कैफ़ी आज़मीः जब मदरसे में यूनियन बनाने के लिए बैठ गए धरने पर
By आमिर मलिक
कुछ शायर अपनी ज़िन्दगी में एक युग का निर्माण कर गुज़रते हैं۔ बीसवीं सदी के महानतम शायरों में शुमार कैफ़ी आज़मी भी ख़ुद में एक ज़माना समोए थे।
14 जनवरी को उनका जन्मदिन होता है।
“मुद्दत के बाद उसने जो की लुत्फ़ की निगाह
जी ख़ुश तो हो गया मगर आंसू निकल पड़े”
ये मिसरा उस पहली ग़ज़ल का हिस्सा है जो बाद में कैफ़ी आज़मी के नाम से मशहूर हुए अतहर हुसैन रिज़वी ने ग्यारह बरस की उम्र में लिखा था۔ कैफ़ी ने खुद कहा था, ” ये ग़ज़ल मुशायरे में इस बात को साबित करने के लिए लिखी थी कि मैं भी ग़ज़ल कह सकता हूं”
इस अज़ीम शायर की रचनाओं में हमारा समय और समाज अपनी तमाम ख़ूबसूरती और यातनाओं के साथ सच बोलता नज़र आता है۔ उन्होंने अपने सफ़र में ज़िन्दगी के दो पहलुओं — इश्क़ और इंकलाब — पर ख़ूब लिखा۔
जब अमृतसर के जलियांवाला बाग़ में निहत्थों पर ब्रितानी हुकूमत के जनरल रेजिनाल्ड एडवर्ड डायर ने गोली चलवाई, उस वक़्त अतहर आजमगढ़ की गोदी में खेल रहे थे۔ वह महज़ ढाई महीने के थे۔ अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लोगों में ग़ुस्से की लहर सरपट दौड़ रही थी۔ उसी गुस्से के बीच यह महान शायर बड़े हो रहे थे۔
बाद में कैफ़ी ने लिखा-
“ग़ुलामी का सफ़ीना घूमता है डगमगाता है
जवां मौजें लिए दामन में साहिल मुस्कुराता है
जवां मौजों पे बल खाती
चली आती है आज़ादी”
उनके अब्बा ज़मींदारी छोड़कर लखनऊ रहने लगे थे۔ उनके भाई अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में पढ़ा करते थे۔ जब भी वह घर आते, शेर और शायरी की महफ़िल जम जाती۔ जब कैफ़ी को शेर सुनने का दिल करता, घर के बुज़ुर्ग उनको अन्दर पान लाने के लिए भेज देते۔ मन ही मन सोचते हुए, कि इनसे बड़ा शायर बनूंगा, वो बड़ी बाजी से शिकायत करते۔
बाजी कहा करतीं — “हां! ज़रूर तुम बड़े शायर बनोगे, पर पहले ये पान बाहर दे आओ۔” बाजी की बात सच साबित हुई; वह बड़े शायर बने۔ यहाँ यह बताते चलना ज़रूरी है कि रबीन्द्रनाथ ठाकुर और प्रेमचंद के बाद वह इकलौते कवि हैं जिनके नाम पर भारतीय रेल, रेलगाड़ी (कैफ़ियत एक्सप्रेस) चलाती है.
