एक फ़िल्म बताती है कि कैसे मज़दूरों ने अकेले दम पर खुद का अस्पताल खड़ा कर दिया
By संजय जोशी
2014 में भिलाई में रहने वाले और मजदूरों के बीच में काम करने वाले दस्तावेज़ी फ़िल्मकार अजय टी जी ने 53 मिनट लम्बी एक दस्तावेज़ी फ़िल्म बनाई। नाम था इसका ‘पहली आवाज़’। दूरदर्शन और भारत सरकार के प्रयास पीएसबीटी (पब्लिक सर्विस ब्रॉडकास्ट ट्रस्ट) द्वारा संयुक्त रूप से निर्मित पहली नज़र में एक साधारण दस्तावेज़ लगती है। एक अस्पताल के बारे में उससे जुड़े हुए लोगों के इंटरव्यू और अस्पताल की दिनचर्या की तस्वीरों का कोलाज़। लेकिन अगर आप ध्यान से यह फ़िल्म देखेंगे तब आपको इसके होने के महत्व के बारे में पता चलेगा और तब आप इसे महत्वपूर्ण मानते हुए इसके पीछे के विचार को खोजने की कोशिश करेंगे। क्योंकि किसी विचार की वजह से ही माइकल मूर द्वारा निर्मित दस्तावेज़ी फ़िल्म ‘सीको’ से हमें पता चलता है कि किस तरह एक गरीब अमरीकी मजदूर अपनी अंगुलियाँ कटने पर 12 हजार डालर में सिर्फ़ कानी अंगुली को ही बचा पाता है क्योंकि दूसरी अँगुलियों को बचाने के लिए उसके पास 40 हजार या 60 हजार डालर जैसी बड़ी राशि नहीं है।
तब यह जानना जरुरी है कि इस फ़िल्म का विचार क्या है?
असल में यह फ़िल्म शहीद अस्पताल के बारे में है जिसे छतीसगढ़ मुक्ति मोर्चा से जुड़े मजदूर साथियों ने बनाया था। इसलिए फ़िल्म का विचार असल में छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चे का स्वास्थ्य सम्बन्धी विचार ही है। इस विचार को 15 अगस्त 1981 की एक सार्वजनिक सभा में मजदूर नेता शंकर गुहा नियोगी द्वारा रखा गया। यह विचार एक पर्चे के रूप में सभा में वितरित भी किया गया था। इस पर्चे की शुरुआत इस तरह होती – “हम केवल पैसे के लिए नहीं, पर एक नया समाज और एक नयी व्यवस्था बनाने के लिए लड़ रहे हैं। इस नए समाज में पैसा और मुनाफा नहीं परन्तु इंसान की ज़िंदगी सबसे मूल्यवान समझी जाएगी। इस लड़ाई के अंतर्गत हम एक नयी स्वास्थ्य व्यवस्था भी तैयार करना चाहते हैं , जो इन नए विचारों पर ही आधारित होगी। बल्कि जब हम सबकी संगठित ताकत इस प्रयास और इस लड़ाई में लगेगी तब ही यह सफल हो सकता है। आओ, स्वास्थ्य के लिए संघर्ष करें।” (पृष्ठ संख्या 27 ‘बदलाव की राजनीति और संघर्ष निर्माण का दर्शन’ दूसरा संस्करण 2017, कमला सद्गोपाल पब्लिक ट्रस्ट, भोपाल)
अजय टी जी की दस्तावेज़ी फ़िल्म छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चे के इसी स्वप्न का दस्तावेज़ है। फ़िल्म की बहुत शुरुआत में ही मरीजों को लानी वाली जीप के पीछे 2 पंक्तियों में लिखा एक बेहद जरुरी वाक्य हमारा ध्यान खींचता है। यह वाक्य है – “मेहनतकशों के स्वास्थ्य के लिए मेहनतकशों का अपना कार्यक्रम।”
शहीद अस्पताल की जीप के पीछे लिखी दो पंक्तियाँ ही इस फ़िल्म की कहानी है, इस फ़िल्म की केन्द्रीय डोर जो पूरे तिरपन मिनट हमें जोड़े रहती है।
सबसे पहले इस यह शहीद अस्पताल दीखता कैसा है इससे ही बात शुरू करते हैं।
पहला दृश्य : यह अस्पताल का वार्ड है जहां बिस्तरों की कमी के कारण नीचे जमीन पर ही मरीज लेटे हुए हैं और इस अस्पताल के सबसे अनुभवी और पुराने चिकित्सक डॉ शैबल जाना खांटी छत्तीसगढ़ी में अपने मरीजों के साथ बेहद आत्मीय अंदाज़ में रोजाना का राउंड पूरा कर रहे हैं। चूंकि डॉ शैबल सिर्फ़ शहीद अस्पताल के डाक्टर नहीं बल्कि अपने मरीजों को उनके मोहल्ले और घर परिवार की निजता के साथ पहचानते हैं इसलिए रोजाना का हेल्थ राउंड होते –होते हलकी चुहल भी हो जाती है। वार्ड की दीवाल में ठुंकी कील अस्पताल में टंगे क्लैम्प का काम करती हैं जहाँ हर मरीज की रपट डाक्टर सहेजते जाते हैं।
