लॉकडाउन में भी 429 करोड़ कमाने वाली रेलवे हो गई कंगाल!
जिस रेलवे ने लॉकडाउन के दौरान श्रमिक स्पेशल ट्रेनों में 63 लाख यात्रियों को ढोकर 429 करोड़ रुपये कमा लिए, वह माली हालत खस्ता होने का रोना रो रही है। रेलवे ने पेंशन तक का पैसा न होने का हवाला देकर वित्त मंत्रालय से मदद मांगी है।
इस पूरे मामले को निजीकरण के लिए बारीकी से जाल बुनने के लिए मीडिया भी कंगाली बखान कर रही है। ब्रेकिंग देने वाली मुख्यधारा की मीडिया ने भी हवाहवाई मीडिया रिपोर्टों से रेलवे की मजबूरी की तस्वीर खींचना शुरू कर दी है।
निजीकरण को जायज ठहराने का जाल
प्रमुख मीडिया की खबर की शुरुआत ही यही है कि ‘देश के प्रमुख रेलवे स्टेशनों का निजीकरण रेल मंत्रालय यूं ही नहीं कर रहा है। ऐसी मीडिया रिपोर्ट आई है कि रेलवे के पास चालू वित्त वर्ष के दौरान अपने रिटायर हो चुके अधिकारी एवं कर्मचारियों को पेंशन देने का भी पैसा नहीं है। इसलिए इसने केंद्रीय वित्त मंत्रालय के समक्ष अपनी झोली फैलायी है।’
‘कोरोना काल में रेलगाडिय़ां क्या बंद हुईं, रेलवे की माली हालत खस्ता हो गई है। तभी तो इसके पास अपने पूर्व कर्मचारियों एवं अधिकारियों को पेंशन देने लायक पैसे भी नहीं बचे हैं। रेल मंत्रालय ने केंद्रीय वित्त मंत्रालय को चि_ी लिख कर तत्काल हस्तक्षेप करने को कहा है ताकि चालू वित्त वर्ष में सभी रिटायर हुए व्यक्तियों को पेंशन दिया जा सके।’
खबरों के अनुसार रेलवे के पेंशनरों की संख्या बढ़ कर 15 लाख हो गई है।आकलन है कि वर्ष 2020-21 के दौरान इसका कुल पेंशन व्यय 53 हजार करोड़ रुपये के करीब होगा।
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कोरोना संकट में भी की कमाई
जिस कोरोना महामारी के चलते रेलवे का नुकसान गिनाया जा रहा है, उसकी हकीकत ये है कि रेलवे की मालगाडिय़ों का संचालन निर्बाध गति से जारी रहा, लाभ कम हुआ होगा, लेकिन घाटा तो बिल्कुल भी नहीं हुआ। दूसरी ओर सवारी गाडिय़ों का आलम ये है कि लॉकडाउन में चलाई गईं श्रमिक स्पेशल ट्रेनों ने भी जमकर कमाई की।
स्पेशल ट्रेनों के संचालन को राज्य सरकारों की ओर से दिए गए किराए के अलावा मजदूरों से वसूली की खबरें भी आम रहीं। जबकि अब मजदूरों की वापसी का सिलसिला चल रहा है, 150 तक वेटिंग है, स्पेशल ट्रेनें चलाने की जरूरत महसूस की जा रही है। बीस लाख के आसपास मजदूर सिर्फ मुंबई की ओर रुख कर चुकी हैं।
मीडिया के जरिए बनाया जा रहा माहौल
मीडिया के माध्यम से माहौल बनाया जा रहा रहा है कि रेलवे के पास जल्य ये नौबत आने वाली है कि कर्मचारियों को वेतन देने के भी शायद पैसे नहीं होंगे। यही नहीं, ढांचागत विकास यानी पटरी, स्टेशन सुविधाओं आदि के लिए भी अब कोई काम नहीं हो पाएगा।
कुल मिलाकर ये बताया जा रहा है कि इस उपक्रम को अब सरकार को नहीं चलाना चाहिए। इसका दूसरा अर्थ ये है कि इसे बेच दिया जाना जरूरी है और जो खरीद सके, उसे जल्द से जल्द बेचकर छुट्टी करो।
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बेचने की योजना और ताजा बहाना
असल में फिलहाल बहाना तो कोरोना का बनाया जा रहा है, जबकि रेलवे को निजी हाथों में सौंपने की योजना तो पहले से ही तय कर दी गई है। सौ दिनों की कार्ययोजना और देवराय कमेटी बनी ही इसी के लिए। बताया जा रहा है कि बीते साल (वित्त वर्ष 2019-20) में भी पेंशन फंड में 28 हजार करोड़ रुपये का निगेटिव क्लोजिंग बैलेंस था।
निगम बनाकर बीएसएनएल की राह पकड़ाने की तैयारी
सरकार तमाम स्टेशनों को पहले ही निजी संचालन को सौंप चुकी है। दूसरी किस्त में प्राइवेट ट्रेनों का संचालन का प्रयोग हुआ, जिसे लगातार बढ़ाया जा रहा है। संरक्षा से जुड़े उत्पादन तक को ठेके पर लगभग पूरा ही दे दिया है।
रिटायर होने वाले कर्मचारियों की जगह कोई नई भर्ती बरसों से नहीं हो रही है। इस स्थिति से निपटने के लिए निगम बनाने की कोशिशें हो रही हैं। बिल्कुल बीएसएनएल की राह पकड़ाने की तैयारी है, जिसका हश्र भी उसी तरह होना तय है।
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