लेबर कोड लागू हुआ तो ठेकेदारों की गुंडागर्दी को रोकने वाला कोई नहीं होगा, न लेबर कोर्ट, न सरकारः भाग-2
By दिनकर कपूर
व्यावसायिक और सामाजिक सुरक्षा के लिए बने इन लेबर कोडों में ठेका मजदूर को, जो इस समय सभी कार्याें में मुख्य रूप से लगाए जा रहे है, शामिल किया गया है।
पहले ही निजीकरण और डाउनसाइजिंग के कारण हो रही छंटनी की मार से इनका जीवन बर्बाद हो रहा है अब इन लेबर कोड ने तो उन्हें बुरी तरह असुरक्षित कर दिया है।
इस कोड के अनुसार 49 मजदूर रखने वाले किसी भी ठेकेदार को श्रम विभाग में अपना पंजीकरण कराने की कोई आवश्यकता नहीं है अर्थात उसकी जबाबदेही के लिए लगने वाला न्यूनतम अंकुश भी सरकार ने समाप्त कर दिया।
व्यावसायिक सुरक्षा कोड के नियम 70 के अनुसार यदि ठेकेदार किसी मजदूर को न्यूनतम मजदूरी देने में विफल रहता है तो श्रम विभाग के अधिकारी नियम 76 में जमा ठेकेदार के सुरक्षा जमा से मजदूरी का भुगतान करायेंगे।
आइए देखते चले कि ठेकेदार के जमा का सैलाब कैसा है – 50 से 100 मजदूरों को नौकरी देने वाले को मात्र 1000 रूपया, 101 से 300 मज़दूरों को नौकरी देने वाले को 2000 रूपया और 301 से 500 मजदूरों को नौकरी देने वाले ठेकेदार को 3000 रूपया सिक्योरिटी मनी जमा करनी पड़ेगी।
अब आप सोच सकते हैं कि इतनी मामूली राशि में कौन सी बकाया या न्यूनतम मजदूरी का भुगतान होगा।
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यही नहीं कोड और उसके नियमावली मजदूरी भुगतान में मुख्य नियोजक की पूर्व में तय जिम्मेदारी तक से उसे बरी कर देती है और स्थायी कार्य में ठेका मजदूरी के कार्य को प्रतिबंधित करने के प्रावधानों को ही खत्म कर लूट की खुली छूट दी गई है।
इन लेबर कोड में 44 व 45 इंडियन लेबर कांग्रेस की संस्तुतियों के बावजूद स्कीम मजदूरों जैसे आगंनबाडी, आशा, रोजगार सेवक, मनरेगा कर्मचारी, हेल्पलाइन वर्कर आदि को शामिल नहीं किया गया।
लेकिन कुछ नए श्रमिक लाए गए हैं जैसे फिक्स टर्म श्रमिक, गिग श्रमिक और प्लेटफार्म श्रमिक आदि। इनमें से प्लेटफार्म श्रमिक वह जो इंटरनेट आनलाइन सेवा प्लेटफार्म पर काम करते है और गिग कर्मचारी वह है जो बाजार अर्थव्यवस्था में अंशकालिक स्वरोजगार या अस्थाई संविदा पर काम करते हैं।
लागू किए जा रहे नए कृषि कानूनों में जो कारपोरेट मंडियों को मूर्त रूप दिया जा रहा है या अभी जो अमेजन, फिलिप कार्ड आदि विदेशी कम्पनियों का आनलाइन व्यापार बढ़ रहा है।
यह भी कि हाल ही में जिस तरह से अम्बानी ग्रुप्स में फेसबुक ने बड़ा निवेश किया है और वाट्सएप, फेसबुक द्वारा भारत के खुदरा व्यापार को हडपने की कोशिश हो रही है।
इसी दिशा में ‘वाई-फाई क्रांति’ या पीएम वाणी कार्यक्रम की घोषणाएं की गई है। उसमें इस तरह के रोजगार में बड़े पैमाने पर श्रमिक नियोजित किए जायेंगे।
लेकिन इन श्रमिकों का उल्लेख औद्योंगिक सम्बंध और मजदूरी कोड में नहीं है। क्योंकि इनकी परिभाषा में ही लिख दिया गया कि इनके मालिक और इन श्रमिकों के बीच परम्परागत मजदूर-मालिक सम्बंध नहीं है।
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बात बहुत साफ है इन मजदूरों के मालिक भारत की सरहदों से बहुत दूर अमेरिका, यूरोप या किसी अन्य देश में हो सकते है। इनमें से ज्यादातर फिक्स टर्म इम्पलाइमेंट में ही लगाए जायेंगे।
दिखाने के लिए कोड में कहा तो यह गया है कि फिक्स टर्म इम्पालाइज को एक साल कार्य करने पर ही ग्रेच्युटी भुगतान हो जायेगी यानी उसे नौकरी से निकालते वक्त 15 दिन का वेतन और मिल जायेगा।
लेकिन हकीकत बड़ी कड़वी होती है, सच यह है कि कोई भी मालिक किसी भी मजदूर को बारह महीने काम पर ही नहीं रखेगा।
जैसा कि ठेका मजदूरों के मामले में उत्तर प्रदेश के प्रमुख औद्योगिक केन्द्र सोनभद्र में हमने देखा है।
यहां उद्योगों में ठेका मजदूर एक ही स्थान पर पूरी जिदंगी काम करते है लेकिन सेवानिवृत्ति के समय उन्हें ग्रेच्युटी नहीं मिलती क्योंकि उनके ठेकेदार हर साल या चार साल में बदल दिए जाते है और वह कभी भी पांच साल एक ठेकेदार में कार्य की पूरी नहीं कर पाते जो ग्रेच्युटी पाने की अनिवार्य शर्त है।
मजदूरों की रूसी क्रांति से प्रभावित भारतीय मजदूरों द्वारा 1920 में की गई व्यापक हड़ताल और देश में पहले राष्ट्रीय मजदूर केन्द्र के निर्माण के दौर में अंग्रेज ट्रेड डिस्प्यूट बिल लाए थे जिसमें हडताल को प्रतिबंधित कर दिया गया और हर हड़ताल करने वाले को बिना कारण बताए जेल भेजने का प्रावधान किया गया था।
इस बिल के खिलाफ भगत सिंह और उनके साथी संसद में बहरों कानों को सुनाने के लिए बम फेंक फांसी चढ़े थे।
बाद में 1942 से 1946 तक भारत में वायसराय की कार्यकारणी के श्रम सदस्य रहते डा. अम्बेडकर ने औद्योगिक विवाद अधिनियम का निर्माण किया जो 1947 से लागू है। (क्रमशः)
(लेखक वर्कर्स फ्रंट के अध्यक्ष हैं।)
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