एक ट्रेड यूनियन लीडर के वकील बनने की कहानी
जानी-मानी वकील, ट्रेड यूनियन लीडर और मानवाधिकार कार्यकर्ता सुधा भारद्वाज से यह बातचीत दो युवा वकीलों सांतनु चक्रवर्ती और दर्शन मित्रा ने की है।
सुधा भारद्वाज को ‘शहरी नक्सल’ बताकर भीमा-कोरेगांव केस के सिलसिले में 6 जून 2018 को गिरफ़्तार किया गया था।
वो पैदा तो अमरीका में हुईं लेकिन जब सिर्फ 11 साल की थीं तभी भारत आ गईं थीं। उन्होंने आईआईटी से उन्होंने गणित की डिग्री ली. वो चाहतीं तो वापस विदेश जाकर आगे की पढ़ाई करतीं और वहीं बस जातीं। मगर पढ़ाई के दौरान ही वो सुदूर अंचलों में आने-जाने लगीं और 1986 में वो छत्तीसगढ़ जनमुक्ति मोर्चा के मज़दूर नेता शंकर गुहा नियोगी से मिलीं और ठेके पर काम करने वाले मज़दूरों के संघर्ष में शामिल हो गईं।
यह बातचीत दरअसल पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज द्वारा प्रकाशित किताब, सुधा भारद्वाज, ए लाइफ इन लॉ एंड एक्टिविज्म में छपी है।
बातचीत के मुख्य अंश:
मैम, अगर जिंदगी में पीछे जाकर देखें तो क्या आप बताएंगी कि ट्रेड यूनियन आंदोलन से आप कैसे जुडीं, पढाई किस स्ट्रीम में की और किए चीज ने मजदूरों के लिए काम करने को प्रेरित किया, जिससे आप यहां तक पहुंचीं ?
मैं अपने माता पिता की अकेली बेटी थी, वे दोनों तब अलग हो गए थे जब मैं चार साल की थी। मेरी मां एक सोशलिस्ट बैकग्राउंड से थीं और उनका संबंध देश के पश्चिमी समुद्रतटीय इलाके कोंकण से था और आप जानते हैं कि गोआ देश के आजाद होने के काफी समय बाद आजाद हुआ। समाजवादी आंदोलन वहां काफी मजबूत था और मेरी मां भी उसी मिजाज की थीं। यह मैंने वहां भी महसूस किया और बाद में जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में भी, जहां मेरी मां अर्थशास्त्र पढाती थीं। इस तरह के माहौल में मेरा विकास हुआ, हांलाकि मैंने तय कर लिया था कि मैं मां की तरह अर्थशास्त्री नहीं बनूंगी, ताकि मैं उनकी छाया से बाहर आ सकूं। मेरी पसंद में काफी विरोधाभास था। मुझे गणित भी पसंद था और इतिहास भी, जैसा कि आमतौर पर लोगों को एक साथ पसंद नहीं होता। गणित की वजह से साइंस स्ट्रीम ली और आइआइटी कानपुर में एडमिशन मिला, जहां मैंने गणित सें एमएससी की। वहां मेस वर्करों का एक संगठन था, तभी दरअसल पहली बार मैं वर्करों के किसी संगठन से जुड़ी। उस संगठन का एक कल्चरल ग्रुप और मार्क्सिस्ट स्टडी सर्किल था, तो इस तरह पढाई के साथ बाहर का अध्ययन भी वहीं शुरू हुआ।
शंकर गुहा नियोगी : संविधान को लोगों तक पहुंचाना
1982 में शंकर गुहा नियोगी को एनएसए के तहत गिरफतार किया गया तो उनके समर्थन में दिल्ली कपड़ा वर्करों का आंदोलन शुरू हुआ। हम उस आंदोलन को देखने गए। उसके बाद 1983 में मैं नियोगी जी की ट्रेड यूनियन को देखने दल्ली राजहरा, जिला बालोद, छत्तीसगढ गई, यह मेरे लिए असाधारण अनुभव था। नियोगी जी ने हमसे कहा कि यह आठ घंटे काम करने वाली ट्रेड यूनियन नहीं है, यह चौबीस घंटे काम करती है और लोगों की जिदंगी के हर सवाल से इतेफाक रखती है। उनकी ट्रेड यूनियन में हेल्थ, एजुकेशन, महिलाओं के मुददों समेत 17 विभाग थे और सभी बहुत बेहतर काम कर रहे थे, उदाहरण के लिए शहीद अस्पताल। यूनियन 11 स्कूल चलाती थी। यही वजह थी कि दल्ली राजहरा वर्करों की ताकत का एक प्रतीक बन गया था। भिलाई के वर्कर वहां गए थे और 1990 में भिलाई में आंदोलन शुरू हुआ।
1986 आते आते मैंने मन बना लिया कि मैं दल्ली राजहरा जाउंगी और काम करूंगी। मुझे याद है, मां इससे चिंतित थी। उनका कहना था कि तुम्हारी कोई पहचान नहीं है, क्यों अपनी पढ़ाई छोड़कर वहां जा रही हो लेकिन मुझे पूरा भरोसा था । मैंने उनसे कहा कि यूनियन मुझे जो काम सौंपेगी, वह मैं करूंगी । मुझे याद है, नियोगी जी की हत्या के बाद जस्टिस कृष्णा ने अपनी स्पीच में कहा था, नियोगी ने संविधान को छत्तीसगढ़ के खदानों में काम करने वाले आदिवासियों तक पहुंचाया, अब हमें इसे आम आदमी के जीवन तक पहुंचाना है। ट्रेड यूनियन का अनुभव मेरी वकालत में बहुत काम आया है दरअसल मैंने मजदूरों से बहुत कुछ सीखा है।
क्या आप हमें छत्तीसगढ मुक्ति मोर्चा के अपने अनुभवों के बारे में बताएंगी, वहां आपकी क्या जिम्मेदारियां रहीं ?
