आज मज़दूरों-किसानों का जेल भरो आंदोलन, 5 अगस्त का जवाब 9 अगस्त से देने की तैयारी
श्रम क़ानूनों को ख़त्म करने, सार्वजनिक उपक्रमों को ताबड़तोड़ बेचने, कोरोना के समय में मज़दूरों के साथ सरकारी दुर्व्यवहार को लेकर मज़दूरों और किसानों का देशव्यापी प्रदर्शन है।
रविवार को दिल्ली के जंतर मंतर पर, हरियाणा के गुड़गांव, पटना, जयपुर, उत्तराखंड में, नोएडा में, चेन्नई, बैंगलोर, कोलकाता, हैदराबाद में बड़े पैमाने पर प्रदर्शनों के आयोजन की सूचनाएं हैं।
लेकिन इसके अलावा सभी औद्योगिक क्षेत्रों में ट्रेड यूनियनों ने प्रदर्शन का आयोजन किया है। क़रीब ढाई सौ किसानों के संगठनों के मंच ने कहा है कि देश भर में मोदी सरकार की नीतियों के ख़िलाफ़ वो प्रदर्शन आयोजित कर रहे हैं।
इस बार ये प्रदर्शन कई मामलों में ऐतिहासिक होने जा रहा है जब एक ही दिन मुख्य केंद्रीय ट्रेड यूनियनें, क्रांतिकारी ट्रेड यूनियनें, किसान संगठन, सार्वजनिक उपक्रमों की कर्मचारी यूनियनें और फ़ेडरेशनें और स्कीम वर्कर्स (आशा, आंगनबाड़ी, मिड डे मील) मोदी सरकार के ख़िलाफ़ हमला बोला है।
शायद यही कारण है कि जिसके इशारे पर मोदी सरकार चल रही है यानी आरएसएस इससे जुड़ी ट्रेड यूनियन बीएमएस को भी दो दिन पहले इस विरोध प्रदर्शन में शामिल होना पड़ा। इससे पहले वो शामिल नहीं थी और पिछले छह साल में उसका रिकॉर्ड मोदी सरकार के विरोध को तोड़ने का रहा है।
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लॉकडाउन में अत्याचार बढ़ा
कोरोना के समय में ये अबतक का सबसे संगठित और व्यापक प्रदर्शन होने जा रहा है जब मोदी सरकार का मज़दूरों पर हमला तेज़ हुआ है।
कोरोना के बाद अनियोजित लॉकडाउन कर मोदी सरकार ने आपदा को जो पूंजीपतियों के लिए अवसर में बदलने की जोर शोर से कोशिश की है उससे मज़दूर, किसान, आदिवासी, अल्पसंख्यक, ग़रीब और देश का हर तबका प्रभावित हुआ है।
एक तरफ़ पूंजीपतियों पक्ष में क़ानून पर क़ानून ख़त्म किए जा रहे हैं दूसरी तरफ़ लॉकडाउन का हवाला देकर विरोध प्रदर्शन की भी मनाही की जा रही है।
इसीलिए कहा जा रहा है कि कारपोरेट परस्त नीतियों से ध्यान हटाने के लिए मोदी और आरएसस लॉबी की ओर से पांच अगस्त को अयोध्या में भूमिपूजन का जवाब मज़दूर वर्ग 9 अगस्त को अपनी व्यापक एकता से दे रहा है।
ध्यान देने की ज़रूरत है कि मोदी सरकार ने पांच अगस्त को जानबूझकर चुना है। इसी दिन पिछले साल जम्मू कश्मीर के विशेष राज्य का दर्ज़ा ख़त्म किया गया। एक साल हो गया और वहां आज भी लॉकडाउन से भी बदतर स्थिति है।
इसी तरह कोरोना की आड़ में मोदी सरकार ने मज़दूरों किसानों पर अत्याचार की हद पार कर दी, जब लॉकडाउन लगाकर घरों में बैठा दिया और लोगों को भूखों मरने के लिए छोड़ दिया।
इस दौरान मज़दूर वर्ग काफ़ी संकट में रहा, कई मज़दूरों की रास्ते में जान गए, कई सौ ट्रेनों में जान गंवा बैठे और कई ने बच्चों को भूख से तड़पता देख न पाने की वजह से फांसी लगा ली।
