“मैं हूं एक अमरीकी, मैं एपल पाई खाता हूं, मैं बेसबॉल देखता हूं” – हयान चरारा की कविता
अरबी-अमरीकी कवि हयान चरारा की परवरिश मिशिगन डेट्रायट में हुई है। उनका परिवार लेबनान से आकर अमरीका में बसा था। उनकी शिक्षा दीक्षा न्यूयार्क यूनिवर्सिटी में हुई है। वेन स्टेट यूनिवर्सिटी से उन्होंने साहित्य में पीएचडी किया। उनकी कविताओं के संग्रह में शामिल है- अलकेमिस्ट डायरी (2001), द सैडनेस आव अदर्स (2006), समथिंग सिनिस्टर (कार्नेगी मेलन,2016)। उनकी रचनायें एक अरबी अमरीकी के जीवन की विसंगतियों, उनकी पहचान की जटिलताओं और उनकी दो दुनिया की कशमकश को लेकर है।
यूसेज कविता अंग्रेजी भाषा और उसके व्यवहार के ऊपर एक तरह से कटाक्ष करती है। कविता ग्यारह सितम्बर की घटना को खाड़ी युद्ध के परिदृश्य में देखती है। वह खाड़ी युद्ध से लेकर अबतक व्यापार,साम्राज्यवादी विस्तार के असली रूप को सामने रखकर ड्रेमोक्रेसी जैसे शब्दों की विडम्बना पर प्रहार करती है।- अनुवादक सविता पाठक।
शब्द व्यवहारः कवि-हयान चरारा
एक ईमानदार भाषा जिसमें है एक इज़्ज़तदार मौत
ये मेरा अंदाज़ा ही है कि उसमें बहुत बेइज़्ज़ती है भरी।
प्राइमरी स्कूल में मैंने,मेयर से हाथ मिलाने से कर दिया था इनकार,
सबसे मुस्कुरा कर मिल रहे मेयर के चेहरे से गायब थी, मेरे जैसे नामवालों के लिए मुस्कान।
मैं यही पैदा हुआ हूं।
अमरीका ने गोद नहीं लिया था मुझे, ढल जाना था मुझे, इसके हिसाब से
समझते हो आप दुनियादारी-
आदमी को पीछा छुड़ा लेना चाहिए उस विचार से
जो उसकी ज़िन्दगी और मौत दोनों पर डाल सकते हैं असर।
‘किसी की सलाह लेने से पहले, यही सलाहियत है कि देखो सामने वाले की ज़बान, कि वो किस भाषा में बोलता है।’
मुझे भी भीतर झिंझोड़ा था कुछ शब्दों ने
बालू वाला हब्शी से लेकर ऊंटहरा तक कहा गया ।
मुझ पर क्या बीती, मैं तो पहले से ही भीतर ही भीतर बुदबुदाता था
बस और ससक गया।
नामुमकिन तो नहीं लगता है,
पर साथ आना अब मुमकिन नहीं लगता।
यहां सबकुछ मस्त नहीं है। सबकुछ नहीं है झक्कास।
जैसे बगैर शेक्सपीयर, ग्रीक पौराणिक कथाओं और बाइबिल के, कविता पर सोचना लगता है मुश्किल, वैसे ही क्या भला बात हो सकती है बिना इन एवाजो के
कट्टरवादी, इस्लामिक, इसाई, रूढ़िवादी, उदारपंथी, चरमपंथी, दक्षिणपंथी, वामपंथी..
