पॉलिएस्टर प्रिंस और कोल किंग: अडानी अंबानी भारत के दलाल पूंजीपति वर्ग के सटीक प्रतिनिधि

पॉलिएस्टर प्रिंस और कोल किंग: अडानी अंबानी भारत के दलाल पूंजीपति वर्ग के सटीक प्रतिनिधि

By मनीष आज़ाद

“एक बड़ी भारतीय फर्म की ऐसी ही कहानी होती है, जो ब्रिटिश शासकों के लिए अपनी वफ़ादार सेवा के माध्यम से ‘रंक से राजा’ (rags to riches) बन गए और विविध भूमिकाएं निभाने लगे – विदेशी पूंजी के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध बनाते हुए देशी बैंकर, सरकारों को वित्त मुहैया कराने वाले खजांची, व्यापारी, ज़मींदार, उद्योगपति और खदानों के मालिक ।”

(Suniti Kumar Ghosh- The Indian Big Bourgeoisie : Its Genesis, Growth and Character p-190)

उपरोक्त उद्धरण में अगर ‘ब्रिटिश शासकों’ की जगह ‘भारतीय शासक वर्ग’ कर दिया जाय, तो आज भी यह उद्धरण उतना ही प्रासंगिक है जितना ‘आज़ादी’ से पहले।

एक ताज़ा उदाहरण से यह बात साफ़ हो जाती है। गौतम अडानी के गोड्डा (झारखण्ड) प्रोजेक्ट के बारे में 9 दिसंबर 2022 को ‘वाशिंगटन पोस्ट’ ने एक विस्तृत रिपोर्ट  छापी।

इसका सार यह था कि झारखण्ड की खदानों के कोयले और आस्ट्रेलिया से आयातित कोयले से ‘गोड्डा पॉवर प्लांट’ में जो बिजली तैयार होगी उसे सीधे बांग्लादेश को निर्यात किया जायेगा। अडानी के इस प्रोजेक्ट पर किसी भी तरह का कोई टैक्स नहीं लिया जायेगा।

तो इस प्रोजेक्ट से भारत को क्या फ़ायदा होगा? आदिवासियों का विस्थापन, धान और ताड़ पैदा करने वाले खेतों का विनाश, पर्यावरण की भयानक बर्बादी व धूल और राख।

यह रिपोर्ट यह भी बताती है कि बांग्लादेश के पास बिजली उत्पादन की जो मौजूदा क्षमता है, अभी उसका ही ठीक से दोहन नहीं हुआ है। इसलिए अडानी से बिजली आयात करने की कोई ज़रूरत नहीं है। रिपोर्ट यह भी बताती है कि जितने पैसे में बांग्लादेश अडानी से बिजली खरीद रहा है, उससे बहुत कम कीमत पर वह इसे ‘विंड एनर्जी’ से प्राप्त कर सकता है।

बहरहाल हम भारत पर लौटते हैं। रिपोर्ट में एक जगह कहा गया है- “हालांकि, यह परियोजना, इसके बिल्डर और एक भारतीय अरबपति गौतम अडानी को लाभान्वित करेगी, जो ‘ग्लोबल एनर्जी मॉनिटर’ के अनुसार दुनिया में कोयला बिजली संयंत्रों और कोयला खदानों का सबसे बड़ा निजी डेवलपर है। सितम्बर में जब उनकी कम्पनियों का स्टॉक चरम पर था तो ‘ब्लूमबर्ग बिलियनर्स इंडेक्स’ ने अडानी को एलन मस्क के बाद दुनिया के दूसरे सबसे अमीर व्यक्ति का स्थान दिया।”