यहां तक कि महीने के तीन चार हज़ार रुपये पाने वाले स्कीम वर्कर्स को कोरोना मरीज़ों की पहचान के लिए घर घर भेजा गया जबकि न तो उन्हें सुरक्षा किट दी गई, न उनकी सैलरी।
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पूंजीपतियों पर करम, मज़दूरों पर लाठी
चमड़ी बचाने के लिए मोदी ने मालिकों से अपील की कि लॉकडाउन के दौरान अपने कर्मचारियों की सैलरी न काटें लेकिन उन्हीं की सरकार ने एक महीने के अंदर सुप्रीम कोर्ट में हलफ़नामा दायर कर इस आदेश को रद्द कर दिया।
लेकिन मोदी सरकार यहीं नहीं रुकी। इसी दौरान 20 लाख करोड़ रुपये के राहत पैकेज की घोषणा की गई और सारा पैकेज पूंजीपतियों की जेब में डाल दिया गया, जनता के हिस्से में बस इसकी ख़बर आई।
मोदी सरकार ने इस अवसर को लूटने के लिए बहुत फुर्ती से बीपीसीएल, कोयला खदान, रेलवे, आर्डनेंस फ़ैक्ट्री, बैंक, एलआईसी समेत 46 सार्वजनिक उपक्रमों को बेच डालने का फरमान जारी कर दिया।
खुद सरकारी आंकड़े बताते हैं कि लॉकडाउन के दौरान क़रीब 12 करोड़ नौकरियां गईं, ज्यादातर असंगठित क्षेत्र में। मोदी सरकार की शह पर राज्य सरकारों ने अपने यहां श्रम क़ानून को तीन तीन साल के रद्द कर दिया।
ऐसे में असंगठित क्षेत्र बिल्कुल तबाह हो गया। छोटे कारोबारी, व्यापारी, रेहड़ी पटरी दुकानदार बेजार हो गए।
और इस बीच जब पूरे देश में कोरोना के मामले 20 लाख पार हो चुके हैं और क़रीब 50 हज़ार मौतें हो गई हैं, राम मंदिर के भूमिपूजन के लिए भी पांच अगस्त का चुनाव किया गया।
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फ़ासिस्ट सत्ता स्थापित करने की कोशिश
कुछ आलोचकों का कहना है कि फ़ासिस्ट सत्ताओं की तर्ज पर मोदी सरकार पांच अगस्त को एक नई सत्ता का प्रतीक बनाना चाहती है और बताना चाहती है कि अब ये पुराना भारत नहीं, नया भारत है जहां बहुसंख्यक राजनीति की दबंगई चलेगी और इसकी लहर पर सवार होकर बीजेपी-आरएसएस सरकार जो चाहे कर गुजरेगी।
इतिहास की बात है कि जब ग्रीस में फ़ासिस्ट सत्ता का उभार हुआ तो वहां तानाशाह मेटाक्सास की अगुवाई में जो शासन शुरू हुआ उसे ‘4 अगस्त हुकूमत’ का नाम दिया, जो 1936 से 1941 तक चली।
आलोचकों का आरोप है कि मोदी सरकार फासिस्ट सत्ता की तर्ज पर पूरे देश में संवैधानिक तख़्तापलट करने की कोशिश में है और इसका प्रतीक दिन पांच अगस्त बनाया जा रहा है।
लेकिन उसकी राह का सबसे बड़ा रोड़ा अभी भी मज़दूर वर्ग है।
मज़दूर वर्ग ने द्वितीय विश्वयुद्ध में भी फ़ासिस्ट सत्ता को ईंट का जवाब पत्थर से दिया था और अब भी उसी में ही क्षमता है कि वो ऐसे किसी तानाशाही सत्ता को अपने पंजों से रोक ले और एक नई सत्ता स्थापित करे जो मज़दूर वर्ग के हित में हो।
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