जो वर्कर काम कर रहे थे, वे सभी 25 से 30 वर्ष तक की आयु के थे। टी ब्रेक को लेकर एक विवाद आया जिसके चलते वर्करों में रोष फैल गया। दरअसल मैनेजमेंट मज़दूरों को निशाना बना रही थी, काम का दबाव, अभद्र व्यवहार, निलंबन और टर्मिनेशन जैसे हथकंडों से मज़दूर तंग आ गए थे।”
वो बताते हैं, “लंबे संघर्ष के बाद मज़दूर अपनी यूनियन बनाने में कामयाब हुए। यूनियन बनने के बाद मैनेजमेंट पहले की तरह अपने मंसूबों को लागू करा पाने में सफल नहीं हो पा रही थी। कई बारी छोटी- मोटी मांगों को लेकर मज़दूरों के आगे मैनेजमेंट को झुकना पड़ा। इसके बाद से ही मैनेजमेंट इस ताक में रहती थी कि मज़दूरों के ख़िलाफ़ उन्हें कोई मौका मिले और मज़दूर जियालाल के निलंबन के बाद मज़दूरों के विरोध को उन्होंने अपने लिए एक मौके के तौर पर भुनाया, और हमारे खिलाफ एक फ़र्ज़ी माहौल बनाने में सफल रहे।”
“जिन मैनेजर कि हत्या का इल्ज़ाम मज़दूरों पर थोपा गया, उन्होंने हमारी यूनियन बनाने में मदद की थी. एचआर मैनेजर का शव आखिर पेंट शॉप में क्यों बरामद हुआ? क्या इन सवालों के जवाब नहीं ढूंढे जाने चाहिए जांच-पड़ताल के दौरान?”
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घटना में 150 मज़दूरों पर हुई थी नामजद एफ़आईआर
ग़ौरतलब है कि घटना के बाद फैक्ट्री मैनेजमेंट ने एक एफआईआर दर्ज कराई जिसमें 150 मज़दूरों को नामजद और 660 अन्य के नाम भी डाले गए।
एक दूसरे मज़दूर सतीश बताते हैं, “इस घटना के बाद हम मज़दूरों के साथ पुलिस- प्रशासन के द्वारा बद से बदतर सुलूक किया गया। सिर्फ शक के आधार पर मज़दूरों को गिरफ्तार किया गया और उन्हें यातनाएं दी गईं। मज़दूरों के मौलिक अधिकारों तक का हनन किया गया। झूठे आरोपों के लिए भी मज़दूरों को सुप्रीम कोर्ट से जमानत लेनी पड़ी, जिसमें सालों लग गए।”
सतीश पूछते हैं, “ऐसे मज़दूरों को भी पुलिस ने उनके घर से उठाया जो उस दिन छुट्टी पर थे। जाँच के समय अटेंडेंस रजिस्टर तक की पड़ताल नहीं की गई और आखिर में सिर्फ 12 लोगों को आरोपी बनाया गया। लेकिन जिन मज़दूरों को बिना अपराध तीन साल जेल में रखा गया, उसका हिसाब कौन देगा।”
वो कहते हैं, “सबसे बड़ी विडंबना देखिये की इन मज़दूरों को आज भी उनका आस-पड़ोस अपराधी के तौर पर देखता है, क्योंकि पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार किया और उन्होंने 3 साल जेल में बिताये. उनके परिवार वालों ने क्या कुछ नहीं झेला। मज़दूरों के छोटे-छोटे बच्चों तक को ताने झेलने पड़े। जेल से बाहर आने पर भी मज़दूरों का जीवन कोई आसान नहीं रहा, नौकरी गई और जेल भी गए और बाहर आने के बाद कोई काम भी नहीं मिला.”
