बांग्ला फ़िल्में: थर्ड वर्ल्ड सिनेमा, समानांतर सिनेमा और सामाजिक आन्दोलन का प्रभाव – Part-3
By मनीष आज़ाद
जैसे राजनीति में बांग्ला ने एक दिशा दिखाई, वैसे ही सिनेमा में भी इसने दिशा दिखाई। हम सभी मानते हैं कि 1955 में सत्यजीत रे की ‘पाथेर पांचाली’ ने भारत में समानान्तर सिनेमा की नींव रख दी।
हालाँकि 1952 में ही ऋत्विक घटक ने ‘नागरिक’ बना ली थी। लेकिन उस वक़्त वह रिलीज़ नहीं हो पाई।
सत्यजीत रे ने अपने एक इंटरव्यू में कहीं कहा है कि यदि ‘नागरिक’ 52 में रिलीज़ हो जाती तो यह ‘न्यू वेव सिनेमा’ की पहली फ़िल्म होती।
अब यदि हम छलांग लगा कर 70 के दशक में आयें तो तीन बड़े नाम हैं – ‘सत्यजीत रे’, ‘मृणाल सेन’ और ‘ऋत्विक घटक’। सत्यजीत रे की जो तीन फ़िल्में नक्सल आन्दोलन से प्रभावित मानी जाती हैं, वे हैं- ‘प्रतिद्वंदी’, ’सीमाबद्ध’ और ‘जन अरन्य’।
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सत्यजीत रे
यदि आप सत्यजीत रे की पुरानी फ़िल्मों को देखेंगे, मसलन ‘पाथेर पांचाली’, ‘अपूर संसार’ आदि तो आप पाएंगे कि सत्यजीत रे की फ़िल्में राजनीतिक तौर पर ज़्यादा मुखर नहीं होती, जैसे मृणाल सेन की फ़िल्में होती है।
यह आन्दोलन का ही प्रभाव था कि सत्यजीत रे जैसे फ़िल्मकार ने भी इस दौर में अपेक्षाकृत मुखर फ़िल्में बनाई। ‘प्रतिद्वंदी’ में जो मुख्य कलाकार है, वह बेरोज़गार है।
जब वह एक साक्षात्कार के लिए जाता है तो साक्षात्कार लेने वाला उससे पूछता है कि 60 के दशक की कोई सबसे महत्वपूर्ण बात बताइये। बेरोजगार नौजवान बोलता है कि 60 के दशक की सबसे महत्वपूर्ण बात है ‘वियतनाम युद्ध’।
इस पर साक्षात्कार लेने वाला व्यक्ति चौक कर बोलता है कि इसी दशक में तो इन्सान चाँद पर गया है, तो क्या चाँद पर जाना बड़ी बात नहीं है।
नौजवान उत्तर देता है – ‘चाँद पर जाना अपेक्षित था क्योंकि तकनीक का विकास इस तरह से हो रहा था, लेकिन वियतनाम की जनता ने जो कर दिखाया, यानी साधारण जनता ने जो असाधारण काम कर दिखाया है, वह अप्रत्याशित था’।
ज़ाहिर सी बात है कि इस जवाब के बाद नौजवान को नौकरी नहीं मिली। यह संवाद उस समय के बंगाल के मूड को दिखाता है।
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ऋत्विक घटक
दूसरा बड़ा नाम आता है ‘ऋत्विक घटक’ का। ऋत्विक घटक की फ़िल्म ‘जुक्ति, तर्को, गप्पो’ (रीज़न, डिबेट एंड स्टोरी) में नक्सल आन्दोलन के बारे में आपको उनका कमेंट मिलेगा। ऋत्विक घटक ने इसमें खुद भी अभिनय किया है।
फ़िल्म में ऋत्विक घटक कई लोगों से मिलते हैं। किसान से मिलते हैं, मजदूर से मिलते हैं। उनसे बात करते जाते हैं। इस प्रक्रिया में आपको उस समाज और उस समय का एक चित्र मिलेगा और उस पर ऋत्विक घटक की प्रतिक्रिया मिलेगी। रास्ते में जंगल से गुजरते हुए उन्हें एक गुरिल्ला नक्सली मिलता है।
