किसान आंदोलन: तीन कृषि कानूनों के ख़िलाफ़ लड़ाई सिर्फ उनकी नहीं, हम सबकी! भाग-1
आज जब हम यह लिख रहे हैं, लाखों किसान- औरत-मर्द, युवा और बच्चे- देश की राजधानी के सभी प्रवेश द्वारों पर डेरा डाले हुए हैं।
उनकी मांग है कि वर्तमान केंद्र सरकार द्वारा हालही में देश पर थोपे गए तीन कृषि कानून रद्द किये जायें। लंबे अरसे के बाददेश एक ऐसे आंदोलन को देख रहा है जो शासकों की नीतियों को प्रेरणादायी चुनौती दे रहा है।
यह खासतौर पर इसलिए प्रेरणादायी है, क्योंकि यह संघर्ष मेहनतकश लोगों की वर्गीय मांगों पर संगठित किया गया है।
केंद्र सरकार, जिसने शुरू में राजधानी के इर्द-गिर्द ऐसी किलेबंदी की थी मानो दुश्मन की सेना आक्रमण कर रही हो और शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे किसानों पर पानी की तोपों और आंसू गैस के गोलियों से हमला बोला था, जल्द ही अपना रुख बदलने के लिए मजबूर कर दी गयी।
उसे किसानों को बिना शर्तबातचीत के लिए बुलाना पड़ा। अनुभव हमें बताता है कियह महज एक सामरिक चाल है और शासक वर्ग का अपनी बुनियादी नीतियों में बदलाव लाने की कोई इरादा नहीं है।
फिर भी, शासकों का एक कदम पीछे हटना भी किसान आंदोलन के लिए एक महत्वपूर्णजीत है। इसके अलावा देश भर के लोग बड़ी तादादमें किसानों की मांगों से हमदर्दी रखते हैं।
नीचे हम इस आंदोलन के व्यापक महत्व और इससे जुड़े अंतर्निहित सवालों के बारे में बिंदुवार चर्चा करेंगे। हो सकता है किये बातें आपको नयी न लगें, लेकिन फिर भी हमें लगता है कि इन पर ध्यान केंद्रित करने की ज़रूरत है।
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किसानों पर मंडराता खतरा
किसान आंदोलन का तात्कालिक उद्देश्य है- तीन कृषि कानूनों का खात्मा, जो कृषि उपज मंडी समिति (ए.पी.एम.सी.) द्वारा संचालित मंडियों को दरकिनार करते हैं, कृषि उपज के भंडारण की सीमा को खत्मकरते हैं और ठेका खेती को बढ़ावा देते हैं।
सरकार का दावा है कि वह किसान को ‘आजादी’ दे रही है किवह अपनी फसल को कहीं भी, किसी को भी बेच सके और अब वे मंडी में जाने के लिए बाध्य नहीं होंगे।
दरअसल अधिकांश किसानों को पहले से ही यह ‘‘आजादी’’ मिली हुई है जिसके चलते वे और भी ज्यादा शोषण के शिकार होते हैं।
सरकार के दावे के ठीक विपरीत, किसान फर्जी‘‘आजादी’’ नहीं बल्कि यह गारंटी चाहते हैं कि उनकी फसलको सरकारी एजेंसियों द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर खरीदा जायेगा।
गेहूंऔर चावल की खेती करने वाले कुछ राज्यों के किसानों को पहले से ही यह गारंटी मिलती रही है। अब मंडी समितियों के चंगुलसे किसानों को ‘‘मुक्त’’ करने के छलावे के तहत वही गारंटी उनसे छीनी जा रही है।
इन कानूनों से एक ऐसी स्थिति पैदा होगी जहां बड़े निगम किसानों से अनियंत्रित दामों पर फसल खरीद सकेंगे, जमाखोरी करेंगे और कृषि व्यापार पर नियंत्रण कायम कर सकेंगे।
इसके साथ ही, बिजली संशोधन कानून 2020 से खेती के लिए बिजली की लागत में भारी वृद्धि होगी, जिससे किसानों को नुकसान होगा। इसलिए किसान संगठनों की मांग है कि इसे भी खत्म कर दिया जाये।
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छोटे किसानों की कमर टूट जाएगी
जैसे-जैसे खाद्य आपूर्ति श्रृंखला पर निगमों का नियंत्रण बढ़ता जायेगा, एक के बाद एक किसान इस या उस वजह से अपनी जमीन गंवाने लगेंगे।