रिपोर्ट इस प्रोजेक्ट की ‘अंडरग्राउंड’ कहानी बताते हुए कहती है-

‘एक वरिष्ठ भारतीय अधिकारी द्वारा अडानी सहित बड़े ‘टाइकूनों’ को सस्ती दर पर कोयले की आपूर्ति का विरोध करने के बाद मोदी प्रशासन द्वारा उसे नौकरी से हटा दिया गया। जब एक स्थानीय विधायक ने पॉवर स्टेशन के विरोध में भूख हड़ताल की तो उन्हें छः महीने की जेल हो गई। अधिकारियों और दस्तावेजों के अनुसार अडानी के कोयला सम्बंधित व्यापर को लाभ पहुंचाने के लिए कम से कम तीन मौकों पर सरकार ने कानूनों में संशोधन किया। इस तरह अडानी को कम से कम 1 अरब डॉलर का लाभ पहुंचाया। ऐसा तब है जब मोदी ने संयुक्त राष्ट्र संघ को बताया है कि वह कोयले पर टैक्स लगायेंगे और वैकल्पिक ऊर्जा को बढ़ावा देंगे।’

इसी तरह अडानी के इस पॉवर प्रोजेक्ट को लाभ पहुचाने के लिए ‘रघुबर दास’ की झारखण्ड सरकार ने सम्बंधित नियमों में से करीब 25 प्रतिशत नियमों को अडानी के फेवर में बदल डाला। ‘सेज’ (SEZ) का यह नियम था कि सिर्फ एक ही प्रोजेक्ट के लिए सेज घोषित नहीं किया जायेगा। लेकिन अडानी को टैक्स में राहत देने के लिए यह नियम भी बदल दिया गया और प्रोजेक्ट को सेज घोषित कर दिया गया।

इससे ‘वॉशिंगटन पोस्ट’ के एक अनुमान के अनुसार- ‘अडानी गोड्डा के लिए अपने कोयले के आयात पर सालाना 3.5 करोड़ डॉलर मुनाफ़ा कमाएगा। कोयले के आयात पर आमतौर पर प्रति टन 400 रु. या लगभग 5 डॉलर का आयात कर लगाया जाता है।’

छोटे लघु उद्योगों की कब्र पर खड़े अडानी

2014 के चुनावों में और उसके बाद मोदी को अक्सर अडानी के साथ उनके निजी विमान में घूमते देखा गया। उसके बाद ही यह आरोप लगने लगा था कि मोदी अडानी-अंबानी को फेवर कर रहे हैं। इसका जवाब देते हुए संसद के अंदर पूर्व पर्यटन मंत्री के.जे. अलफोंस ने कहा – ‘इस देश में संपत्ति पैदा करने वाला हर उद्योगपति रोज़गार पैदा करता है। उन्होंने नौकरियां पैदा की हैं। उनका सम्मान किया जाना चाहिए।’

जबकि तथ्य यह है कि दुनिया के दूसरे नंबर के अमीर रह चुके अडानी के विशाल साम्राज्य में महज करीब 23 हज़ार लोग नौकरी करते हैं।

मज़े की बात यह है कि जिन दिनों गौतम अडानी प्रति दिन 1600 करोड़ रुपये कमा रहे थे और मुकेश अम्बानी प्रति घंटे 90 करोड़ रुपये कमा रहे थे, उसी दौरान हमारे देश में मैन्युफैक्चरिंग 17 प्रतिशत से गिरकर 13-14 प्रतिशत पर आ गयी थी और CMIE के आकड़ों के अनुसार बेरोजगारी इस समय 5 करोड़ पार कर चुकी है।

2013 के आंकड़ों के अनुसार हमारे देश में 6 करोड़ से ऊपर MSME (Micro, Small & Medium Enterprises) थे। मोदी काल में नोटबंदी, GST, Covid-19 और अन्य सरकारी नीतियों के कारण लाखों-करोड़ों MSME बंद हुए हैं और परिणामस्वरूप करोड़ों लोग बेरोजगार हुए हैं। सरकार जानबूझ कर इसके आंकड़े उपलब्ध नहीं करा रही है।

लेकिन यह तो कहा ही जा सकता है कि अडानी/अंबानी का साम्राज्य इन लाखों/करोड़ों MSME की कब्र पर खड़ा है। यानी देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ को तोड़कर ही अडानी/अंबानी जैसे खिलाड़ी आगे बढ़े हैं।