दूसरा दृश्य: महिला वार्ड का दृश्य है जहाँ जमीन पर मरीजों और उनके परिजनों के साथ नर्स रेखा देव बहुत ही आत्मीय अंदाज में जच्चा के लिए पौष्टिक खुराक की जरुरत को समझा रही हैं। डॉ जाना के विपरीत रेखा यहीं के स्थानीय मजदूर परिवार की लड़की है जिसने वर्षों की ट्रेनिंग और शहीद अस्पताल के उसूलों को अपने जज्ब करते एक गहरी आत्मीयता हासिल की है।
हम फिर से अस्पताल के बनने की कहानी पर चलते हैं। इससे पहले डॉ शैबल जाना और डॉ बिनायक सेन के इंटरव्यू को मैं आपसे साझा करूं फ़िल्मकार अजय द्वारा शामिल किये गए एक शॉट पर ठहरकर चर्चा जरुरी है। यह शॉट है अस्पताल के नीव पत्थर का। इसमें जो लिखा है वह आपको शायद ही कहीं देखने को मिलेगा। इस पर लिखा है एक मजदूर और एक किसान साथी का नाम – श्री लाहर सिंह – रेंजिंग मजदूर, कोकान माइन्स और श्री हलाल खोर, किसान, ग्राम आडेझर। कमिश्नर- मंत्री शोभा विहीन यह पट्टी देखकर ही कहानी का सूत्र मिलना शुरू हो जाता है।
कैसे बना अस्पताल
डॉ शैबल जाना जो इस समय इस अस्पताल के सबसे पुराने डाक्टर हैं विस्तार से इस अस्पताल के बनने से पहले की कहानी बताते हैं। उनके अनुसार ‘ 1977 में दल्ली राजहरा, भिलाई में नया मजदूर संगठन बनने का माहौल बन रहा था क्योंकि भिलाई इस्पात प्लांट और पास की खदानों में काम करने वाले मजदूर बोनस की मांग को लेकर उस समय की मजदूर यूनियनों यानी इंटक और एटक के निर्णयों से सहमत नहीं थे तब उन्होंने शंकर गुहा नियोगी से संपर्क किया और एक नया संगठन बना– सी एम एस एस यानि छत्तीसगढ़ माइंस मजदूर संगठन। ‘
इस मजदूर संगठन को जो बात दूसरे संगठनों से अलगाती थी वो था अपनी ट्रेड यूनियन राजनीति के काम में शिक्षा, स्वास्थ्य और नशाबंदी जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों को गंभीरता से जगह देना। मजदूरों के स्वास्थ्य का ख्याल इस राजनीति का सबसे अहम पहलू था और इसी वजह से एक अपने अस्पताल की जरुरत को शिद्दत से महसूस किया गया।
सी एम एस एस के अध्यक्ष गणेश राम चौधरी के संतुलित इंटरव्यू के जरिये फ़िल्मकार ने संगठन की ही महिला साथी कुसुम बाई की जचगी में बीमारी और फिर न बच पा जाने की वजह से मजदूर संगठन के साथियों के बीच अपने अस्पताल के निर्माण की आतुरता को अच्छे से दर्शको को समझाने की कोशिश की है ।
अस्पताल के लेखाकार पुन्ना राम चौधरी, एक और पुराने डाक्टर आशीष कुमार कुंडू और नर्सों की इंचार्ज अल्पना जाना अस्पताल बनने की यात्रा को अलग–अलग हिस्सों में बयां करते हैं जिसे बहुत संजीदगी के साथ फ़िल्मकार ने बुना है। इस बुनावट से हिन्दुस्तानी श्रमिक आन्दोलन की एक बेहद प्रगतिशील तस्वीर हमारे सामने निर्मित होती है। इस तस्वीर में स्वास्थ्य आन्दोलन, प्राथमिकता सूची में सर्वोच्च वरीयता पर है। 3 जून 1983 को अस्पताल के उद्घाटन के शुरू होने के पहले सृजन और संघर्ष की एक लम्बी प्रक्रिया चलती रहती है।
पहले सफ़ाई को लेकर एक बड़ा आन्दोलन श्रमिक संघ ने किया और हज़ारों मजदूरों द्वारा इकठ्ठा किये गए कूड़े को भिलाई में स्टील प्लांट के ऑफिस के सामने डालकर मजदूरों के बेहतर जीवन को मुख्य मुद्दा बनाया, फिर इसी टीम ने बरसात के समय मजदूरों को हैजा से बचाने के लिए उनकी बस्ती में जाकर इसे प्रमुख मुद्दा बनाया।
अस्पताल के लिए पैसा कैसे आया?
