क्या फ़ैक्ट्री यूनियनें स्थापित ट्रेड यूनियन सेंटरों से नाता तोड़ चुकी हैं?
By अजीत सिंह
वर्तमान दौर मज़दूर वर्ग के लिये चुनौतियों का दौर है। मज़दूर आन्दोलनों में आये उतार को स्पष्टता से इस रूप में देखा जा सकता है कि मोदी सरकार ने 44 केन्द्रीय श्रम कानूनों को एक झटके में खत्म कर 4 श्रम संहिताओं में समेट दिया है, जोकि घोर मज़दूर विरोधी है।
यह मज़दूर वर्ग पर आजाद भारत का सबसे बड़ा हमला है। परन्तु मज़दूर यूनियनों द्वारा कोई जुझारू व संगठित प्रतिरोध अभी तक भी नहीं खड़ा किया गया है। मज़दूर आंदोलन में आये उतार कई सवालों को पैदा कर रहे हैं।
पिछले तीन दशक से चले आ रहे उदारीकरण-निजीकरण की पूंजीपरस्त नीतियों के परिणामस्वरूप यह हमला एक बड़ा हमला है। पूंजीपति वर्ग की दबी इच्छा को मोदी सरकार ने एक झटके में पूरा कर दिया है।
इसके साथ-साथ सार्वजनिक उपक्रमों को भी पूंजीपति वर्ग को सुपुर्द करना और यहां तक कि खेती-किसानी से जुड़े तीन कृषि कानून भी पूंजीपति वर्ग को कृषि उत्पादों पर निजी मालकाने की ओर लेकर जायेंगे। अब पूंजीपति वर्ग उद्योगो के बाजार को नियन्त्रित करने के साथ-साथ कृषि उत्पाद के बाजार को भी नियन्त्रित करेगा।
मोदी सरकार द्वारा किये गये इन बदलावों की चर्चा विपक्षी पार्टियों व यहां तक कि आम आदमी के बीच में भी है। परन्तु इसकी चर्चा का ज्यादा श्रेय किसान आन्दोलन को जाता है। और उनमें भी उन क्रांतिकारी किसान संगठनों की भूमिका ज्यादा है, जो किसानों के बीच काफी लम्बे समय से कार्य कर रहे है। तीन कृषि कानूनों, 4 श्रम संहितायें तथा निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों की चर्चायें मज़दूर यूनियनों में भी है। इससे पहले धारा-370, सी.ए.ए., एन.आर.सी., तथा राम मन्दिर जैसे मुद्दों पर लगभग मज़दूर यूनियनें मोदी के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर खड़ी थी।
पुलवामा हमलें में तो मज़दूर यूनियनों के ज्यादातर प्रतिनिधि व मज़दूर मोदी से आगे निकलकर पाकिस्तान को तबाह-बर्बाद करने पर तुले हुये थे। एक तरीके से मोदी सरकार द्वारा संवैधानिक मूल्यों के ऊपर किये जा रहे हमलों पर मज़दूर यूनियनें खुशी मना रही थीं।
तीन कृषि कानूनों के विरोध में उठे किसान आंदोलन ने भाजपा के फासिस्ट रथ को कुछ समय के लिये रोक कर भाजपा की काॅर्पोरेट पूंजी के साथ पक्षधरता का पर्दाफाश कर पीछे हटने को मजबूर किया है। 2019 में फासिस्ट गिरोह जिस तरीके से सरेआम साम्प्रदायिक वैमनस्य फैलाने में खुलेआम घूमता था, इस पर किसान आन्दोलन ने कुछ समय के लिये रोक लगा दी है।
परन्तु मज़दूर यूनियनें किसान आंदोलन में उस रूप में शामिल नहीं हुई जिस रूप में किसान संगठनों ने ‘‘मज़दूर-किसान एकता‘‘ के नारे का आहृान किया था। स्थापित ट्रेड यूनियन संगठनों ने भी असल तत्परता नहीं दिखाई। किसान संगठनों को मज़दूर यूनियनों का केवल मौन समर्थन ही हासिल है।
26 नवम्बर 2020 को ट्रेडयूनियनों व किसान संगठनों ने 4 लेबर कोड्स व 3 कृषि कानूनों के खिलाफ आम हड़ताल का आहृान किया था। परन्तु फ़ैक्ट्री यूनियनों ने हड़ताल में हिस्सा नहीं लिया। किसान सगंठनों ने आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिये मज़दूर यूनियनों व मेहनतकशों का आहृान किया गया और कई कार्यक्रम लिये गये। परन्तु फ़ैक्ट्री यूनियनों ने केवल अपना मौन समर्थन ही किसान आंदोलन को दिया। किसान आंदोलन के साथ मज़दूर यूनियनों व स्थापित ट्रेड यूनियन संगठनों का सजीव जुड़ाव अभी तक नज़र नहीं आया है।