Adani group net worth

पश्चिमी पूंजीवाद

इसी दौरान यदि हम अमेरिका या अन्य योरोपीय देशों के पूंजीपतियों से अडानी-अंबानी की तुलना करें तो पाएंगे कि बिल गेट्स, मार्क जुकरबर्ग, एलन मस्क, जेफ़ बेज़ोस, स्टीव ज़ाब, लैरी पेज, सर्गे बिन की व्यक्तिगत संपत्ति में जो तेज़ बढ़ोत्तरी हुई है, वो उनके द्वारा निर्मित ‘ग्लोबल ब्रांड’ (तकनीक/पेटेंट) पर आधारित है।

चाहे वह ‘सेमी कंडक्टर’ हो, ‘क्लाउड कंप्यूटिंग’ हो, ‘आर्टिफ़ीशियल इंटेलीजेंस’ हो, ‘सर्च इंजन’ हो, डेटा एनालसिस हो, मशीन लर्निंग हो, बेसिक सॉफ्टवेयर हो, ‘टच स्क्रीन’ हो या फिर ‘इन्टरनेट’ आदि हो। यही बात कमोबेश चीन के बारे में भी कही जा सकती है। 5जी और ‘हुवावे’ के सन्दर्भ में इसे अच्छी तरह समझा जा सकता है।

हालाँकि यह अलग बात है कि अमेरिका या चीन के इन खरबपतियों को नयी तकनीक उपलब्ध कराने में वहां की सरकारों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। ओबामा/बुश शासन के दौरान एलन मस्क (टेस्ला) को नासा से तकनीक मुहैया कराई गयी। ‘टच स्क्रीन’ की खोज पूरी तरह अमेरिका में सरकारी लैब में किया गया और इन्टरनेट के बारे में तो सब जानते हैं कि इसमें अमेरिकन सेना की R&D (research and development) का बड़ा हाथ था। इस पहलू पर विस्तार से जानने के लिए आप ‘Mariana Mazzucato’ की शानदार किताब ‘The Entrepreneurial State’ पढ़ सकते हैं।

लेकिन सवाल यह है कि अडानी-अंबानी ने कौन सा ‘ग्लोबल ब्रांड’ निर्मित किया है? कौन सी तकनीक विकसित की है? अडानी-अंबानी या भारतीय राज्य R&D पर कितना खर्च करते है? तकनीक विकसित करने में भारत सरकार इनकी कितनी मदद करती है?

भारत सरकार इनकी मदद इन्हें मुफ्त में जमीन देने में, एयरपोर्ट, माइंस (अडानी का 60 प्रतिशत से ज्यादा राजस्व कोयले के व्यापार से आता है) जैसी सरकारी संपत्तियां इनके हाथों में सौपने में, सरकारी बैंकों से इन्हें लोन दिलाने में और इन्हें लाभ पहुचाने वाली नीतियां बनाने में करती हैं।

यही कारण है कि हम जितना विदेशी तकनीक और विदेशी पूँजी पर 1947 में निर्भर थे, उससे कहीं ज्यादा आज भी निर्भर हैं। जिसके कारण हमारे यहाँ जो सम्पदा (value) निर्मित होती है, उसका बड़ा हिस्सा ‘Global Value Chain’ के माध्यम से साम्राज्यवादी देशों/कंपनियों को चला जाता है। (विस्तार के लिए देखें-‘Imperialism in the Twenty-First Century by John Smith)

और अपना देश ‘विकासशील’ (Underdevelopment) की संरचना में छटपटाता रहता है, जिसे उचित ही भारत का क्रांतिकारी वाम ‘अर्धसामंती-अर्धऔनिवेशिक’ संरचना कहता है।

अडानी के बिजनेस मॉडल को एक अन्य उदाहण से भी आसानी से समझा जा सकता है। 2021 में जब तिरुअनंतपुरम एयरपोर्ट को अडानी को सौपा गया तो इसका मुनाफा 180 करोड़ (2018-19) के आसपास था। और ‘Airports Authority of India’ (AAI) इसे बहुत अच्छी तरह संचालित कर रही थी। लेकिन केरल सरकार के पुरजोर विरोध के बावजूद इसे अडानी को सौप दिया गया। इसी प्रक्रिया के तहत आज अडानी के पास 8 एयरपोर्ट और 13 सी-पोर्ट (बंदरगाह) है।

कैसे देश की पूंजी बाहर जा रही है?

