बिहार में घुटना भर भर विकास में डूब गया प्रवासी मज़दूरों का मुद्दा
By संदीप राउज़ी
बिहार विधानसभा चुनाव कई मायनों में अनोखा है। अभी लॉकडाउन चल ही रहा था कि चुनाव की घोषणा हो गई। राज्य में दुर्गा पूजा पर भीड़ भाड़ की पाबंदी जारी है लेकिन चुनावी रैलियों में हज़ारों लोग इकट्ठा हो रहे हैं।
लॉकडाउन की प्रेतछाया मास्क भी बिहार की सीमा में प्रवेश करते ही लुप्त हो जाती है। चट्टी चौराहों पर लोगों की भीड़ और उनकी बातचीत से नहीं लगता कि अभी कुछ ही दिन पहले मानव सभ्यता के सबसे दुर्दांत लॉकडाउन को लोग भुगत कर अभी अभी उठे हैं, और बड़ी संख्या में प्रवासी मज़दूर पुलिस की लाठी से बचते बचाते पैदल ही अपने घर को पहुंचे हैं।
राजनीतिक पार्टियां इस मुद्दे को उतनी ही मात्रा में उठा रही हैं, जितने से उनका ‘भोटर कनेक्ट’ बनता है। लेकिन प्रवासी मज़दूरों से जुड़े किसी ठोस मांग का कोई मुद्दा कहीं नहीं दिखता।
अगर प्रवासी मज़दूरों को किसी चुनावी वायदे में शामिल किया गया है तो वो हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी, बिहार में जिनके जगह जगह पोस्टर लगे हैं और प्रवासी मज़दूरों को घर पहुंचाने के एवज में वोट देने की मांग हो रही है।
हालांकि ये पोस्टर बिहार में एक मज़ाक बन गया है, लेकिन यहां भी दामोदर दास ही प्रवासी मज़दूरों के हितों के चैंपियन हैं, ऐसा दिखाने में कोई कसर नहीं रखी जा रही। लेकिन जो लाखों प्रवासी मज़दूर अनपे घरों को लौटे, वे कहां हैं?
दक्षिण बिहार के रोहतास ज़िले का करगहर ब्लॉक को मिनी पंजाब, मिनी नालंदा बोला जाता है। मिनी पंजाब इसलिए कि यहां धान की पैदावार बहुत ज़्यादा होती है और इसीलिए इसे धान का कटोरा भी कहा जाता है। मिनी नालंदा इसलिए कि ये कुर्मी बहुल क्षेत्र है और जेडीयू के मुखिया नीतीश कुमार का गढ़ कहा जाता है।
इस इलाके में काम करने वाले ग्रामीण मज़दूर यूनियन के लीडर अशोक बाताते हैं कि इसी ब्लॉक में कभी दर्जनों राइस मिल हुआ करती थीं, इसलिए भूमिहीन मज़दूरों के लिए रोज़गार के कुछ अवसर थे। लेकिन जबसे उबले धान के चावल का चलन कम हुआ, ये मिलें भी बंद हो गईं। अब पंजाब के अढ़तिये यहां धान खरीदते हैं और बेरोज़गार आबादी प्रवासी मज़दूर बनकर बाहरी राज्यों में कमाने जाते हैं।
घुटने भर गढ्ढों से होते हुए करगहर ब्लॉक के खड़ारी गांव में कुछ ऐसे युवाओं से मुलाक़त हुई जो लॉकडाउन के दौरान मुंबई और सिलवासा (दमन दीव) से गांव लौटे थे और अभी वापस नहीं जा पाए।
इन युवाओं ने बताया कि वापसी में हर व्यक्ति को क़रीब 10 हज़ार रुपये खर्च करने पड़े। इसमें बस का किराया, यात्रा का खर्च सब शामिल है। बाहर कमाने गए ये युवा जब अपने घर पहुंचे तो ज़्यादातर कर्जदार हो गए थे।
सिलवासा से लौटे कृष्ण कुमार कहते हैं कि लौटने के बाद मनरेगा में एक आध हफ़्ते काम मिला, लेकिन उससे खर्च भी नहीं चलता, पैसे नहीं हैं कि वापस नौकरी करने बिहार से बाहर जा सकें।
लॉकडाउन के दौरान नीतीश सरकार के तमाम दावे अख़बार टीवी से निकल कर इन तक नहीं पहुंचे। पांच किलो सूखे राशन और महिलाओं के जनधन खाते में हर महीने 500 रुपये मिलने से तो काम नहीं चलने वाला।
उज्जवला योजना का खाली गैस सिलेंडर किसी कोने में अपनी किस्मत को रो रहा है। जीने के लिए नून तेल लकड़ी का इंतज़ाम सारी प्राथमिकताओं पर भारी है।