चूंकि मैं यूनियन में नई थी, तो वहां कई तरह की जिम्मेदारियां निभाने को मिलीं। मैंने हाईस्कूल में पढ़ाया और बच्चों को भी, बाद में महिलाओं को संगठित करने की जिम्मेदारी मिलीं। नियोगी जी ने हमें एक महत्वपूर्ण बात सिखाई थी जो बाद में हमारे विकास में बहुत काम आई। उनका कहना था कि यूनियन में भले ही मिडिल क्लास के लोग, वकिंग क्लास के साथ काम करते हैं लेकिन अपने अवचेतन में मिडिल क्लास कॉमरेड भी वर्किंग क्लास के लोगों को अपने से कमतर श्रेणी में समझते हैं। मैं बस्तियों में रही और मुझे यह उतना मुश्किल नहीं लगा, जितना दिखता है। अभी भी मैं अभियानों में, सांगठनिक बैठकों में भाग लेती हूं, मेरा केवल एक हिस्सा वकील है बाकी मैं ट्रेड यूनियन वर्कर हूं ।
वकील बनने के बारे में
भिलाई में वर्करों का जो आंदोलन शुरू हुआ, वह बिल्कुल बुनियादी अधिकारों को लेकर था, जैसे यूनियन बनाने का हक, वेतन का हक, आठ घंटे काम का हक, गेट पास, हाजिरी कार्ड का हक आदि। उस आंदोलन में 16 इंडस्ट्री शामिल थीं और इनमें से ज्यादातर पांच बडे इंडस्ट्रियल हाउसेस, की थीं ।
1993 में आंदोलन के सारे केस इंडस्ट्रियल कोर्ट भेजे गए। यही वह समय था, जब एक यूनियन वर्कर के रूप में मेरा सामना वकीलों से पड़ना शुरू हुआ । वर्करों ने ही मुझे एहसास दिलाया कि हमें ही वकीलों के पीछे भागना है, और वे जितनी फीस मांगते हैं हम नहीं दे सकते। हमारी एक कांट्रैक्ट लेबर यूनियन थी, जो बहुत गरीब थी। वहीं मुझे यह भी लगा कि कई बार हमारे केस लटकाए जाते थे, दूसरे पक्ष के दबाव में हमारे वकील ऐसा करते थे। तब वर्करों ने सुझाया कि मुझे वकालत करनी चाहिए। सन 2000 में 40 की उम्र में मुझे वकालत की डिग्री मिली । तो, मैं वकील जरूरत के लिए बनी, अपने लोगों के केस ठीक से लडे जाने के लिए बनी। बाद मे जब हमारी यूनियन हाईकोर्ट गई तो मैं हाईकोर्ट पहुंच गई।
बाद में मैंने जाना कि जन आंदोलनों को भी उन्हीं मुश्किलों का सामना करना पडता है जो किसी यूनियन को। उन्हें लगातार लड़ना होता हैं और आंदोलन के दौरान उन पर आपराधिक समेत तमाम केस लगा दिए जाते हैं और आंदोलनकारियों को खुद को इन केसों से बचाव करना पड़ता है। दरअसल उन्हें ऐसे वकील नहीं मिलते जो उनका पहलू ठीक से समझ सकें। यही वजह है कि हमें जनहित नाम का समूह बनाना पड़ा।
इस अंधेरे दौर को कैसे देखती हैं?
देखिए, आंदोलनकारी का काम कबड्डी के खिलाडी जैसा है, हर कोई दूसरी ओर हमें पकड़ने के लिए खड़ा है, और चुनौती दे रहा है कि यह निशान छू सकते हो तो छू लो। कई बार लगता है कि हमारे काम करने से कुछ भी नहीं बदल रहा लेकिन इतनी तसल्ली है कि अगर यह हाथ न होते तो चीजें शायद और बदतर होतीं।
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