मजेदार बात यह है कि UPA 2 के दौरान एक ‘पार्लियामेंट्री स्टैंडिंग कमेटी’ ने सर्वसम्मति से 2013 में एयरपोर्ट के निजीकरण के खिलाफ गंभीर चेतावनी दी थी और इस कमेटी में योगी आदित्यनाथ भी थे। (EPW-April 3, 2021)
यहाँ इस बात को भी ध्यान में रखना ज़रूरी है कि अडानी का यह साम्राज्य बहुत कुछ सरकारी पैसे से खड़ा है।

एक अनुमान के अनुसार अडानी की कंपनियों पर करीब 2 लाख करोड़ का कर्ज है, जिसका बड़ा हिस्सा SBI/LIC का है। इसी कारण ‘CreditSights’ ने अपनी एक रिपोर्ट में अडानी ग्रुप को ‘अत्यधिक कर्ज़ में’ (deeply overleveraged) कहा था और आशंका व्यक्त की थी कि यह ‘क़र्ज़ जाल’ में फंस सकता है।

पिछले दिनों NDTV अधिग्रहण के बाद दिए एक इंटरव्यू में अडानी ने कहा था कि सरकारी बैंकों से उनका कर्ज घट रहा है और वे अब अन्तर्राष्ट्रीय मार्केट में बांड जारी करके पैसे उठा रहे हैं। अडानी के अनुसार यह कुल कर्ज का करीब 50 प्रतिशत है।

इससे हम समझ सकते हैं कि अडानी-अंबानी जैसे बड़े पूंजीपतियों और उनके उद्योगों के माध्यम से देश की कितनी संपदा बाहर साम्राज्यवादी देशों और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के पास स्थानांतरित हो रही है। यानी ये पूंजीपति देश में जितना मूल्य निर्मित करते हैं, उसका बड़ा हिस्सा बाहर स्थानांतरित करते हैं।

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कभी  स्कूटर से घूमते थे गौतम अडानी

सुनीति कुमार घोष ने अपनी किताब ‘भारत का बड़ा बुर्जुआ’ में 1947 से पहले बड़े पूंजीपतियों के जन्म और विकास की जो प्रक्रिया चिन्हित की है, वह कमोबेश इतने सालों बाद भी जारी है।

अहमदाबाद में स्कूटर से घूमने वाले गौतम अडानी ने भी अपनी यात्रा ट्रेडिंग/मिडलमैन से शुरू की। 1991 में आर्थिक उदारीकरण शुरू होने के समय अडानी मेटल,गोल्ड,टेक्सटाइल और कृषि उत्पाद के व्यापार के अलावा बहुरास्ट्रीय कंपनी ‘कारगिल’ के लिए मिडिलमैन की भूमिका में थे, जो गुजरात के ‘मुंद्रा’ में नमक की खेती विकसित कर रही थी। जब कारगिल ने इससे अपना हाथ खींच लिया तो 1995 में गुजरात सरकार ने ‘मुंद्रा पोर्ट’ का संचालन अडानी को सौप दिया और यहीं से अडानी की ‘रंक से राजा ‘ बनने की यात्रा तेज़ हो गयी।

‘हिंडनबर्ग रिपोर्ट’ आने के बाद शेयर मार्केट में छोटे निवेशकों के करोड़ों रूपये डूब चुके हैं। इस रिपोर्ट में हिंडनबर्ग ने साफ़ कर दिया है कि अपनी ‘शेल कंपनियों’ के माध्यम से ‘वित्तीय इंजीनियरिंग’ (financial engineering) करके अडानी परिवार ने अपने शेयरों के दाम को करीब 85प्रतिशत तक कृतिम तरीके से बढ़ाया है और फिर इसी बढ़े मूल्य के शेयर (inflated share) को गिरवी रखकर बाज़ार से या बैंको से पैसे उठाये हैं।

