मजदूरों से मुंह छुपाने को मजबूर हो रहा भारतीय मजदूर संघ
By राजेश कुमार
नवम्बर में अमरीकी राष्ट्रपति का चुनाव है। ट्रम्प सरकार चीन को प्रतिद्वंदी के तौर पर पेश कर रही है। अमरीका और वैश्विक आर्थिक संकट के लिए चीन को कठघरे में खड़ा किया जारहा है। दोनों के बीच वाक्युद्ध चल रहा है। पर इसने अभी व्यापारिक युद्ध का रूप धारण नहीं किया है।
भारत इस उम्मीद में है कि अगर इनमें व्यापार युद्ध छिड़े तो अमरीकी कंपनियों को चीन से अपने यहां बुला लिया जाय। इसके लिए केंद्र सरकार अप्रैल से ही कंपनियों की ख्वाहिश पूछ रही है। कि जनाब आप चाहते क्या हैं ? आखिर किन शर्तों पर हमारे यहां आएंगे ? सभी कंपनियों का घुमा-फिराकर एक ही जवाब है -“हमें चाहिए सस्ते मजदूर और श्रम कानूनों से छूट। ”
केंद्र सरकार राज्यों के साथ मिलकर इस दिशा में काम कर रही है। वह चाहती है कि सांप भी मर जाय और लाठी भी न टूटे। पर पहले से ही देश में श्रम क़ानून न के बराबर हैं। देश भर में ठेके पर काम का चलन तेजी से बढ़ रहा है। क्या सरकारी क्या प्राइवेट सब जगह कॉन्ट्रैक्ट लेबर है। तो श्रम क़ानून तो ऐसे भी बर्फ के ठन्डे समुन्द्र की तलहटी में डूब चुके हैं अब उनमें जान नहीं बची।
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मजेदार बात ये है कि चीन से अमरीकी कंपनियों को बुलाने के लिए ललचायी केंद्र सरकार की आरएसएस के मजदूर संगठन “भारतीय मजदूर संघ” ने कड़ी निंदा की है।
इस संगठन के अध्यक्ष साजी नारायणन का बयान है कि -“चीन लोकतंत्र न होने के लिए कुख्यात है, वहां मानवाधिकार, श्रम क़ानून और ट्रेड युनियन जैसी कोई बात ही नहीं है। सस्ती लेबर मुहैया कराने की दौड़ में चीन जैसी नीतियां लागू करना भारत के लिए लाभकारी नहीं होगा।”
इनके बयान में काफी गंभीरता है। जहां मानवाधिकार न हों, श्रम क़ानून न हों ,ट्रेड युनियन बनाने के अधिकार न हों वहां वास्तव में लोकतंत्र नहीं होता। अब हमें सोचना चाहिए कि क्या भारत में ये तीनों चीजें हैं ? और हैं तो कितने फीसद जनता के लिए। कोरोना काल में जो करोड़ों लोग पैदल घर गए उनके लिए न मानवाधिकार हैं, न श्रम क़ानून।
महज बीस फीसदी आबादी के लिए यहां कुछ हद तक लोकतंत्र है। शेष अस्सी फीसदी आबादी के लिए लोकतंत्र नहीं एक तरह की तानाशाही है। व्यक्ति की नहीं, व्यवस्था द्वारा थोपी गयी तानाशाही। जो क़ानूनन अस्सी फीसदी को कंगाल बना देती है और देश में सौ से भी कम ऐसे घराने पैदा करती है जिनकी संपत्ति सरकार के केंद्रीय बजट से भी ज्यादा है।
दरअसल केंद्र सरकार फ़ूड प्रोसेसिंग से लेकर ऑटोमोबाइल के पार्ट्स बनाने वाली 550 कंपनियों को यहां बुलाना चाहती है। इसके लिए केंद्र सरकार भूमि अधिग्रहण करने को भी तैयार होगयी है।
केंद्र सरकार के इस फैसले से स्वदेशी मंच में बौखलाहट मची है। वे हर बात में केंद्र सरकार के लिए लठैत का काम करते आये हैं। पर सरकार के इस फैसले ने उन्हें कहीं का न छोड़ा। अब उनके अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है। और तब तक चिल्ल-पौं मचाते रहेंगे जब तक उनकी सहयोगी राजनैतिक पार्टी उनको उचित पद और मानदेय नहीं दे देती।
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