‘द फ़ैक्ट्री’ फ़िल्म दिखाती है, श्रम क़ानूनों को कांग्रेस ने रद्दी बना दिया था, बीजेपी ने उसे बस जामा पहनाया है
By अजीत सैनी
मोदी सरकार ने भले ही अब जाकर यूनियन बनाने, हड़ताल पर जाने, मज़दूरों के सारे अधिकार छीनने वाले क़ानून बनाए हों लेकिन ये प्रैक्टिस में सालों पहले ही अपनाए जा चुके थे।
अगर फ़िल्म ‘द फ़ैक्ट्री’ आप देखेंगे तो पाएंगे कि 2012 में यूनियन बनाने के अधिकार की लड़ाई लड़ने वाले मारुति वर्करों के साथ जो बर्बरता पूर्वक दमन किया गया, वो किसी भी तत्कालीन मज़दूर क़ानून में नहीं था।
समान काम, समान वेतन, परमानेंट करने और यूनियन बनाने की मांग को लेकर हुए संघर्ष में पुलिस के दमन का नतीजा ये हुआ कि मज़दूर उग्र हो गए और फ़ैक्ट्री में आगजनी हुई, जिसमें एक अधिकारी की मौत हो गई। उसके बाद क़रीब ढाई हज़ार वर्करों को निकाल दिया गया। क़रीब डेढ सौ वर्करों को जेल में डाल दिया गया। ये मौजूदा मज़दूर विरोधी श्रम कोडों के बनने के आठ साल पहले की बातें हैं।
कोरोना काल के दौरान सितंबर 2020 के संसद सत्र में मोदी सरकार ने मजदूरों व किसानों से संबंधित महत्वपूर्ण बिल पास किए। इन बिलों को संसद के दोनों सदनों से पारित कर राष्ट्रपति द्वारा हस्ताक्षर कर कानून भी बना दिया गया है।
मोदी सरकार ने 44 केंद्रीय श्रम कानूनों को सरलीकरण के नाम पर खत्म कर चार श्रम संहिताओं (लेबर कोड) में समेट दिया है, यह चार श्रम संहिताए घोर मजदूर विरोधी हैं।
श्रम संहिता में मजदूरों के हड़ताल करने के संवैधानिक अधिकार को गैरकानूनी हड़ताल घोषित करने का रास्ता साफ कर दिया गया है।
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द फ़ैक्ट्री
साथ ही गैर कानूनी घोषित हड़ताल में शामिल मजदूरों का समर्थन करने वाले लोगों पर 50,000 से लेकर 2 लाख रुपये तक के भारी जुर्माने का प्रावधान किया गया है।
इसके साथ यह संहिता गैरकानूनी घोषित हड़ताल में शामिल मजदूरों को व उनका समर्थन करने वालों को छह माह की सजा का भी प्रावधान करती है।
यह मजदूर आंदोलन का अपराधीकरण करने की साजिश है। इसके अलावा यह संहिता मालिकों को तालाबंदी, छंटनी व स्थाई काम पर अस्थाई नियुक्तियों को कानूनी अधिकार भी प्रदान करती है।
इन घोर मजदूर विरोधी श्रम संहिताओं के खिलाफ जुझारू मजदूर आंदोलन का अभाव देखा जा रहा है।
इससे पहले भी शोषण उत्पीड़न के ख़िलाफ़ आवाज उठाना यूनियन गठित करना अपराध माना जाता रहा है। मारुति मानेसर में यूनियन गठित करने को लेकर चले संघर्ष के कारण वर्ष 2012 में लगभग 148 मजदूरों को जेल में ठूंस दिया गया था।
पांच साल बाद मार्च 2017 में आए कोर्ट के फैसले में लगभग 117 मारुति मजदूरों को निर्दोष साबित कर जेल से बरी किया गया। लगभग 18 लोगों को 5 वर्ष की सजा दी गई थी। 13 लोगों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी।
उन 13 लोगों में से 12 लोग यूनियन पदाधिकारी थे। इन 13 मजदूरों को सबूतों व गवाहों के आधार पर आजीवन कारावास की सजा नहीं सुनाई गई थी बल्कि मारुति जैसी फैक्ट्री में यूनियन बनाने की सजा दी गई थी।
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मज़दूर वर्गीय एकता की मिसाल
मारुति के मौजूदा चेयरमैन ने स्वयं कहा था कि यह वर्ग संघर्ष की लड़ाई थी। इन मजदूरों ने संगठित होकर शोषण के उत्पीड़न के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की थी।
फैक्ट्रियों में फैले स्थाई व अस्थाई भेद के खिलाफ अपनी लड़ाई की शुरुआत की थी। मारुति मजदूरों के इस संघर्ष ने फैक्ट्री में यूनियन का निर्माण किया।
मारुति मजदूरों के इस संघर्ष के ऊपर एक डाक्युमेंट्री “द फैक्ट्री” राहुल राय द्वारा बनाई गई है। यह डॉक्यूमेंट्री मारुति मजदूरों के यूनियन बनाने के पूरे संघर्ष को दिखाती है।
यह डॉक्यूमेंट्री मारुति मजदूरों के संघर्ष का एक सजीव वर्णन प्रस्तुत करती है। 18 जुलाई 2012 के घटनाक्रम के बाद किस कदर राज सस्ता मजदूर आंदोलन का दमन करती है, जिससे कि अन्य मजदूरों में भी डर का माहौल पैदा हो।
संघर्ष ने दिखा दिया कि मजदूर आंदोलन को लाठियों गोलियों से नहीं रोका जा सकता।
मारुति मजदूरों के आंदोलन ने वर्ग संघर्ष की एक अच्छी मिशाल पेश की। स्थाई, अस्थाई, ट्रेनिंग, अप्रेंटिस आदि मजदूरों की एकता के बिना संघर्ष सफल नहीं हो सकता। इस डॉक्यूमेंट्री को मजदूरों के बीच में प्रचारित प्रसारित करना चाहिए।
इसके ऊपर चर्चा करनी चाहिए। इस डॉक्युमेंट्री की व्यापक स्क्रीनिंग फैक्ट्री मजदूरों के बीच होनी चाहिये ताकि मजदूर अपने आंदोलन से सबक निकाल भविष्य की लड़ाई को राजनीतिक तरीके से लड़ा जा सके।
यह डॉक्युमेंट्री सत्ता के वर्गीय चरित्र को भी उजागर करती है।
इस कठिन दौर में यह जरूरत बन गई है कि डॉक्युमेंट्री में संघर्ष को फिर से जीवित कर एक नए मजदूर आंदोलन का निर्माण कर हमेशा हमेशा के लिए शोषण दमन उत्पीड़न को समाप्त कर दिया जाए।
(लेखक मारुति की कंपोनेंट मेकर कंपनी बेलसोनिका यूनियन की बॉडी के प्रतिनिधि हैं।)
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