हिंडनबर्ग रिपोर्ट के कारण LIC और SBI के शेयर भी बाज़ार में गोते लगा रहे हैं। अकेले LIC ने 16300 करोड़ रुपये गवाएं हैं जो जनता की गाढ़ी कमाई के हैं। एक अनुमान के अनुसार LIC और SBI दोनों ने मिलकर करीब 78,118 करोड़ रूपये गवाएं हैं।

लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि अडानी के तेज़ी से गिरते शेयरों के बावजूद LIC ने करीब 300 करोड़ का और SBI ने करीब 225 करोड़ का निवेश अडानी की कंपनियों में करके अडानी को जीवनदान देने का प्रयास किया है। अडानी की कम्पनियों में 300 करोड़ का यह भारी निवेश बिना सरकार के निर्देश पर नहीं हो सकता। कहाँ तो हिंडनबर्ग रिपोर्ट के बाद अडानी समूह की जांच होनी चाहिए थी, गौतम अडानी को गिरफ्तार किया जाना चाहिए था। उल्टे उन्हें 525 करोड़ का इनाम दे दिया गया। यहीं पर ‘वसीम बरेलवी’ का एक शेर याद आ रहा है- ग़रीब लहरों पे पहरे बिठाए जाते हैं, समन्दरों की तलाशी कोई नहीं लेता’

अडानी ने अभी हाल ही में एक इंटरव्यू में धीरुभाई अंबानी को अपना प्रेरणास्रोत बताया था।

dhirubhai ambani wealth

धीरूभाई अंबानी की कहानी अलग नहीं

धीरूभाई अंबानी की ‘रंक से राजा’ (rags to riches) बनने की यात्रा भी काफी दिलचस्प है। यमन के अदन शहर में रियाल को गलाकर धीरूबाई ने कई लाख रुपये बनाये और ‘अरेस्ट वारंट’ से बचने के लिए वापस भारत भाग आये। धीरुभाई अंबानी के उदय और विकास पर शानदार किताब लिखने वाले ‘Hamish McDonald’  ने अपनी किताब ‘The Polyester prince’ (इसे उस वक़्त भारत में बैन कर दिया गया था) में इस घटना को बहुत रोचक तरीके से बयान किया है-

“1950 के दशक की शुरुआत में यमन के अधिकारियों ने देखा कि खजाने में उनके देश की मुद्रा के साथ कुछ अजीब घट रहा है। पैसे की मुख्य इकाई रियाल बाज़ार से गायब हो रहा है, जो एक ठोस चांदी का सिक्का था।
खोजबीन में पाया गया कि धीरूभाई अम्बानी नाम का एक भारतीय क्लर्क, जो उस वक्त बमुश्किल बीस साल का होगा, अदन के सुक (बाज़ार) में उपलब्ध सारे रियाल खरीद रहा है। धीरूभाई अम्बानी ने नोट किया कि रियाल में प्रयुक्त चांदी की कीमत ब्रिटिश पाउंड और अन्य विदेशी मुद्राओं के मुकाबले इसके विनिमय मूल्य से अधिक थी। इसलिए उन्होंने रियाल को खरीद कर, उन्हें गला कर चांदी की सिल्लियां बनाकर लन्दन के सर्राफ़ा व्यापारियों को बेचनी शुरू की। धीरूभाई ने बाद में याद करते हुए कहा – ‘इसमें मार्जिन कम था लेकिन यह जैम खाने भर के लिए पर्याप्त पैसा था। तीन महीने के बाद मैंने यह करना बंद कर दिया, लेकिन मैंने कुछ लाख रुपये बना लिए थे। मैं अवसरों को भुनाने में विश्वास रखता हूं’।” (पृष्ठ -15)

