UN Women Report: 2030 तक भी वेतन सम्बन्धी लैंगिक बराबरी हासिल नहीं कर सकेगा भारत!
By शशिकला सिंह
भारत में महिलाओं और पुरूषों के बीच वेतन सम्बन्धी गैरबराबरी और विषमता बहुत ज्यादा देखी जा रही है। वर्तमान में महिलाओं को पुरूषों के मुकाबले बहुत काम वेतन मिलता है।
हाल ही में प्रकाशित यूएन वीमेन (संयुक्त राष्ट्र का महिलाओं के लिए संगठन) की ताज़ा रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया की तरह ही भारत भी साल 2030 तक लैंगिक बराबरी हासिल करने के रास्ते पर नहीं है।
बीबीसी ने यूएन वीमेन के इस रिपोर्ट पर एक विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित की है। यूएन वीमेन के अनुसार दो तिहाई देश कानून में सुधार कर महिलाओं के वेतन को बेहतर बनाया जा सकता हैं।
वहीं इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि भारत में ऐसा कोई प्रभावी क़ानून नहीं है जो कार्यस्थल पर बराबर कार्य के लिए बराबर वेतन का अधिकार देता हो।
वर्ल्ड इकोनॉमिक फ़ोरम की ताज़ा जेंडर गैप रिपोर्ट 2022 के मुताबिक में भारत 146 देशों में 135वें नंबर पर है।
जारी रिपोर्ट में भारत में मातृत्व का इंडिकेटर में भारत तो सातवां स्थान दिया गया है जो पाकिस्तान के एक स्थान ऊपर है। रिपोर्ट में कार्यस्थल पर मांओं को होने वाली दिक्कतों का भी जिक्र किया गया है।
इसमें कहा गया है कि बच्चा होने के बाद उनके लालनपालन करने के कारण महिलाओं की कार्य क्षमता को प्रभावित करता है। जिसके वजह से वह कार्यस्थल पर ज्यादा दिनों तक सक्रिए नहीं रह पाती हैं।
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Any job is a woman's job, and women deserve equality in pay, laws and benefits in every sector!
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— UN Women (@UN_Women) December 17, 2022
ऐसा तब है जब भारत में कामकाजी महिलाओं के लिए एक बेहतर कानून मौजूद है। मातृत्व लाभ अधिनियम के मुताबिक मां को 182 दिनों के सवेतन मातृत्व अवकाश का अधिकार है वहीं पिता के लिए सवेतन छुट्टी का कोई कानून नहीं है।
यूएन वीमेन द्वारा जारी रिपोर्ट में इस बात पर भी ध्यान दिया गया है कि क्या भारतीय महिलाऐं पुरुषों के मुकाबले व्यवसाय चला सकती हैं।
इस विषय पर रिपोर्ट में कहा गया है कि व्यापार और व्यवसाय के मामले में भारतीय महिलाओं का स्थान दुनिया में पांचवा साथ है वहीं इस पांचवे स्थान पर श्रीलंका,चीन और जापान भी हैं।
रिपोर्ट के मुताबिक ऐसा इसलिए है क्योंकि भारत का क़ानून इन मामलों में महिलाओं के साथ भेदभाव नहीं करता है। वही भारतीय क़ानून में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो लैंगिक आधार पर क़र्ज़ लेने में भेदभाव को रोकता हो।
रिपोर्ट में भारतीय महिलाओं के एसटीईएम यानी साइंस, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग और मैथेमेटिक्स के क्षेत्र में मौजूदगी के आंकड़े को भी जारी किया है। भारत में महिला एसटीईएम स्नातकों की दर 42.7 फीसदी है जो अधिकतर विकसित देशों से भी ज़्यादा है।
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वर्ल्ड बैंक के डेटा के मुताबिक़ प्रबंधन और नेतृत्व की भूमिका के मामले में अमरीकी महिलाओं का साथ पहला है वहीं भारतीय महिलाएं इस श्रेणी में छठे स्थान पर हैं। इस मामले में श्रीलंका भी भारत से बेहतर साथ पर है।
भारत एक पुरुष प्रधान समाज है और वर्तमान सरकार का मनुवादी विचारधारा के प्रति झुकाव दिखता है। जिसका सीधा सीधा प्रभाव देश में कामकाजी महिलाओं पर दिखाई दे रहा है। लेकिन यह असर केवल कार्यक्षेत्र में ही नहीं राजनीतिक क्षेत्र की महिलाओं पर भी दिखाई देता है।
आज भी महिलाएं संसद में 33 फीसदी आरक्षण की लड़ाई लड़ रही हैं। इस संघर्ष के दौरान संसद में महिलाओं के ऊपर भद्दी टिप्पणियां तक की गयी हैं।
इतना ही नहीं भारत में दिहाड़ी महिला मज़दूरों की स्थिति और भी ज्यादा ख़राब है। जिसको लेकर वर्कर्स यूनिटी लगातार रिपोर्ट करता रहता है।
बीते 13 नवम्बर को मासा रैली के शामिल हुए बिहार की मनरेगा ठेका मज़दूरों के ग्राउंड रिपोर्ट के दौरान वर्कर्स यूनिटी ने पाया था कि महिला मज़दूरों को पुरुष मज़दूरों की तुलना में कम वेतन दिया जाता है। महिला सुरक्षा के दावों की लगातार धज्जियां उड़ाई जा रही हैं।
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वहीं देश में बीड़ी निर्माण, चाय बागानों और सिलाई के क्षेत्र में महिला मज़दूरों का सब से बड़ा योगदान हैं। इस सभी क्षेत्रों में भी वेतन के नाम पर महिलाओं के साथ वेतन सम्बन्धी भेदभाव किया जाता है।
भारत में महिला दिहाड़ी मज़दूरों केवल वेतन सम्बन्धी समयस्यों से ही नहीं मानसिक, शारीरिक और सामाजिक शोषण का भी शिकार हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण महाराष्ट्र के बीड ज़िले का हैं, जहां खेतिहर महिला मज़दूरों के बंधुआ और गुलामी से भी बदतर हालात है।
वर्कर्स यूनिटी द्वारा प्रकशित रिपोर्ट के अनुसार मराठवाड़ा के बीड ज़िले में ठेकेदार, पैसे बचाने और छुट्टी न देने के लिए खेतिहर महिला मज़दूरों के गर्भाशय को ही निकलवा देते हैं, जो कि बहुत अमानवीय कृत्य है।
गौरतलब है कि हाल ही में प्रगतिशील महिला संगठन द्वारा दिल्ली के औद्योगिक क्षेत्रों में कार्यरत महिला मजदूरों की स्थिति पर हाल ही में किए गए सर्वे के अनुसार, दिल्ली सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम वेतन आमतौर पर दिल्ली के मजदूरों को नहीं मिल रहा है, परंतु महिलाओं को उतना वेतन भी नहीं मिल रहा जो पुरुष मजदूरों को दिया जा रहा है।
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