भाषा जब एक ही ज़बान में लिखी जाय या एक ही जबान में हो उसका तर्जुमा तो एक पुश्तैनी सत्ता का आभास देती है।
बहुत से लोग करते हैं भाषा का कत्ल, बहुत से लोग जानबूझे तरीके से करते हैं भाषा का कत्ल
वहां भी मुर्दों में चुनना होता है
‘हमारे’ और ‘उनके’ के हिसाब से।
मरे हुए लोगों के नामों से
मां-बाप, भाई-बहन, मियां-बीबी, औलाद, दोस्त, साथी, पड़ोसी, उस्ताद-शागिर्द, अजनबी..नहीं
बस चुनना है कौन नागरिक है और कौन है आतंकवादी।
और शायर? वह अनैतिक हो सकता है लेकिन नहीं कर सकता अखलाकियात पर सवाल।
इतिहास के पन्नों में दर्ज है
पन्द्रह करोड़ से लेकर सौ करोड़ जनता की
पिचहत्तर से लेकर नब्बे प्रतिशत की आबादी, मारी गयी हैं जंग के दौरान।
चितिंत होना किसी के लिए फिक्रमंद होना है या फिर है शक-सुबहा।
कमाल है अमरीकी कविता और अमरीकन।
बचपन में मैंने सीखा था, कि यहां पैदा हुआ कोई भी आदमी बन सकता है राष्ट्रपति।
अब, मैं सैकड़ों को गिना, बता सकता हूं कि
यह झूठ है।
वैसे भी, मैं बनना नहीं चाहता
राष्ट्रपति या अध्यक्ष, किसी देश या क्लब का,
यहां या वहां का, या कहीं का भी।
उन्होंने बताया, “बमों की बारिश हो रही थी। मैंने कार को चारों ओर घुमा दिया ” यहाँ की जबान में कोई कहता कि ‘जब’ ऐसा हुआ ‘तब’ ऐसा हुआ, लेकिन वहां इससे फर्क नहीं पड़ता।
उन्होंने आसमान को देखा, जमीन को महसूस किया,
70 से 200 बीट प्रति मिनट से
जब कलेजा धड़क रहा हो।
वहां गलतफहमी की कोई गुंजाइश नहीं; कोई फर्क नहीं पड़ता कि व्याकरण के ठीक होने से।
जो किया उन्होंने मेरे दादा के साथ
उस वहशी मंजर, दर्द और जुल्म को भूलना मुमकिन नहीं।
सुबह के 8:46 बजे थे, क्या होगा आगे, यही ख्याल खाये जा रहा था।
आगे क्या होगा। सुबह के 9:03 तक, मुझे पता था
मुसीबत हमारे करीब आ रही है
उसी में दर्द से कराहती ज़बान में एक औरत बोली, “वो हम पर कहर बरसाने वाले हैं
इस बात का मतलब था,” तुम हम पर और बम गिराने जा रहे हो।
सत्रह दिनों तक
हवाई हमले के दौरान, अपने घर के तहखाने में
मेरे दादा बगल में एक खाट पर पड़े रहे
एक मिट्टी का दिया पास में धरे।
कुछ दिनों की बची दवाई और पानी का एक गैलन,
इसके अलावा कुछ नहीं था उनके पास।
इस हालात में,
हम में से कोई नहीं हुआ हैरान, जब अठारहवें दिन,
उनकी मौत हो गयी। इन सबके अलावा बता दूं कि वो वह अस्सी साल के बुज़ुर्ग थे।
जी जनाब मैं जो चाहे लिख सकता हूं। मैं जो चाहे कर सकता हूं।
नहीं जरूरत, मुझे किसी के इजाज़त की।
बिल्कुल उस गीत के मुखड़े की तरह
मौज है पैसे वालों की, मुश्किल है कंगालों की
दमदम ऊपर बोली लगती, राजधानी में दलालों की।
असहमतियों पर लगा है सेंसर
जिनसे बनता है कोई – कवि, विद्रोही या कार्यकर्ता
उन सब पर लगा है सेंसर।
उसके बाद गिनती में आया कि लगभग 6,55,000
लोग मारे गये।
” अंतरराष्ट्रीय अध्ययन के लिए
इराक में युद्ध की मानवीय लागत पर हुआ शोध।
शामिल रहे- ए मॉर्टेलिटी स्टडी, 2002-2006, “ब्लूम्सबर्ग स्कूल
सार्वजनिक स्वास्थ्य, जॉन्स हॉपकिन्स विश्वविद्यालय (बाल्टीमोर,
मेरीलैंड); स्कूल ऑफ मेडिसिन, अल मुस्तनसिरिया विश्वविद्यालय
(बगदाद, इराक);, मैसाचुसेट्स संस्थान
प्रौद्योगिकी (कैम्ब्रिज, मैसाचुसेट्स)। ।
