स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर जब 19 मज़दूर बैठ गए फैक्ट्री गेट पर, मालिक को चुकानी पड़ी एक एक पाई
By सतवीर सिंह
लाल किले पर जिस रात प्रधानमंत्री के लाव लस्कर तंबू और शामियाने, सुरक्षा और बैरिकेटिंग में लगे थे, उसी समय यहां से 30 किलोमीटर दूर हरियाणा के औद्योगिक नगरी फरीदाबाद में क़रीब डेढ़ दर्जन प्रवासी मज़दूर अपनी मज़दूरी के लिए मालिक से धक्के खा रहे थे.
लेकिन मज़दूर पीछे नहीं हटे, मालिक के तमाम वादों को न मानते हुए वहीं धरने पर बैठ गए. आखिर 15 अगस्त को सुबह मालिक को आकर इन मज़दूरों की मेहनत की एक एक पाई चुकानी पड़ी.
इन मज़दूरों के साथ क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा, फरीदाबाद के कार्यकर्ताओं ने बढ़ चढ़ कर हौसला दिया.
ये फ़ैक्ट्री है इंदरजीत चोपड़ा और विवेक चोपड़ा के मालिकाने की ‘मार्शल ऑटो प्रोडक्ट्स प्रा लि, प्लॉट न. 390-393, सेक्टर 24, फ़रीदाबाद में.
यहां ऑटो पार्ट्स बनते हैं. इस फैक्ट्री के गेट के बाहर, स्वतंत्रा दिवस से पहली रात वही, तक़लीफ़देह नज़ारा था जो अब, फ़रीदाबाद में आए दिन नज़र आने लगा है.
मोर्चा के अगुवा कार्यकर्ता नरेश कुमार ने बताया कि फैक्ट्री में कुल 150 मज़दूर काम करते हैं. पिछले महीने, मालिक ने, उनमें से, 19 मज़दूरों; दिलीप राजपूत, राहुल कुमार, दीपक कुमार, विशाल यादव, रोशन कुमार, आशीष ठाकुर, अभिषेक सिंह, विनय कुमार, गोविन्द कुमार, अजीत कुमार, अर्जुन कुमार, विनय कुमार सीनियर, बजरंगी यादव, सनोज कुमार, संदीप कुमार, नितीश कुमार, धर्मेन्द्र शाह, अशोक राय, बालाजी यादव; को काम से निकाल दिया.
उन्हें बोला गया, ‘आपका पूरा पेमेंट 14 अगस्त को मिल जाएगा’. 14 अगस्त को जब, ये मज़दूर अपने पैसे मांगने पहुंचे, तो उन्हें, मालिकों की फ़ितरत के अनुसार, टरकाया जाने लगा.
मज़दूरों की बक़ाया राशि 3 से 5 हज़ार के बीच थी, जिसे उसी वक़्त दे दिया जाना था, जब उन्हें काम से निकाला गया था, क्योंकि असंगठित क्षेत्र के ऐसे अधिकतर मज़दूर, जिन्हें कोई भी श्रम अधिकार हांसिल नहीं, काम से निकाले जाने के बाद, अपने गांव चले जाते हैं.
गाँव में छोटे से ज़मीन के टुकड़े से गुज़ारा नहीं होता, इसलिए शहर की ओर निकल पड़ते हैं. शहरों में किसी फैक्ट्री में कुछ काम मिल भी गया, तो हर रोज़ ज़िल्लत झेलनी पड़ती है. इसलिए अपना गांव याद आने लगता है.
गाँव और शहर के बीच झूलते रहना ही उनकी जिंदगी बन गई है. वैसे भी, अगर 3 हज़ार की वसूली के लिए मज़दूर को 15 दिन के बाद बुलाया जा रहा है, तो इतना पैसा तो, शहर में बैठकर इंतज़ार करने में ही खर्च हो जाता है. शातिर मालिक, ये बात जानते हैं कि कई मज़दूर अपने खून-पसीने की कमाई को छोड़कर अपने गाँव लौट जाएंगे, और फिर कभी भी वह पैसा मांगने वापस नहीं आएंगे.