उससे बात होती है, तो ऋत्विक घटक उससे कहते हैं- ‘तुम एक ही समय पर सफल भी हो और असफ़ल भी’ (you are successful and unsucessful at the same time)। उस समय के नक्सल आन्दोलन पर यह बहुत ही अर्थपूर्ण टिप्पणी थी।
इसके अलावा ऋत्विक घटक ने जो फ़िल्में बनाई हैं उसमे ‘मेघे ढाके तारा’, और ‘सुवर्ण रेखा’ बेहतरीन फ़िल्म है। ऋत्विक घटक जैसे फ़िल्मकार फॉर्म में भी कई चीज़ें तोड़ते हैं।
जैसे ‘सुवर्णरेखा’ में घटक ने जानबूझ कर सुबह के समय गाया जाने वाला राग दोपहर में दर्शाया है। इससे एक खास तरह का प्रभाव पैदा होता है, जो कहानी को अपनी तरह से धक्का देते हुए आगे बढ़ाता है।
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मृणाल सेन
इसके अलावा इस दौर के जो सबसे मुखर राजनीतिक फ़िल्मकार हैं, वह निश्चित ही ‘मृणाल सेन’ हैं। उनकी triology (‘कलकत्ता 71’, ‘इंटरव्यू’, और ‘पदातिक’) सीधे सीधे नक्सल आन्दोलन की पृष्ठभूमि पर है।
‘इंटरव्यू’ फ़िल्म में बेरोज़गार युवक को साक्षात्कार के लिए जाना है। नौजवान काफ़ी बेचैन और डरा हुआ है। वह जानता है कि साक्षात्कार आपके चयन के लिए नहीं होता है। जैसे हमारी परीक्षा प्रणाली आपको पास करने के लिए नहीं है।
जैसा कि प्रसिद्ध शिक्षाविद ‘अनिल सदगोपाल’ बताते हैं कि हमारी परीक्षा प्रणाली एक छलनी है, जिसका मुख्य काम लोगों को फेल करना या छांटना होता है। फ़िल्म में उस नौजवान को साक्षात्कार के लिए पैंट शर्ट चाहिए। लेकिन वह तो बंगाली बाबू है, वह परंपरागत ड्रेस धोती-कुरता में रहता है।
वह बहुत प्रयास करता है, यहां वहां से उधार लेता है, लेकिन उसे पैंट-शर्ट नहीं मिल पाता। एक कपड़े के शो-रूम के सामने से जब वह गुज़रता है, तो वह देखता है कि दुकान के सामने जो पुतला रखा है, उसने पैंट-शर्ट पहना हुआ है।
उसके दिमाग में तुरंत स्ट्राइक करता है कि मैं इसका कपड़ा चुरा लूँ। यहां मृणाल सेन ने जो दिखाया है, वह एक तरह का ‘कल्चरल टसल’ है। मतलब उस नौजवान की अपनी जो सांस्कृतिक जड़े हैं, उन जड़ों से कटने के लिए उसको बाध्य किया जा रहा है।
यहां वह बुत विदेशी संस्कृति का प्रतीक बन जाता है। जिसमें वास्तव में कोई जीवन नहीं है। कोई जीवन्तता नहीं है। लेकिन वह प्रभावी (dominating) है।
’कलकत्ता 71’ में मृणाल सेन ने उस वक़्त वहां जितने भी वर्ग थे, उनके अंदर क्या हलचल थी, इसे अपना विषय बनाया है। उनकी ‘पदातिक’ फ़िल्म में सिम्मी ग्रेवाल ने काम किया है।
फ़िल्म में पुलिस से बचकर भागा हुआ एक नक्सल नौजवान है। किसी सम्बन्ध के कारण से वह सिम्मी ग्रेवाल के घर में आकर रहता है। वहां भी एक ‘कल्चरल टसल’ होता है। इसमे ‘न्यूज़रील’ का बहुत अच्छा इस्तेमाल किया गया है। बीच-बीच में आपको भ्रम होगा कि आप डाक्यूमेंट्री देख रहे हैं।
