शहरी मज़दूरों की ऐतिहासिक पेंटिंग के पीछे की कहानी
By Ashok Bhowmick
यूरोप में उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में कई ऐसे चित्रकार उभरे, जिन्होंने मज़दूरों की जिंदगी की आम घटनाओं का चित्रण किया।
चित्रकला में आम जनों के जीवन की सहज सरल घटनाओं के चित्रण की एक स्वतंत्र धारा ‘जॉनर’ पेंटिंग के रूप में विकसित हुई थी।
मज़दूरों के जीवन संघर्षों पर आधारित इस कला को हालाँकि कला इतिहासकारों ने ‘जॉनर’ पेंटिंग में ही शामिल माना है, लेकिन उन्नीसवीं सदी में विकसित इस ‘जनपक्षधर’ कला के पीछे मेहनतकशों के प्रति चित्रकारों की गहरी सहानुभूति थी।
हर मनुष्य को मनुष्य जैसा व्यवहार मिले और समाज के सभी वर्गों के बीच समानता हो, ऐसे विचारों ने न केवल आम लोगों को प्रभावित करना शुरू कर दिया था बल्कि चित्रकारों के बीच भी इसकी चर्चा जोरों पर थी।
चित्रकारों की मूल समस्या थी कि बगैर अपने चित्रों को ‘नारा’ या पोस्टर बनाए, उत्कृष्ट कला गुणों को बनाए रखते हुए चित्र में ‘करुणा’ और ‘प्रेम’ जैसे मूल्यों को चित्र का आधार कैसे बनाया जाए।
फ्रांसोआ मिले (1814-1875) गुस्ताव कोर्बे (1819-1877) जूल्स ब्रेटन (1827-1906) जैसे चित्रकारों के चित्रों ने सैकड़ों वर्षों से चली आ रही सिर्फ़ राजा-रानियों के सुख-दुःख, जय-पराजय की कहानियों से भरी ‘हिस्ट्री’ पेंटिंग की धारा के समानांतर जनता की अपनी कला से परिचय कराया था।
विश्व में जितने कला संग्रहालय हैं, उन्हें जनता ने नहीं बनाया है।
ये मूलतः राजाओं की गौरव और शौर्य गाथाओं के चित्रों को प्रदर्शित करने के उद्देश्य से शासकों द्वारा ही बनाये गए थे, लेकिन आज इन संग्रहालयों में जॉनर पेंटिंग की जनपक्षधर धारा के चित्र, यदि समान आदर के साथ प्रदर्शित हो रहे हैं तो यह जनता की एक बड़ी जीत है।
इसकी सबसे बड़ी वजह है कि चित्रकारों ने अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के साथ ही चित्र के कला गुणों के साथ किसी प्रकार का समझौता नहीं किया।
गुस्ताव काइबोट (1848-1894) अपने मूल सरोकारों में शायद जनपक्षधर नहीं थे, लेकिन उनके ‘फर्श घिसने वाले मजदूर’ को हम इस धारा के एक ऐतिहासिक चित्र के रूप में देखते हैं।
गुस्ताव काइबोट के पहले श्रमिकों पर बने अधिकांश चित्रों में ग्रामीण श्रमिकों को किसानी संदर्भों के साथ जोड़कर चित्रित किया गया था। शहरों में, अपनी जड़ों से कटे शहरी श्रमिकों पर किसी ने कोई चित्र नहीं बनाया था। इस मायने में ‘फर्श घिसने वाले मजदूर’, शहरी श्रमिकों पर बना पहला चित्र है।
‘फर्श घिसने वाले मजदूर’ शीर्षक चित्र में हम एक कमरे में तीन मजदूरों को लकड़ी से बने फर्श को सपाट करने के काम में मगन पाते हैं।
वे, फर्श को सपाट करने के लिए सबसे पहले फर्श के उभारों को पाटने के उद्देश्य से लोहे की पट्टी से फर्श पर समानान्तर पट्टियाँ बना रहें है ( आम तौर पर बढ़ई इसके लिए रंदे का इस्तेमाल करता है)।
चित्र में फर्श पर उकेरी गयी समांतर पट्टियाँ, चित्र का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है क्योंकि चित्र का परिप्रेक्ष्य या पर्सपेक्टिव इन्हीं पट्टियों के कारण है।
कमरे का प्रकाश चित्र का दूसरा महत्त्वपूर्ण पक्ष है। काँच के दरवाज़े पर नक्काशीदार ग्रिल (जाली) से होकर कमरे में आती रोशनी चित्र का एकमात्र प्रकाश स्रोत है जिसके कारण कमरे के भीतर विभिन्न तीव्रता की रोशनी है।
साथ ही जहाँ रोशनी कम है, वहाँ फर्श पर बनी पट्टियाँ ज्यादा स्पष्ट और उजली दिख रही हैं। यह चित्रकार द्वारा प्रकाश का एक बेहद सूक्ष्म अध्ययन है।
अपने-अपने कामों में तल्लीन इन शहरी मजदूरों की नंगी पीठ पर ठहरे प्रकाश को भी चित्रकार ने बखूबी चित्रण किया है। चित्र में अपने काम के प्रति श्रमिकों की ईमानदार लगन, इस चित्र को और अधिक सार्थक बनाती है।
कैनवास पर तेल रंग से 1875 में निर्मित यह चित्र, वर्तमान में फ्रांस के पेरिस शहर स्थित मिउसे डोरसे संग्रहालय में प्रदर्शित है।
(प्रभात ख़बर से साभार)
वर्कर्स यूनिटी को सपोर्ट करने के लिए सब्स्क्रिप्शन ज़रूर लें- यहां क्लिक करें
(वर्कर्स यूनिटी के फ़ेसबुक, ट्विटर और यूट्यूब को फॉलो कर सकते हैं। टेलीग्राम चैनल को सब्सक्राइब करने के लिए यहां क्लिक करें। मोबाइल पर सीधे और आसानी से पढ़ने के लिए ऐप डाउनलोड करें।)