उनकी रिसर्च में जिक्र आया 6,55,000 मौतों का, शुक्र है वो
इराक में असली जगहों पर किए गए घरेलू सर्वेक्षण पर आधारित थे,
पेंटागन, व्हाइट हाउस, न्यूज़रूम,
या किसी के ख्यालों से उन्हें नहीं मिले आकड़े।
कोई शक नहीं कि , भाषा हो चुकी है
भ्रष्ट। देखिए ना, कितनी अश्लीलता से कहते हैं राष्ट्रपति, “हमें जारी रखना चाहिए आक्रमण”
“अपने विवेक को अपना मार्गदर्शक बनने दें”
जैसे कि उन्हें न हो मालूम कि सबका अपना विवेक होता है
और नैतिक धारणायें होती हैं मनोगत।
मैं हैरत में पड़ जाता हूं, जब वो कहते हैं
उनके बिल में भर दो पानी, भरभरा कर निकलेंगे।
क्या यह हो सकता है, किसी होशमंद आदमी का बयान
हरपल एक जैसी तस्वीर और बात सुनते
मैं खुद, कैसे पहुंचा हूं यहां तक, यह समझ सकता हूं
लगातार चलते फुटेज में
टॉवर पर टकराते जहाज
सड़कों पर लिथड़ी इमारतें, चीख, बर्बादी की हर वक्त एक रील चलती है
एक ऐसा खौफ मानो चौबीस घंटे हमले हो रहे हों।
एक दिन, हर दिन, किसी भी समय। कुछ समय के लिए, मुझे लगा फर्क नहीं पड़ता अब जंग से। फिर मैंने लाशों को देखा, उन लड़कों को देखा
जो दिख रहे थे मेरी तरह। 1982 की बात, दस साल की उम्र थी मेरी। तभी से,
मैं रहा बेचैन कोई क्यों चाहता है जंग।
1982 में हो सकता है, उनमें से कोई लड़का मेरे जैसा रहा हो ।
जैसे कि मुझे लगता है कि इन मुर्दा लड़कों में से कोई एक, मैं भी हो सकता हूं।
अमरीकी राज्य सचिव ने कुछ ऐसी दलील दी कि
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने जंग के लिए भर दी हामी।
नियम बस कहने को होते है कसौटी। असलियत में कि वो कुछ के लिए इतने आसान हो जाते हैं कि जैसे इनका वजूद न हो।
आकड़े उलट कर कुछ का कुछ बन जाते हैं। नजरिया एक गैरजरूरी चीज में बदल जाता है।
हालांकि हमदोनों अंग्रेजी बोलते हैं, फिर भी हमारी भाषा एकदूसरे से है जुदा
मेरी ज़बान, तुम्हारे लिए फारसी हो सकती है, तुम्हारी मेरे लिए।
जब पार्क में काले आदमी ने पूछा, “क्या तुम हो
मैक्सिकन, प्यूर्टो रिकन, या पाकिस्तानी ? ”
और मैंने कहा, “मैं अरब हूँ,” और जवाब मिला, “उफ्फ ‘वो’ आपको बहुत पसंद नहीं करता है,” मैं समझ गया
वो क्या चाहता है बताना। राष्ट्रपति ने नासमझी में नहीं कही है क्रूसेड की बात।
बाद में, उन्होंने बयान को वापस ले लिया, नहीं करना था पूरे मध्य पूर्व को नाराज;
उन्हें वह नाराजगी नहीं दिखती कि कैसे उनके
हमले ने लोगों को तोड़ कर, चूर चूर कर दिया है। वो कहते हैं “तुम या तो हमारे साथ हो या फिर आतंकवादियों के साथ ”(20 सितंबर, 2001)।
“आप या तो हमारे साथ हैं या हमारे खिलाफ हैं” (6 नवंबर, 2001)।
इसके बाद रेडियो जाकी ने हवा में उछाली बात
तैंतीस सेंट है पक्का समाधान, गोली मारो सालों को (एक बुलेट की लागत)
हमारे बीच रह रहे आतंकवादियों से उसका मतलब था
न्यूयॉर्क में रह रहे आतंकवादी
मैं हैरत में हूं, क्या उसका मतलब है- कैब ड्राइवर, हॉट डॉग वेंडर, छात्र, बैंकर,
पड़ोसी, राहगीर, न्यू यॉर्कर, अमेरिकी;
क्या उसे पता है कि उसका मतलब है सिख, हिंदू, ईरानी,
अफ्रीकियों, एशियाई; क्या उसे मालूम था कि इसका मतलब, ईसाई, यहूदी, बौद्ध, नास्तिक कुछ भी हो सकता है;
क्या उसे होश था कि वह कर रहा है
रेडियो पर वह भड़का रहा है हिंसा?