चूंकि यह मजदूरों का अपना अस्पताल बन रहा था इसलिए भागीदारी भी बहुत जैविक थी। सबसे पहले मजदूरों ने अपने एक महीने के तमाम भत्ते अस्पताल के लिए दिए , फिर आपसी सहयोग कर एक गाड़ी खरीदी और उससे बोझा ढोकर पैसा कमाया। वर्षो तक मजदूरों की एक बड़ी टीम ने अपनी थकाने वाली नौकरी करने के बाद अस्पताल के लिए श्रम दिया। तमाम मजदूरों ने स्वास्थ्य के बहुत से कामों को सीखा। कोई वार्ड बॉय बना तो कोई फार्मेसी इंचार्ज तो कोई आपरेशन में सहायक। डॉ जाना कहते हैं कि ‘अगर मजदूरों ने इसे अपना अस्पताल समझकर भागीदारी न की होती तो अस्पताल आगे नहीं बढ़ता।’
यह अस्पताल इसलिए भी बना क्योंकि शंकर गुहा नियोगी ऐसे लगनशील विचारवान युवा डाक्टरों को अपने विचार से जोड़ने में सफल रहे। इसीलिए डॉ पुन्यब्रत गुन और डॉ शैबल जाना शुरुआत के समय में न्यूनतम संसाधनों से जुगाड़ कर इसे एक आधुनिक संस्थान बनाने में लगे रहे। इसी वजह से अपनी सफ़ेद पोशाक को उलट कर sterlize कर उसे वर्किंग गाउन बनाने के किस्से को किसी खीज के साथ नहीं बल्कि उपलब्धि की तरह बताते हैं। शायद भागीदारी ही वो वजह थी जिस कारण बहुत से लोगों ने शुरुआत में मुफ़्त में लेकिन पूरी जिम्मेवारी के साथ अपनी सेवाएं दीं । नर्स सुजाता सुखदेव गहरे आत्म संतोष के साथ बताती है की कैसे पहले बिना तनख्वाह लिए 12 -13 घन्टे की झाड़ू –पोछा लगाने की नौकरी करती थीं फिर 50 रूपये महीने के मिले फिर थोड़े दिन के बाद 100 रूपये और अब एक सम्मानित तनख्वाह के साथ नौकरी करती हैं।
अस्पताल में सबकी भागीदारी सबकी ज़िम्मेदारी
यह हिंदुस्तान का संभवत अकेला अस्पताल होगा जहाँ स्वास्थ्य में अशिक्षित सैकड़ों लोगों पर भरोसा कर उन्हें बढ़िया ट्रेनिंग दी गयी और एक ज़िम्मेदार स्वास्थ्यकर्मी में बदल दिया गया। शायद यह इसलिए भी संभव हुआ होगा क्योंकि ट्रेनिंग लेने वाले इसे अपना मानने के कारण किसी भी कीमत पर अपने को फ़ेल नहीं साबित करना चाहते थे। डॉ चंचला के ऑपरेशन करने के दौरान थक कर बेहोश होने पर ऑपरेशन किसी दूसरे अस्पताल से आये डाक्टर ने नहीं बल्कि यहीं से शिक्षित स्थानीय हेल्थ वर्करों ने पूरा किया। यह सीखना इसलिए संभव हुआ क्योंकि इस संस्थान की पूरी अवधारणा में किसी तरह का पदानुक्रम नहीं था । डॉ गुन बहुत गर्व से कहते हैं कि अभी भी हमारे यहाँ कोई CMO कोई MS या डायरेक्टर नहीं है। हम सब एक टीम है।
यह टीम वर्क एक सुचिंतित नीति के पालन करने के कारण संभव हुआ। डॉ गुन कहते हैं – “जैसे सपने का समाज हमने सोचा था उसमे जैसा अस्पताल होना चाहिए हमने वैसा ही बनाया।”