कैफ़ी अपने घर में सब से छोटे थे, उनकी बहने अक्सर बीमार रहा करती थीं۔ उन्हें टी बी हुआ था, और इलाज के लिए एक शहर से दूसरे शहर जाना होता रहता था۔ इसी छोटी उम्र में उन्होंने अस्पताल में बड़ी-बड़ी बीमारियां देखीं, दुःख देखा۔ “इसीलिए, मैं शायद गम-पसंद हो गया,” कैफ़ी अपनी कुल्यात में लिखते हैं۔
बात इतनी बढ़ गई, कि कैफ़ी के अब्बा कहने लगे, “हमने अपने बेटों को अंग्रेज़ी ता’लीम दी, इसलिए यह अज़ाब हम पर लाज़िम हुआ और हमारी चार बेटियों की मौत हो गई۔ अब कैफ़ी छोटे थे, इसीलिए अब्बा ने सोचा कि इनको इस्लामी ता’लीम देंगे ताकि यह हमारी क़ब्र पर फातिहा पढ़ने आ सके۔
कहानीकार आइशा सिद्दीक़ी लिखती हैं, “कैफ़ी साहब को बुज़ुर्गों ने दीनी दर्सगाह (स्कूल) में इसलिए दाख़िल किया था, कि वह फ़ातेहा पढ़ना सीख जाएँ, कैफ़ी साहब मज़हब पर फ़ातेहा पढ़कर निकल आए۔”
उनको पढ़ने की बड़ी ख़्वाहिश थी, पर घर पर खेत भी संभालना था۔ उनके चचा ने उनको एक रोज़ खेत पर निगरानी करते रहने को कहा۔ एक जवान लड़की ने, जिन्हें खेत में मज़दूरी करते हुए दोपहर हो गई थी, अनाज ज़्यादा ले लिए۔ कैफ़ी सिर्फ़ देखते रहे लड़की को टोका नहीं, कुछ कहा नहीं۔ इसी का ज़िक्र करते हुए कैफ़ी लिखते हैं — “एक ख़ूबसूरत और हसीन लड़की के गालों से धूप रंग बन कर टपकने लगा था۔” चुरा तो वो लड़की रही थी पर पकड़े कैफ़ी गए۔ घर आए, डांट पड़ी और लखनऊ के एक मदरसे में भेज दिए गए۔
उनकी नज़्म पशेमानी को याद करना लाज़मी है —
“मैं ये सोच कर उस के दर से उठा था
कि वो रोक लेगी मना लेगी मुझ को
हवाओं में लहराता आता था दामन
कि दामन पकड़ कर बिठा लेगी मुझ को
क़दम ऐसे अंदाज़ से उठ रहे थे
कि आवाज़ दे कर बुला लेगी मुझ को
मगर उस ने रोका न मुझ को मनाया
न दामन ही पकड़ा न मुझ को बिठाया
न आवाज़ ही दी न मुझ को बुलाया
मैं आहिस्ता आहिस्ता बढ़ता ही आया
यहाँ तक कि उस से जुदा हो गया मैं”
कैफ़ी लिखते हैं कि मदरसे के मौलवी साहब इंटरवल में एक ख़ूबसूरत बच्चे को लेकर कमरे में चले जाते और दरवाज़ा बंद कर लेते۔ मैंने झांक कर देखा, दो-तीन दूसरे मौलाना भी बैठे होते, वह बच्चा एक छोटी सी किताब पढ़ता जाता, मौलवी तौबा कहते जाते और बीच बीच में उसके गाल पर चुटकी लेते जाते۔
“जब वो बच्चा बाहर आया, मैंने उससे पूछ लिया, ‘तुम कौनसी किताब पढ़ रहे थे?’ बच्चा भागता हुआ अन्दर गया, किताब लेकर वापिस आ गया۔ छोटी कहानियों की एक छोटी सी किताब थी۔ नाम था अंगारे۔ इस किताब को यूनाइटेड प्रोविंस (आज का उत्तर प्रदेश) ने बैन कर दिया था۔ कैफ़ी कहते हैं, “तरक्की पसंद लेखन से मैं कुछ इस तरह रूबरू हुआ۔”
इस किताब पर, उत्तरी हिन्दुस्तान के मौलवियों ने ब्रितानी हुक़ूमत से यह कहकर बैन लगवा दिया था कि ये मुसलमानों के ख़िलाफ़ है۔ इसके चार लेखक ने मुसलमान समाज में प्रचलित गलत रीति-रिवाजों को उजागर किया था۔ रशीद जहां, जो औरत थीं, उन पर तेज़ाब फेंकें जाने की बात होनी लगी थी۔ JSTOR की एक शोध के अनुसार, यही वह समय था जब अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ (AIPWA) अपने अस्तित्व में आया, जिसके कि कैफ़ी साहब बहुत दिनों तक मेंबर रहे۔