यहां पर यह बात करना ज्यादा महत्वपूर्ण व जरूरी बन जाता है कि फ़ैक्ट्री यूनियनों की राजनीतिक व वैचारिक निष्क्रियता के लिये आखिर कौन जिम्मेदार है? आखिर फ़ैक्ट्री यूनियनें अपने आर्थिक संघर्ष के साथ-साथ राजनीतिक व सामाजिक मुद्दो पर क्यों लड़ेगी? यह तर्क यूनियनों में गहरे से जड़ जमाये है कि फ़ैक्ट्री यूनियनों का कार्य केवल एक फ़ैक्ट्री के भीतर आर्थिक संघर्ष ही लड़ना है।
इस तर्क को तोड़ने के लिये उन ट्रेड यूनियन संगठनों ने लम्बे समय से कोई भूमिका अदा नहीं की है। बल्कि इस तर्क को स्थापित करने में इनकी भूमिका मुख्य है। क्योंकि इस तर्क का रास्ता व्यवस्था परिर्वतन तक जाता है।
ट्रेडयूनियन संघर्ष मज़दूर वर्ग की प्राथमिक पाठशाला होते है। ट्रेड यूनियन संघर्ष से ही मज़दूरों को समूह की चेतना का ज्ञान होता है। अकेला-अकेला मज़दूर कुछ भी हासिल नहीं कर सकता। इन्हीं संघर्षो से मज़दूरों को वर्ग का पता चलता है। इससे आगे बढ़कर वर्ग की राजनीति व विचारधारा से अवगत कराना उन ट्रेड यूनियन संगठनों का कार्य बन जाता है जो मज़दूर वर्ग को वर्ग बतौर भविष्य की ताकत मानते हैं।
यही ट्रेडयूनियन संगठन ही मज़दूरों को उनके पूर्वजों के बहादुराना संघर्षो के बारे में बताते हैं कि वर्तमान में मिल रहे कानूनी श्रम अधिकार उनके पूर्वजों के त्याग बलिदान से अर्जित हुये है। मज़दूरों को अपने वर्ग की राजनीति व वैचारिक जमीन पर खड़ा करना ट्रेड यूनियन संगठनों का कार्य है। यह चेतना मज़दूरों को बाहर से दी जायेगी।
यहां तक कि मज़दूर वर्ग को एक वर्ग के बतौर संगठित कर एक बड़े ध्येय (सत्ता संघर्ष) की लड़ाई के लिये तैयार करना मज़दूर संगठन का ही कार्य होता है। स्थापित ट्रेड यूनियन सैंटर मज़दूरों का एक फ़ैक्ट्री के भीतर ही आर्थिक संघर्ष लड़ रहे हैं।
परन्तु आज स्थिति वहां तक पहुंच चुकी है कि स्थापित ट्रेडयूनियन सैंटर मज़दूरों के आर्थिक संघर्ष (एक फ़ैक्ट्री के भीतर) को भी लड़ने में असमर्थ हो चुके हैं। जिसके परिणामस्वरूप मोदी सरकार के मज़दूर वर्ग पर किये गये हमलें (44 केन्द्रीय श्रम कानूनों को खत्म कर 4 घोर मज़दूर विरोधी श्रम संहिताओं) के विरोध में एक व्यापक मज़दूर प्रतिरोध नहीं खड़ा कर पा रहे है।
बार बार स्थापित ट्रेड यूनियन सैंटरों के आहृान पर मज़दूर यूनियनें अपनी फ़ैक्ट्री से बाहर निकल भागीदारी नहीं कर पा रही है। किसी भी राजनीतिक व सामाजिक मुद्दो पर अब फ़ैक्ट्री यूनियनें जमीनी संघर्ष करती नजर नही आ रही है। इसके कारणों पर विचार करेंगे तो पायेंगे कि स्थापित ट्रेडयूनियन सैंटर के संशोधनवाद की अभिव्यक्ति यह है कि फ़ैक्ट्री यूनियनें राजनीतिक व वैचारिक तौर पर इतनी कमज़ोर हो चुकी हैं कि वह शासक वर्ग के हमलों (यू.ए.पी.ए., धारा-370, सी.ए.ए., एन.आर.सी., राम मन्दिर, 3 काले कृषि कानून, 4 घोर मज़दूर विरोधी श्रम संहिताएं आदि) का प्रतिकार करने में असमर्थ ही नहीं बल्कि कभी कभी शासक वर्ग के साथ खड़ी नज़र आती हैं।
फ़ैक्ट्री यूनियनों के इस राजनीतिक व वैचारिक पतन के लिये कौन ज़िम्मेदार है? क्या अब फ़ैक्ट्री यूनियनें स्थापित ट्रेड यूनियन सैंटर से अपना सम्बंध विच्छेद करना चाहती हैं? फ़ैक्ट्री यूनियनों व मज़दूरों का स्थापित ट्रेड यूनियन सैंटरों से मोह भंग हो चुका है? संघर्ष के अब नये तरीके व नये जुझारू संगठन पुराने की जगह अवश्य लेंगे। यही निषेध का निषेध है।
(लेखक ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता और बेलसोनिका यूनियन बॉडी के सदस्य हैं। ये लेखक के अपने विचार हैं। ज़रूरी नहीं कि संपादकीय रूप से इस पर पूरी सहमति हो)
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