भारत वापस लौटकर उन्होंने टेक्सटाइल मिल लगायी और फिर नुस्ली वाडिया के साथ उनका ‘महापोलिस्टर वार’ उस समय के अखबारों की महत्वपूर्ण सुर्खियां बन गया। महत्वपूर्ण बात यह है कि यह आयातित सामग्री DMT (Dimethyl Terephthalate) TPA (Terephthalic Acid) और मशीनरी के आयात पर निर्भर था। (आज भी अडानी का ‘पॉवर प्लांट’ आयातित विशेषकर चीन से आयातित मशीनरी पर निर्भर है) सरकार (विशेषकर प्रणव मुखर्जी) से नजदीकी के कारण आयात का लाइसेंस मिलने में और सरकार की टैरिफ नीतियों की पूर्व जानकारी मिलने के कारण धीरुभाई ने ‘बाम्बे डाईंग’ जैसे ब्रांड के मालिक नुस्ली वाडिया को मीलों पीछे छोड़ दिया।

‘पोलिस्टर प्रिन्स’ में लेखक ने धीरुभाई अंबानी की बेटी की शादी का दिलचस्प वर्णन किया है। इससे आप समझ सकते हैं कि धीरुभाई अंबानी की सरकार से क्या नजदीकी थी-

“सीमा शुल्क और उत्पाद शुल्क के कई अधिकारी एक मर्यादित दूरी बनाये रखने की बजाय रिलायंस परिवार के काफ़ी नज़दीक हो गए थे। पत्रकार कान्ति भट्ट 1983 में धीरूभाई अम्बानी की बेटी दीप्ति की शादी में शामिल होने को याद करते हैं। हिन्दू परंपरा के अनुसार बरात में लोग डांडिया नृत्य करते हुए जाते हैं। भट्ट ने कहा ‘मैंने वहां खुद को वित्त मंत्रालय के मुख्य प्रवर्तन अधिकारी के साथ डंडिया नृत्य करते हुए पाया’।” (पृष्ठ- 46)

विदेशी तकनीक, प्राकृतिक संसाधन और सार्वजनिक पैसे से खड़े कागज के शेर

अब हम सीधे धीरुभाई अंबानी के दोनों बेटों मुकेश और अनिल के साम्राज्य पर आते हैं। 2014 में मशहूर पत्रकार और EPW के पूर्व संपादक ‘परन्जॉय गुहा ठाकुरता’ ने  ‘सुबीर घोष’ के साथ मिलकर एक किताब प्रकाशित की- ’’Gas Wars: Crony Capitalism and the Ambanis’’.

इस किताब को परन्जॉय गुहा ठाकुरता को खुद ही प्रकाशित करनी पड़ी क्योंकि कोई भी प्रकाशक इसे छापने को तैयार नहीं हुआ। किताब के मार्केट में आते ही रिलायंस ने  पुस्तक के लेखकों पर 100 करोड़ रुपये का मानहानि का दावा ठोक दिया।

मजेदार बात यह है कि उन्होंने बंगाल के पूर्व गवर्नर ‘गोपाल कृष्ण गाँधी’ पर भी मानहानि का दावा ठोक दिया क्योंकि उन्होंने एक सेमीनार में रिलायंस को “सामानांतर राज्य” की संज्ञा दे दी थी।

दिलचस्प बात यह है कि अडानी ने भी परन्जॉय गुहा ठाकुरता पर तीन अलग अलग जगहों से आपराधिक मानहानि का केस डाला हुआ है और केस का फैसला होने तक परन्जॉय गुहा ठाकुरता को अडानी के बारे में कुछ भी बोलने से कोर्ट ने प्रतिबन्ध लगाया हुआ है।

खैर, इस किताब में परन्जॉय गुहा ठाकुरता ने तथ्यों के साथ बताया है कि कैसे ONGC के सीनियर अधिकारियों को लालच देकर ‘रिलायंस पेट्रोकेमिकल’ में लाया गया और उनके माध्यम से ONGC की ‘कांफिडेंशियल फाइल्स’ हासिल की गयी और उन फाइलों की महत्वपूर्ण सूचनाओं का इस्तेमाल करके ‘रिलायंस पेट्रोकेमिकल’ के साम्राज्य को बढ़ाया गया।