छह महीने से बेरोज़गारी, घोर ग़रीबी की मार झेल रहे इन युवाओं को अब ये चिंता सता रही है कि किसी तरह किराए के पैसे का जुगाड़ कर ट्रेन का रिज़र्वेशन कराया जाए।
मुंबई से वापस लौटे रमेंद्र कुमार का दुख ये है कि जब ट्रेन में जनरल बोगी चलती थी तो लोग टंग कर भी मुंबई, सूरत पहुंच जाया करते थे लेकिन लॉकडाउन खुलने के बाद से सिर्फ रिज़र्वेशन वाली ट्रेनें चलाने से वो रास्ता भी बंद हो गया है। अब कम से कम चार पांच हज़ार रुपये पास हों तभी कोई बाहर जाने की सोच सकता है।
यही कारण है कि मज़दूरों को लाने के लिए बस भेज रहे हैं और तब मज़दूर वापस लौट पा रहे हैं।
करहगर ब्लॉक में ही जोगीपुर गांव के महादलित समुदाय के लोगों का दुख इससे अलग नहीं है। फसल कटाई के मौसम में ये लोग पंजाब चले जाते हैं, बीबी बच्चों समेत। लेकिन इस साल लॉकडाउन से वहां नहीं जा पाए।
लॉकडाउन ने उनकी अतिरिक्त कमाई तो छीनी ही, इसी दौरान इनमें से कई लोगों के राशन भी बंद हो गए। कई महिलाओं ने बताया कि वो गांव में मांग कर राशन जुटाते हैं।
एक बुज़र्ग विधवा महिला ने बताया कि कोरोना में लोगों ने अपने दरवाजे उनके लिए बंद कर दिए, जहां से वे मांगने जाते थे।
सालों से छुआछूत और बहिष्कार का अपमान झेलने वाली इस आबादी को गांव से भी बमुश्किल ही कोई सहारा मिल पाया। एक महिला ने कहा, ‘हम लोग अपना पेट बांध कर रह सकते हैं लेकिन बच्चों का क्या करें, उन्हें किसी कैसे पालें?’
बिहार की क़रीब साढ़े आठ करोड़ की आबादी में 15 प्रतिशत दलित हैं और दलित आबादी का क़रीब 31 प्रतिशत इसी समुदाय के लोग आते हैं, जिनमें, मुसहर, नट, भुईयां और डोम उप जातियां हैं। इसी समुदाय से आने वाले जीतनराम मांझी के मुख्यमंत्री बन जाने से भी कोई फर्क नहीं आया।
रोहतास ज़िले में ग्रामीण मज़दूर यूनियन के नेता भोला शंकर बताते हैं कि अव्वल तो बिहार में क़रीब 65 प्रतिशत आबादी भूमिहीन है, जिनमें अधिकांश दलित, मुस्लिम और पिछड़ी जातियों के लोग हैं। लेकिन महादलित इनमें भी सबसे हाशिये के लोग हैं। ज़िंदा रहने रहने के लिए बांस के सामान बनाकर, खेत मज़दूरी करके और मांग कर खाने पर मज़बूर।
मांझी की पार्टी बीजेपी-नितीश गठबंधन में शामिल है लेकिन इस समुदाय के युवा विमुख होते दिखाई देते हैं। शायद अपनों से उम्मीद टूटना क्या है इन युवाओं के चेहरे बता रहे हैं।
एक दुख और साफ़ दिखता है और जो बहुत गहरा है कि लॉकडाउन में नीतीश सरकार ने प्रवासी मज़दूरों की मदद नहीं की। यहां तक कि जब पूरे देश में स्पेशल श्रमिक ट्रेनों की केंद्र सरकार ने इजाज़त दी तो नीतीश कुमार ने बार बार अपने यहां तक ट्रेन चलाने को मना किया। जब वे घर पहुंचे तो उनके रोज़गार का इंतज़ाम नहीं किया गया जबकि ट्रेड यूनियनें लगातार मांग करती रहीं कि असंगठित क्षेत्र के इन गैर करदाता मज़दूरों के खातों में अगले छह महीने तक 6000 से 10,000 रुपये मदद पहुंचाई जाए। लेकिन बिहार के डीएनए की राजनीति ने ये रिश्ता नहीं निभाया। हालांकि दूसरी सरकारों से भी कोई उम्मीद नहीं है लेकिन कम से कम नीतीश सरकार को इसका ख़ामियाजा भुगतना पड़ सकता है।
(वर्कर्स यूनिटी स्वतंत्र निष्पक्ष मीडिया के उसूलों को मानता है। आप इसके फ़ेसबुक, ट्विटर और यूट्यूब को फॉलो कर इसे और मजबूत बना सकते हैं। वर्कर्स यूनिटी के टेलीग्राम चैनल को सब्सक्राइब करने के लिए यहां क्लिक करें।)