लखनऊ के उसी मदरसे में किसी मांग पर कुछ दोस्तों के साथ कैफ़ी आज़मी ने यूनियन बनाया۔ मदरसे के समक्ष अपनी मांगे रखीं۔ अधिकारियों ने मांग के साथ साथ यूनियन को भी ठुकरा दिया۔ कैफ़ी ने स्ट्राइक की धमकी दी۔ धरना प्रदर्शन चला۔ अधिकारियों ने मदरसे को बंद करने की धमकी दी, होस्टल खाली कर देने का फ़रमान दिया۔ लखनऊ, जो अपने तहज़ीब के लिए मशहूर है, उस शहर के मदरसे में गुंडे बुलवा लिए गए۔ अपने हक की आवाज़ उठा रहे पढ़ने वालों को मारा पीटा गया۔ पर स्टूडेंट्स डटे रहे۔ कैफ़ी बताते हैं, “क़रीब डेढ़ साल चले इस स्ट्राइक के बाद उनकी मांगों को मान लिया गया” पर, कैफ़ी और उनके चंद साथियों को मदरसे से निकाल दिया गया۔
सन 1942 में हुए अंग्रेजों! भारत छोड़ो आंदोलन में कैफ़ी साहब जमकर शामिल हुए और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ली۔ कैफ़ी ने ख़ुद को किसानों, मज़दूरों, ग़रीबों और महिलाओं का शायर बना लिया۔ अज़ीम शायर निदा फ़ाज़ली अपनी रचना ‘चेहरे’ में लिखते हैं, “कैफ़ी की शायरी उसके आंसुओं का हासिल है जो उसने मज़लूमों को याद करते हुए बहाए हैं۔”
पाठकों को याद होगा कि जब मर्द आज़ादी की लड़ाई में शरीक हो रहे थे तब औरतों को उनकी खुदमुख़्तारी वाले तराने लिखे कैफ़ी आज़मी ने, “उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे۔” यह कहना ख़ुद इंक़लाबी होना था۔
कहा जाता है कि इसी नज़्म को सुनने के बाद शौकत ने कैफ़ी से शादी करने का फैसला किया۔ कैफ़ी को तबतक आमदनी का ज़रिया नहीं था۔ शौकत ने बीबीसी को बताया था कि वो डटी रहीं और कहती रहीं — “अगर कैफ़ी मज़दूरी करें, मै भी मज़दूरी करूंगी, पर शादी कहीं और नहीं कर सकती۔” वह पांच दशकों से ज़्यादा साथ रहे۔ कैफ़ी लिखते हैं.
“… इक रात में सौ तरह के मोड़ आते हैं
काश तुम को कभी तन्हाई का अहसास न हो
काश ऐसा न हो घेरे रहे दुनिया तुम को
और इस तरह कि जिस तरह कोई पास न हो”
पाकिस्तान बनने के समय अंग्रेजों की पुलिस ने कैफ़ी को बहुत सताया۔ उनके माता-पिता और भाई पाकिस्तान चले गए۔ शायर को उनसे मिलने जाने का वीज़ा नहीं मिला क्योंकि यह कम्युनिस्ट थे۔ उनके दोस्त पकिस्तान के शायर ज़ुल्फ़िकार बुख़ारी ने एक बार उनसे कहा था,” एक होता है कुत्ता, एक होता है बहुत ही कुत्ता, तुम उनके लिए बहुत ही कुत्ते हो۔”
आखिरकार जब वीज़ा मिला, तब विभाजन ने एक और सरहद बना दी थी۔ इस बार कैफ़ी आज़मी की मां जीवन के सरहद के बहुत पार जा चुकी थीं۔ यह वही समय था जब कैफ़ी आज़मी ने सिनेमा में गीत लिखना शुरू किया۔ ‘रोते-रोते गुज़र गई रात’ बॉलीवुड के लिए लिखा गया उनका पहला गाना है जिसे 1951 में आई फ़िल्म ‘बुज़दिल’ में लिया गया۔ उसके बाद का इतिहास और कैफ़ी आज़मी के लिखे गीत बॉलीवुड के लिए धरोहर है۔
गीतकार के रूप में उन्होंने मुख्यत: शमा, गरम हवा, शोला और शबनम, कागज़ के फूल, आख़िरी ख़त, हकीकत, रज़िया सुल्तान, नौनिहाल, सात हिंदुस्तानी, अनुपमा, कोहरा, हिंदुस्तान की क़सम, पाक़ीज़ा, उसकी कहानी, सत्यकाम, हीर-रांझा, हंसते ज़ख्म, अनोखी रात, बावर्ची, अर्थ, फिर तेरी कहानी याद आई — जैसी फ़िल्मों में काम किया۔