परन्जॉय ने इसमे विस्तार से बताया है कि कैसे रिलायंस ने सरकार से ‘गैस ब्लाक’ हासिल किये और फिर सरकार को ही इसे (यानी गैस को) ऊँचे दामों पर बेचा और ऊँचे दाम के लिए गैस की जमाखोरी तक की गयी। परन्जॉय लिखते हैं-

रिलायंस इस उम्मीद में अपनी गैस की जमाखोरी कर रहा था कि निकट भविष्य में इसकी कीमतें बढ़ेंगी। वैश्विक कीमतों को देखते हुए कंपनी को सरकार द्वारा तय की गई कीमत 4.20 डॉलर प्रति एमबीटीयू (mbtu) बहुत कम लगती थी।
ऐसे समय में जब पन्ना-मुक्ता गैस (जिसमें RIL की 30 प्रतिशत हिस्सेदारी है) की कीमत 5.73 डॉलर प्रति एमबीटीयू थी और आयातित तरलीकृत प्राकृतिक गैस (एलएनजी) की कीमत 12-14 डॉलर प्रति एमबीटीयू थी, तो आरआईएल स्पष्ट रूप से गैस को 4.20 डॉलर प्रति एमबीटीयू पर नहीं बेचना चाहती थी। यह केजी बेसिन से गैस के प्रवाह को कम करने और कई कारणों से कीमतें बढ़ने तक रोके रखने के RIL के उद्देश्य के अनुरूप था। (पेज -773)

”उन्होंने ( RIL) चालू वर्ष में जानबूझकर उत्पादन 80 एमएससीएमडी (MSCMD) से घटाकर 27 एमएससीएमडी कर दिया और अगले साल इसे और 18 एमएससीएमडी कम करने की धमकी दी। इससे प्रतिवर्ष12,000 मेगावाट तक बिजली की क्षति हो रही है। अगले साल यह क्षति 13,500 मेगावाट तक हो जाएगी। अगर हम इसे महंगी आयातित गैस से बदलना चाहें तो चालू वर्ष में उर्वरक और बिजली पर अतिरिक्त सब्सिडी का बोझ 40,000 करोड़ रुपये तक हो जायेगा। साल 2010-11 में यह आंकड़ा 20,000 करोड़ रुपए था। अगले साल, 62 एमएससीएमडी की अनुमानित कमी के साथ, यह 48,000 करोड़ रुपये के नुकसान में बदल जाएगा। इस प्रकार उत्पादन में कमी के कारण तीन वर्षों में देश को 1,10,000 करोड़ रुपये का भारी नुकसान होगा।” (पृष्ठ-147)

लेकिन सबसे सनसनीखेज खुलासा तो ONGC ने किया.

July 27, 2013 को ONGC ने एक प्रेस रिलीज़ जारी की। इसमें उसने आरोप लगाया कि रिलायंस ने उसके ‘ब्लॉक’ से बड़ी मात्रा में गैस चुराया है।

4 नवंबर 2016 को तेल मंत्रालय ने ONGC के आरोप को सही पाते हुए रिलायंस और उसकी पार्टनर कम्पनियों (RIL-BP-Niko consortium) पर $1।47 billion का जुर्माना लगा दिया।

लेकिन 1 अगस्त 2018 को एक ‘international arbitration tribunal’ (headed by Singapore-based arbitrator Lawrence Boo) में भारत सरकार यह केस हार गयी और रिलायंस ‘बाइज्जत बरी’ हो गया। बहुत से एक्सपर्ट लोगों का कहना है कि भारत सरकार ने यह केस हारने के लिए ही लड़ा था।

RIL की प्रमुख पार्टनर BP (British Petroleum) की RIL में करीब 30 प्रतिशत की हिस्सेदारी है। RIL को सभी जरूरी आधुनिक तकनीक BP ही उपलब्ध कराती है।

यानी तकनीक BP की, गैस प्रकृति (Nature) की, पैसे सरकारी बैंको और छोटे शेयर धारकों के और साम्राज्य रिलायंस का।