जिन्हें बिल्कुल ग़लत नहीं लगा उसका कहना, उन लोगों में शामिल थे
रेडियो स्टेशन के मालिक, एफसीसी, मेयर,
राज्यपाल, सदन के सदस्य, सीनेट,
और यूनाईटेड स्टेट्स के राष्ट्रपति।
बस जाने से बेहतर होता है विदेशी होकर रहना
अवैध प्रवास जैसी नहीं होती कोई चीज़।
और न होता है कभी चुनावी मुद्दा ।
मैंने सुने हैं उनके ज़ोरदार भाषण। वे हमारी आज़ादी से नफ़रत करते हैं,
हमारे रहने का तरीका, हमारा यह, हमारा वह, और भी बहुत कुछ से।
हर कोई उनकी तरह नहीं था जो हों, “हमारे साथ” या “हमारे ख़िलाफ़।”
जितना मेरे अब्बा ने नहीं सोचा था उससे कहीं दूर था डेट्रोइट
उन्होंने खुद को समझा लिया कि जितनी ज़रूरत पड़ती है उससे कहीं ज्यादा करनी होगी मेहनत-मशक्कत यहां।
1966 में जब छोड़ा उन्होंने अपना शहर
बहुत कम लोग रह गये थे वहां। इतनी कम थी आबादी लेकिन चलती रही हवाई बमबारी, चौंतीस दिनों तक
पहले (पहली दफ़ा नहीं) मेरे पिता ने अरबी भाषा बोली; दूसरे (दूसरी दफ़ा नहीं) वह टूटी-फूटी अंग्रेजी बोलते था; तीसरा (तीसरी दफ़ा नहीं)
उन्होंने घर पर अरबी और काम पर अंग्रेज़ी में बात की;
चौथा (चौथी दफ़ा नहीं) उन्होंने अंग्रेजी बोलने कर दिया इनकार, हमेशा के लिए।
हर कविता अच्छी नहीं होती। हर शायरी ज़रूरी नहीं कि खास असर छोड़े।
ज़रूरी नहीं कि हर कविता लिखी जाय बेहतरी के लिए। और ज़रूरी नहीं वो दे पाती हो सुकून।
सिर्फ कहना भर नहीं है “अर्थव्यवस्था के विकास के लिए ”
उससे कहीं ज्यादा है होता है इसका मतलब। क्या एक जम्हुरित बढ़ सकती है बगैर खून खराबे के ?