वे मुर्दे ठीक-ठाक गाड़ लेते थे۔ वो कहते हैं, “फ़िल्मों में गाने लिखना एक अजीब ही चीज थी۔ आम तौर पर पहले धुन बनती थी, फिर उसमें शब्द पिरोए जाते थे۔ ठीक ऐसे कि पहले आपने क़ब्र खोद ली, फिर उसमें मुर्दे को फिट करने की कोशिश की۔ कभी मुर्दे का पैर बाहर रहता था, कभी हाथ۔ मेरे बारे में फ़िल्मकारों को यक़ीन हो गया था कि मैं मुर्दे ठीक गाड़ लेता हूं, इसलिए मुझे काम मिलने लगा۔”
1970 की शुरुआत में उनको लकवा ने अपने चंगुल में जकड़ लिया और उनके बाएं हाथ और पैर काम करना बंद कर चुके थे۔ तब उन्होंने अपनी बेटी शबाना आज़मी के जन्मदिन पर लिखा —
“अब और क्या तिरा बीमार बाप देगा तुझे
बस इक दुआ कि ख़ुदा तुझ को कामयाब करे
वो टाँक दे तिरे आँचल में चाँद और तारे
तू अपने वास्ते जिस को भी इंतिख़ाब करे”
एक तरफ उन्होंने आम लोगों के ज़ख्मों को शब्दों में पिरो कर उन्हें अपने हक के लिए लड़ने का हौसला दिया तो दूसरी तरफ सौंदर्य और प्रेम की नाज़ुक संवेदनाओं को इस बारीकी से बुना कि पढ़ने-सुनने वालों के मुंह से कलेजा निकल पड़े۔
“जिस तरह हंस रहा हूं मैं पी-पी के अश्क-ए-ग़म
यूं दूसरा हंसे तो कलेजा निकल पड़े”
आउटलुक पत्रिका के अनुसार, इंदिरा गांधी की मौत के बाद 1984 में सिखों के क़त्ल-ए-आम को कैफ़ी ने बर्बरता की इंतेहा का संज्ञा दिया और कहा “वो सब गुण जो हमें इंसान बनाते हैं, हम खो चुके हैं۔” कुछ नज़्म इतिहास में ख़ुद इतिहास की तरह दोहराती हैं۔ बाबरी मस्जिद की शहादत पर उनका “दूसरा बनवास’ भगवान राम के मन में झांकने की कोशिश के साथ दिसम्बर की छह तारीख़ को भारत के लोगों को का रुख़ सच्चाई की तरफ़ मोड़ देती है —
“राम बन-बास से जब लौट के घर में आए
याद जंगल बहुत आया जो नगर में आए
रक़्स-ए-दीवानगी आँगन में जो देखा होगा
छे दिसम्बर को श्री राम ने सोचा होगा
इतने दीवाने कहाँ से मिरे घर में आए
जगमगाते थे जहाँ राम के क़दमों के निशाँ
प्यार की काहकशाँ लेती थी अंगड़ाई जहाँ
मोड़ नफ़रत के उसी राहगुज़र में आए
धर्म क्या उन का था, क्या ज़ात थी, ये जानता कौन
घर न जलता तो उन्हें रात में पहचानता कौन
घर जलाने को मिरा लोग जो घर में आए
शाकाहारी थे मेरे दोस्त तुम्हारे ख़ंजर
तुम ने बाबर की तरफ़ फेंके थे सारे पत्थर
है मिरे सर की ख़ता, ज़ख़्म जो सर में आए
पाँव सरजू में अभी राम ने धोए भी न थे
कि नज़र आए वहाँ ख़ून के गहरे धब्बे
पाँव धोए बिना सरजू के किनारे से उठे
राम ये कहते हुए अपने द्वारे से उठे
राजधानी की फ़ज़ा आई नहीं रास मुझे
छे दिसम्बर को मिला दूसरा बन-बास मुझे”
कैफ़ी आज़मी एक सोशलिस्ट समाज को बनते देखना चाहते थे۔ मैं ग़ुलाम देश में पैदा हुआ, आज़ाद देश में बड़ा हुआ और सोशलिस्ट देश में मरूंगा۔” उन्होंने 10 मई 2002 को आखिरी सांस ली थी۔ उस समय गुजरात 2002 में हुए मुसलमानों के क़त्ल ए आम को भी सिर्फ़ ढाई महीने हुए थे۔ इस बार क़त्ल-ए-आम अंग्रेजों ने नहीं किया था۔
जाते जाते वो अपनी बीवी शौकत कैफ़ी को 17 सालों के लिए अकेला छोड़ गए शायद जिनके लिए कभी उन्होंने लिखा था, “काश तुम को कभी तन्हाई का एहसास न हो”۔ कैफ़ी की ज़िन्दगी हसीन थी और मौत कोई सितम से कम नहीं۔ सोशलिस्ट समाज आज भी भविष्य ही है۔
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
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