क्योंकि बड़ी संख्या में छोटे उत्पादकों की तुलना में मुट्ठी भर बड़े और मानक आकार के उत्पादकों से निपटना कंपनी के लिए सस्ता और आसान सौदा होगा इसलिए अतिरिक्त उत्पादन करने वाले राज्यों के छोटे किसानों के लिए गुजारा करना मुश्किल हो जायेगा।
किसानों की बहुतायत आबादी इन्हीं छोटे किसानों की है, यहां तक कि पंजाब में भी। पहले ही, लागत की बढ़ी हुई कीमतों और फसल के कम दामों की दोहरी मार झेल रहे ये किसान अपनी जमीन से बेदखल होने के लिए मजबूर हो जायेंगे।
जो बचे रहेंगे, उन पर निगमों का शिकंजा और मजबूती से कस जायेगा और उत्पादन प्रक्रिया पर उनकी निगरानी इतनी सख्त होगी।और किसान जमीन के केवल कागजी तौर पर मालिक रह जायेंगे।
बड़े मशीनीकृत खेती के लिए बहुत कम लोगों की जरूरत होती है। इसलिए भले ही इस आंदोलन को ‘‘किसान आंदोलन’’ कहा जा रहा है, लेकिन दरअसल यह छोटे और मध्यम किसानों का आंदोलन है “किसानों” का नहीं।
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असली निशाना राशन प्रणाली को ख़त्म करना है
हालांकि दिल्ली के आंदोलनकारी किसान मेहनतकश किसान हैं लेकिन हो सकता है कि वे भारत के सबसे गरीब और सताये हुए किसान न हों।
सबसे गरीब और सताये हुए किसान हमें देश के उन इलाकों में मिलेंगे जो खेती के मामले में बेहद पिछड़े हुए हैं।
उनकी फसलों को किसी सरकारी एजेंसी ने कभी भी एम.एस.पी. पर नहीं खरीदा। इसके बावजूद, मौजूदा किसान आंदोलन इन किसानों के भी हित में है।
फिर से दोहरा लें, किसान आंदोलन का केंद्रीय तत्व है- खाद्यान्नों की न्यूनतम समर्थन मूल्य पर लगातार सार्वजनिक खरीद की गारंटी की मांग।
यह खरीद खुली होगी यानी जितना भी अनाज मंडी में बिक्री के लिए आयेगा, सरकार या उसकी एजेंसियां उसे न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदेंगी।
यही सार्वजनिक खरीद सार्वजनिक वितरण प्रणाली का आधार है। इस प्रकार किसानों की मांग का महत्व केवल उनकी जीविका तक सीमित नहीं है।
न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदकी व्यवस्था केवल उन फसलों के लिए प्रभावी हो सकती है जिनकी सरकारी खरीद होती है- मुख्यतः गेहूं और चावल।
इस तरह मंडी समितियों को दरकिनार करने वाला कानून दरअसल खाद्यान्नों की सरकारी खरीद को बंद करने के रास्ते खोल देता है।
सार्वजनिक खरीद और वितरण की इस प्रणाली पर कुछ वर्षों से छिपे तौर पर हमले हो रहे थे।
लेकिन 2014 में नवनिर्वाचित मोदी सरकार ने भारतीय खाद्य निगम के पुनर्गठन और उसकी भूमिका के पुनर्निर्धारण के लिए भाजपा नेता शांता कुमार के नेतृत्व में एक उच्चस्तरीय समिति गठित करके उस पर सीधा हमला बोल दिया।
साल 2015 में सौंपी गयी अपनी रिपोर्ट में शांता कुमार समिति ने दरअसल सार्वजनिक खरीद और वितरण प्रणाली, दोनों को ही खत्म करके उनकी जगह सीधे नकद राशि खाते में भेजने की छल योजना पेश की।
वास्तव में नकद राशि को खातों में भेजने के इस प्रस्ताव से न तो किसान का भला होना था, न खाद्यान्न उपभोक्ता का, जिसके बारे में हम अलग से लिखेंगे। (क्रमश-)
(ये लेख रिसर्च यूनिट फॉर पालिटिकल इकोनॉमी से लिया गया है जिसे ट्रेड यूनियन सॉलिडेरिटी कमेटी ने प्रकाशित किया है। मूल लेख को यहां पढ़ा जा सकता है।)
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