70 के बाद इन राजनीतिक फ़िल्मकारों के यहाँ ‘फिक्शन’ और ‘डाक्यूमेंट्री’ का गैप कम हुआ है। यह भी नए दौर के प्रभाव के ही कारण है।
मृणाल सेन की एक और बहुत महत्वपूर्ण फ़िल्म है- ‘अकालेर संधाने’ (In Search of Famine)।
यह फ़िल्म उन्होंने 1980 में बनाई थी। फ़िल्म में एक ‘फ़िल्म यूनिट’ है। ये यूनिट 1942 के अकाल पर एक फ़िल्म बना रही है। इसी उद्देश्य से वह यूनिट बंगाल के ही एक गांव में जाती है। जब वे ‘क्लाइमेक्स’ शूट कर रहे होते हैं, जहाँ एक बच्चे के भूख से मरने को फिल्माया जा रहा था, तो उसी गाँव की एक ग़रीब महिला जो भीड़ में खड़ी शूटिंग देख रही है, अचानक चिल्ला उठती है, क्योंकि उसे अपनी वर्तमान समय की भुखमरी याद आ जाती है कि कहीं मेरा बच्चा भी भूख से न मर जाये। यानी उसकी भी स्थिति वही है जो 1942 में बंगाल की थी।
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बंगाली सिनेमा का हिंदी फ़िल्मों से रिश्ता
यानी एक तरह की निरन्तरता है। यह ‘फ़िल्म के अंदर फ़िल्म’ के माध्यम से एक तरह का ‘एलियनेशन इफ़ेक्ट’ (ब्रेख्त) भी पैदा करती है। यह आपको झकझोर कर रख देती है।
आप बहुत कुछ सोचने पर बाध्य हो जाते है। आप 1942 के अकाल पर फ़िल्म बनाने आये हैं और बंगाल के गाँव में यह अभी भी अतीत नहीं हुआ है।
इसके अलावा ‘गौतम घोष’ एक खास फ़िल्मकार हैं। इन्होने हिंदी में एक महत्वपूर्ण फ़िल्म ‘पार’ बनाई। बंगाली फ़िल्मकारों ने बहुत सारी फ़िल्में हिंदी में भी बनाई हैं।
इसलिए उनकी आवाजाही रहती है हिंदी में भी। सत्यजीत रे ने भी हिंदी में फ़िल्में बनाई ‘शतरंज के खिलाड़ी’। ‘गौतम घोष’ ने एक और फ़िल्म बांगला में ‘अन्तर्जली यात्रा’ बनाई। यह ब्राह्मण ‘पोलिगमी’ के बारे में है।
साल 1989 में ‘तपन सिन्हा’ ने ‘एक डॉक्टर की मौत’ बनाई। ‘अपर्णा सेन’ एक बड़ा नाम है। उन्होंने ‘36 चौरंगी लेन’ 1984 में बनायी थी। ‘बुद्धदेव दास गुप्ता’ ने एक बेहतरीन फ़िल्म ‘बाघबहादुर’ बनाई।
‘पवन मल्होत्रा’ द्वारा अभिनीत यह फ़िल्म 1989 में आई थी। बुद्धदेव दास गुप्ता ने ही ‘दुरत्व’ (Dooratwa) भी बनाई। यहां बैकग्राउंड है नक्सलवाद का। एक नक्सली और एक महिला के रिश्ते के बीच के तनाव पर फ़िल्म है।
जारी…
(लेखक प्रगतिशील फ़िल्मों पर लिखते रहे हैं। विश्व सिनेमा, समानांतर सिनेमा और सामाजिक आंदोलन के अंतरसंबंध को मोटा मोटी समझने के लिए लिखा गया ये एक लंबा लेख है जिसे पांच हिस्सो में बांटा गया है और शृंखला में प्रकाशित होगा। इस लेख की यह तीसरी कड़ी है। )
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