दलाल एकाधिकारवादी पूंजीपति वर्ग

भारत के ‘दलाल एकाधिकारवादी पूंजीपतियों’ (Comprador Monopolistic Capitalists) का  कमोबेश यही बिजनेस मॉडल है। यानी इनका  क्षैतिज आधार बहुत संकीर्ण होता है, भले ही लंबवत ऊचाई कितनी भी क्यों न हो। इसी मॉडल के कारण ‘भारतीय पूंजीवाद’ उस इंजन की भूमिका नहीं निभा पाया जो खेती से आबादी को बाहर निकाल कर उद्योगों में लगा सके। आज भी करीब 65 प्रतिशत से ज्यादा आबादी खेती या इससे जुडी गतिविधियों के इर्दगिर्द ही है। निरपेक्ष संख्या तो घटने की बजाय बहुत ज्यादा बढ़ी है। वह इसी तथ्य से समझ सकते हैं की 1947 में भारत की कुल आबादी करीब 34 करोड़ थी।

यहाँ हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि विदेशी बहुरास्ट्रीय कंपनियों के लिए ये कम्पनियाँ भारत में एक आधार (base) उपलब्ध कराती हैं या यूं कहें कि एक ‘कन्वेयर बेल्ट’ (Conveyor belt) का काम करती हैं, जिसके माध्यम से इस देश की बहुमूल्य संपदा साम्राज्यवादी देशों को स्थानान्तरित होती रहती है। 2020 में फेसबुक ने भी रिलायंस जिओ में 10 प्रतिशत की हिस्सेदारी खरीदी है।

अनिल अंबानी की ‘राफेल कहानी’ (Rafale Story) के बारे में तो सभी जानते है। लेकिन यहाँ मैं उस फ्राड का जिक्र करना चाहूँगा जिसके बारे में कमोबेश कम लोगों को जानकारी है।

अंबानी बन्धु के बटवारे में अनिल अंबानी को Rcom मिला। 2005 में BSNL ने Rcom पर आरोप लगाया कि उसने ISD कॉल को लोकल कॉल में बदल करके गैरकानूनी रूप से करोड़ों रूपये कमाए हैं। इसके लिए BSNL ने रिलायंस पर 9.89 करोड़ रुपये (for illegal routing of calls) का जुर्माना ठोक दिया।

इसके अलावा यह बात तो अब खुली किताब की तरह है कि  पहले Rcom और फिर Reliance Jio की सफलता BSNL के इंफ्रास्ट्रक्चर का इस्तेमाल करते हुए और फिर BSNL का गला घोटकर हासिल की गयी है।

वास्तव में साम्राज्यवादी देश ‘औधोगिक क्रांति’ से गुजरते हुए आज ‘वितीय तरीकों से श्रम के शोषण’ (financial rentier mode of exploiting labor) तक पहुंचे हैं। लेकिन भारत का पूंजीवाद ‘औधोगिक क्रांति’ से बचते हुए साम्राज्यवादियों के अधीन सीधे ‘वितीय तरीकों से श्रम के शोषण’ के दौर में पहुँच गया। अडानी-अंबानी जैसे पूंजीपति इसके चरम प्रतिनिधि है।

अगर हम ‘हडसन बबल मॉडल’ (Hudson Bubble Model) को देखें तो बिना वास्तविक मजदूरी को बढ़ाये तमाम संपतियों के मूल्यों को कृतिम तरीके से बढ़ाने के माध्यम से अडानी-अंबानी जैसे पूंजीपति मुख्य अर्थव्यवस्था में बिना कुछ जोड़े भी अकूत मुनाफा कमाते हैं और जनता अर्ध-सामंती सामाजिक ढाँचे में कराहती रहती है।

दरअसल भारतीय पूंजीवाद शुरू से ही ‘प्रोजेरिया’ (Progeria) से ग्रस्त रहा है। यानी यह जन्म से ही बूढ़ा पैदा हुआ है।

एक बार बूढ़े ‘ययाति’ (मिथकीय कैरेक्टर) ने अपने पुत्र से जवानी मांगी थी। लेकिन भारतीय पूंजीवाद ने तो अपनी जवानी शुरू से ही प्लेट में सजाकर साम्राज्यवादी देशों और साम्राज्यवादी कम्पनियों को सौंप रखी है।

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