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इंसाफ़ की आस में मज़दूर
2012 में ही टर्मिनेट किये गए मज़दूर कतार सिंह बताते हैं, “ये पूरा घटनाक्रम मैनेजमेंट के द्वारा ही प्लांट किया गया था। मैनेजर की हत्या करा कर उसका आरोप मज़दूरों पर डाल दिया गया। 540 परमानेंट और 1800 कैजुअल मज़दूरों को इसके नाम पर फैक्ट्री से निकाल दिया गया। झूठे आरोपों में मज़दूरों को सज़ा काटनी पड़ी।”
वो कहते हैं कि, “गिरफ्तार मज़दूरों में से 13 को आजीवन कारावास भुगतना पड़ा, 18 ने पांच साल की जेल काटी, जबकि 117 मज़दूरों को 3 साल जेल में बिताना पड़ा। आज इतने सालों बाद भी हमारे साथ जो नाइंसाफी हुई उसके लिए सडकों पर आ कर लड़ना पड़ रहा है लेकिन हमारी बात कोई नहीं सुन रहा है।”
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मारुति के मज़दूरों की लड़ाई में पिछले एक दशक से भी ज्यादा समय से उनसे जुड़े मज़दूर नेता खुशीराम कहते हैं, “ये पूरा षड्यंत्र मारुति के मैनेजमेंट के द्वारा रचा गया था। मज़दूरों की मांग थी कि कैजुअल वर्कर भी यूनियन की सदस्य्ता मिले जबकि मैनेजमेंट इसके पूरी तरह से खिलाफ था। अंततः मैनेजमेंट बाहर से बुलाये गए बाउंसरों के सहयोग से फैक्ट्री के अंदर माहौल ख़राब करता है और इस पूरी घटना को अंजाम देता है। मैनेजमेंट के द्वारा पूरे मामले का अपराधीकरण किया गया ताकि इसके आधार पर यूनियन को खत्म किया जा सके।”
वो बताते हैं, “पिछले 12 सालों में मज़दूरों ने काफी कुछ झेला है, लेकिन इसके बावजूद वो आज भी अपनी नौकरी, मुआवज़े और अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ रहें है. मारुति के मज़दूरों की लड़ाई मज़दूर वर्ग के जीवटता का उत्कृष्ट उदहारण है। फ़र्ज़ी मामले में जेल भेजे गए मज़दूरों के परिवार वालों का आपसी सहयोग से भरसक देखभाल की गई। फिलहाल फैक्ट्री के अंदर जो यूनियन है वो भी निकाले गए मज़दूरों के साथ खड़ा है।”
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जितेंद्र अंत में कहते हैं कि “उस घटना ने हम मज़दूरों की पूरी ज़िंदगी बदल दी। जब अपने बच्चों को मुझे अच्छे स्कूलों में पढ़ाना था, उनका ख्याल रखना था, उनकी जरूरतें पूरी करनी थी, तब बिस्तर पर पड़ा मैं दवाइयां खा रहा था। फैक्ट्री में जितने भी दिन मैंने काम किया पूरी ईमानदारी और लगन से किया। उसका सिला ये मिला हमें। दर दर की ठोकरें खाई हैं हम मज़दूरों के परिवारों ने। आज भी हम डटे हुए हैं लेकिन हमेशा ये लगता है कि आखिर कब हमें न्याय मिलेगा। हमारी बातें सुनने वाला कोई नहीं, बस उम्मीद के सहारे लगे हुए हैं।”
प्रदर्शन की कुछ तस्वीरेंः-
क्या है मांगः
- मज़दूरों को फिर से मारुति कार प्लांट में बहाल किया जाए।
- निर्दोष क़रार दिए गए मज़दूरों को जेल और मुकदमे की वजह से प्रताड़ना मिली उसका हिसाब हो।
- मामले की पूरी जांच की जाए।
अभी क्या है स्थितिः
मारुति कार प्लांट के 13 मज़दूरों को आजीवान कारावास की सज़ा दी गई थी। इसमें जियालाल और पवन दहिया की मृत्यु हो चुकी है। बाकी 11 मज़दूरों को सज़ा होने से पहले ही काफ़ी समय तक जेल में बंद रहने के आधार पर ज़मानत मिली हुई है।
मारुति प्लांटों की यूनियनें इन मज़दूरों के परिवारों को आर्थिक मदद देती रही है।
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