मज़दूरों ने, इसीलिए, टरकने से मना कर दिया, और अपना पैसा लेने पर अड़ गए. उनकी इस ‘जुर्रत’ से मालिक इंदरजीत चोपड़ा भड़क गए. ‘तुम्हारी ये जुर्रत’, कहकर वे मज़दूरों को दुत्कारने लगे, और गेट के बाहर खदेड़ने लगे. दो मज़दूरों ने इस ज़िल्लत का विरोध किया तो इंदरजीत चोपड़ा ने अपनी पेंट की बेल्ट निकाल ली और मज़दूरों के कान उमेठते हुए, उन्हें गेट से बाहर धकेल आए. गुस्से में तिलमिलाए मज़दूर, गेट पर आक्रोश प्रदर्शित करते रहे. मालिक, शाम को, फैक्ट्री बंद कर, अपने घर चला गया.
खाली हाथ घर वापस ना जाने पर दृढ मज़दूरों ने, रात 8.30 बजे, क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा के अध्यक्ष, कॉमरेड नरेश से संपर्क किया. वे तुरंत कुछ साथियों के साथ फैक्ट्री पहुँचे और मज़दूरों से पूछा, वे क्या चाहते हैं? वे एक स्वर में बोले, ‘कुछ भी हो जाए, हम अपने पैसे लेकर ही वापस जाएँगे, क्योंकि हममें से अधिकतर तो यहीं से, अपने गाँव की रेलगाड़ी पकड़ने, सीधे रेलवे स्टेशन जाएँगे’. गेट के बाहर मज़दूरों का धरना शुरू हो गया. पुलिस को सूचित कर, रात में वहीं खाना बनाने और सोने की व्यवस्था कर ली गई. हमारी चार महिला साथियों, कामरेड्स रिम्पी, वीनू, कविता और रेखा का उल्लेख होना, यहाँ बहुत ज़रूरी है, जिन्होंने अपने घर से गैस, बर्तन और अन्य खाद्य सामग्री की व्यवस्था की, खाना बनाया और रात भर, आंदोलनकारियों मज़दूरों का साथ दे रही टीम के साथ, धरना स्थल पर ही मौजूद रहीं.
रात लगभग 12 बजे, एक गाड़ी में, सरदार कुलजिंदर सिंह पहुंचे और बोले कि वे फैक्ट्री मालिक के कानूनी सलाहकार हैं. वे मज़दूरों को ज्ञान देते रहे, ‘मालिक और मज़दूर तो परिवार की तरह होते हैं. कभी राज़ी- कभी नाराज़ी तो चलती रहती है. कभी-कभी घर में पैसे नहीं होते, तो इंतज़ार करना पड़ता है. है कि नहीं? आप 16 ता को आ जाइये, निश्चित पैसे मिल जाएँगे’. मज़दूर समझ ही चुके थे कि ये कैसा परिवार है!!! जब मज़दूरों ने टरकने से मना कर दिया और कुलजिंदर सिंह घर जाने लगे, तो मज़दूरों ने, उन की गाड़ी को घेर लिया और बोले, ‘हम तो परिवार वाले हैं, आप अकेले किधर चले. खाना खाइए और आज, एक सुखी परिवार की तरह, यहीं हमारे साथ, इकट्ठे रात गुजारिये”. मज़दूरों ने उन्हें खाना भी खिलाया.