इसलिए शहीद अस्पताल के निर्णय लेने की कमेटी में डाक्टर भी मेंबर हैं और मजदूर भी। तभी इसकी जीप के पीछे लिखी पंक्तिया – “मेहनतकशों के स्वास्थ्य के लिए, मेहनतकशों का अपना कार्यक्रम” हमें चुभती नहीं बल्कि इससे कुछ सीखने की प्रेरणा देती हैं ।
फ़िल्म के एक हिस्से में डॉ बिनायक सेन का इसके मकसद बतलाये हुए यह कहना कि “हमने यह अस्पताल स्वास्थ्य के लोकतंत्रीकरण और तकनीक के मिथकीकरण के विरुद्ध शुरू किया। हम यह भी चाहते हैं कि मरीज इलाज के ट्रीटमेंट के पीछे वैज्ञानिक सोच क्या है यह भी जाने और यह हमारे मकसद में शुरू से शामिल था।”
डॉ गुन का यह विश्लेषण भी मानीखेज है कि यह अस्पताल चूंकि एक सामाजिक आन्दोलन से जुड़ा था इसलिए अब तक अपनी सार्थकता साबित कर रहा है।
फ़िल्म के आख़िरी में रखा गया लेखाकार पुन्ना राम चौधरी का यह कहना बहुत ख़ास है कि यह अस्पताल इसलिए अभी भी जिंदा है क्योंकि इसमें एक विचार की, एक विचारधारा की ज़िम्मेवारी है। वो आगे कहते है इसी वजह से मैं, डॉ जाना और तमाम लोग 24 घंटे बिना किसी शिकन के उपलब्ध रहते हैं इसी विचार की वजह से उन्हें उम्मीद है कि नए युवा डाक्टर और हेल्थकर्मी भी इससे जुड़ते रहेंगे।
यह दस्तावेज़ी फिल्म तेजी से ध्वस्त हो रहे हमारे अपने देश के स्वास्थ्य तंत्र के लिए एक मिसाल भी है।
यह मिसाल इसलिए भी उल्लेख किये जाने लायक है क्योंकि इन पक्तियों के लेखक ने जब कल शाम ( 26 अप्रैल 2020) इस लेख को लिखते हुए शहीद अस्पताल के सबसे पुराने मेम्बर डॉ शैबल जाना से बात की तो उन्होंने जो आकंड़े दिए वे उम्मीद की एक बड़ी रोशनी की तरह हैं। आज की तारीख़ में शहीद अस्पताल , दल्ली राजहरा, भिलाई के आंकड़े :
अस्पताल का पूरा खर्च : मजदूरों द्वारा दी जाने वाली फ़ीस से
ओपीडी में प्रतिदिन देखे जाने वाले मरीज : 200 से 250
प्रति बेड की फ़ीस : 10 रूपये
नयी पर्ची की फ़ीस : 20 रूपये
कुल बेडों की संख्या : 130
ऑपरेशन थिएटर : 3
24 घंटे उपलब्ध डाक्टर : 12 ( इसके अतिरिक्त विशेष सेवाओं के लिए आने वाले परामर्श डाक्टर )
पैरा मेडिको की संख्या : 150
शायद यही वजह है कि फ़िल्म ख़त्म होते –होते लॉन्ग शॉट में दिखती शहीद अस्पताल की सामान्य इमारत मामूली नहीं बल्कि गैर मामूली दिखाई देती है।
(इस लेख की तस्वीरें अजय टी जी के सौजन्य से। मीडिया विजिल से साभार)
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