देर रात लगभग 3 बजे, कुलजिंदर सिंह के दो भाई, पुलिस बल के साथ, अपने भाई को छुड़ाने, वहां पहुंचे. पुलिस द्वारा भरोसा दिलाए जाने के बाद कि 15 अगस्त को 9 बजे से पहले, उनके सारे बक़ाया पैसे का भुगतान हो जाएगा, कुलजिंदर सिंह और उनके दोनों भाईयों को मज़दूरों ने विदा किया. 15 अगस्त को सुबह 8.30 बजे, जब मालिक इंदरजीत चोपड़ा, अपने खजांची के साथ फैक्ट्री पहुंचे तो उनके मुंह से, मज़दूरों के लिए प्यार की गंगा बह रही थी. अपने किए पर माफ़ी भी मांगी और सभी मज़दूरों की बक़ाया राशि का भुगतान किया.
मज़दूर संगठन क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा की मांग-
1) हम कई बार प्रदर्शन कर ज्ञापन दे चुके हैं कि फ़रीदाबाद में श्रम कानूनों की धज्जियाँ उड़ाई जा रही हैं. मालिकों को मज़दूरों का खून चूसने की आज़ादी मिली हुई है. इसे ही ‘व्यवसाय करने की सुगमता बोला जा रहा है जबकि ये घोर अन्याय है. परिस्थितियां बिस्फोटक बन चुकी हैं, कभी भी नियंत्रण से बाहर जा सकती हैं. सभी श्रम क़ानूनों का अनुपालन सुनिश्चित किया जाए. क़सूरवार मालिकों को दंडित किया जाए. हालात बिगड़े तो हरियाणा सरकार ज़िम्मेदार होगी.
2) मालिकों, उनके बाउंसर टाइप सुपरवाईज़रों, ठेकेदारों द्वारा मज़दूरों के साथ मारपीट, आम बात हो गई है. ये शर्मनाक हरक़तें, काम के दौरान भी ज़ारी रहती हैं. काम से निकालते वक़्त भी उन्हें अपमानित किया जाता है और जब मज़दूर अपने पैसे मांगते हैं, तब तो, मज़दूर उन्हें दुश्मन नज़र आते हैं और पूरा गिरोह उन पर टूट पड़ता है. ये ज़ुल्म-ओ-ज़बर, बरदास्त नहीं किया जा सकता. पुलिस और श्रम विभाग इस दमन-उत्पीड़न को गंभीरता से लें. मज़दूरों को, हाथ उठाने को विवश ना किया जाए. उनका धीरज जवाब दे चुका है. मेहनतकशों का हाथ बहुत करारा होता है. क्रोध से तिलमिलाए मज़दूरों का पलटवार बहुत कड़वा होगा. कृपया ध्यान दीजिए. ऐसी नौबत मत आने दीजिए.
3) जिस कारख़ाने में 100 से ज्यादा मज़दूर काम करते हैं, वहां मालिक, मज़दूर को अपनी मनमर्ज़ी से जब चाहे नहीं निकाल सकता. किसी भी परिस्थिति में यदि मज़दूर को काम से निकाला जा रहा है, तो बक़ाया राशि का भुगतान उसी वक़्त किया जाए. बाद में आकर पैसा लेने को कहा जा रहा है, तो मज़दूर के ठहरने-खाने की व्यवस्था मालिक करे.
4) पुलिस का व्यवहार चकित करता है. मालिक द्वारा मज़दूरों को पीटने, अपमानित करने की वारदात के बाद भी, पुलिस की आवाज़, मालिक के प्रति शहद जैसी मीठी, मधुर, नरम-मुलायम ही बनी रहती है, ‘पैसे दे दे ना, भाई’!! हैरानी होती है कि क्या ये वही पुलिस है जिसकी आवाज़, ग़रीब मज़दूर से बोलते वक़्त, अचानक पत्थर जैसी रुखी और तल्ख़ हो जाती है. पुलिस जी, क़सूरवार के क़सूर पर फोकस कीजिए. क़ानून व्यवस्था को लागू करने का अपना फ़र्ज़ अदा कीजिए.
(लेखक क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा, फ़रीदाबाद के प्रमुख संयोजक हैं।)
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