हमारी नहीं बढ़ी है बिना इसके।
बावजूद इसके (बम से बर्बाद इस जगह पर) वे इस साल भी सोच रहे हैं, टमाटर की खेती के बारे में।
साधारण लोग, आम लोग दुश्मन के तौर पर में पहचाने जाते हैं,
पुल पर लटकी लाशें शव धड़ से लगी, जली कटी लाशें झूल रही थी हवा में।
हलाक लोगों की तस्वीरें करीने से लटकाई हुईं। मेरे लिए आसान नहीं सबकुछ बताना।
दिनोदिन, उन्होंने खुद से बड़बड़ाते, “मैं हूं एक अमरीकी। मैं एपल पाई खाता हूं। मैं बेसबॉल देखता हूं।
मैं अमेरिकी अंग्रेज़ी बोलता हूं। मैंने अमेरिकी कविता पढ़ी।
मैं डेट्रायट में पैदा हुआ था, एक शहर जैसा कि यह अमेरिकी है।
मैं मतदान करता हूं। मैं काम करता हूँ। मैं बहुत सारे टैक्स देता हूं । मेरे पास कार है।
मैं लोन की किश्तें देता हूं। मुझे भूख नहीं है। मुझे दुनिया के बाकी हिस्सों के मुकाबले कम चिंता है।
मैं कुछ पाउंड हार जाऊं तो भी कोई बात नहीं। मैं कई रोज खाता हूं कई तरह के पकवान।
मैं शौचालय फ्लश करता हूं। मुझे नल टपकने से नहीं हुई चिंता और रहता हूं सेंट्रल एयर कंडीशनिंग जगह पर।
मैं कभी नहीं भूखा रहूंगा
मौत और अकाल नहीं मुझे नहीं करेगी हलाक। मैं कभी नहीं मरूंगा मलेरिया से। मैं जो जी चाहे साला बोल सकता हूं। ”
फिर लब्जों ने भी दम तोड़ दिया; वो हो गये हैं एक मज़ाक। सही में हो गये हैं सिर्फ एक धब्बा।
हालाँकि, मैं शब्दों के इस्तेमाल में बरतता हूं एहतियात। अमरीकी राष्ट्रपति मुंह से निकलता है –रहमत। लेकिन मतलब उसका ठीक कुछ और ही है।
लेकिन अर्थ इतना सीधा सच्चा कब रहा है। न ही वह इतना मासूम है
जितना वह यह बात बोलता, उसे कविता लगने लगी।
जैसे कोई ज़ुबान बन रही हो, भर रही हो नये मतलब
ज़ुबान को तोड़ना मरोड़ना बहुत आसान है, जुबान खुद अपनी दुश्मन बन गई हो जैसे
जैसे कोई सांप इतना बढ़ जाय कि खाने लगे अपनी पूंछ वैसे ही खा रही है भाषा अपने अर्थ। उन्होंने हमारे बारे में सोचा हमें जानकर नहीं या जैसे हम कुछ न हो
या सोचा तो एक अमेरिकी के तौर पर ।
ज़मीन पर लिटा देंगे ये कहना झूठ होता है कहना है ज़मीन पर बिखेर देंगे।
ज़मीन पर फैल गया है भारी मात्रा में यूरेनियम,
बम के टुकड़े और पैदा होते हैं विकलांग बच्चे।
जब दिन गुस्से में एक आदमी ने कहा, “हम उनको ज़रूर सबक सिखायेंगे।
मेरे मन में आया यह उन्हें क्या सबक सिखायेगा, आखिर वो कौन सा सबक सीखेंगे।
आम नागरिक के बनस्तिबत सैनिक खुद को ज़्यादा बचा सकता है
ऐसा लगता है कि जैसे उन्हें है हमारी आज़ादी नफ़रत ।
आप उन्हें उतना नहीं जानते जितना जानता हूं मैं ।
उस दिन जब दुख में डूबी जुबान में मेरे पिता ने कहा था, “जंग में किसी की जीत नहीं होती। मैं समझ गया कि वो क्या कहना चाहते हैं।
ये हो कि शायर लड़े जंग। हो सकता है तब, ख्यालों में होगा विस्फोट-
इंसान, पहाड़ियां, अस्पताल, स्कूल
बचे रहेंगे। हो सकता है मैं भी देख पाता कामेडी शो
बस अगर मेरा परिवार न घिरा होता जंग में और वो न मरे हों जंग में । दूसरे लोग भी ठहाके लगाते हैं चुटकुले सुनकर जबकि एक हो रहे हैं और हो रहे हैं लोग हलाक
मुझसे वो हंसी नहीं फूट सकती।
मीडिया के पास है वो तरीका कि कैसे छुपानी है जंग की सच्चाई।
मैं खुद को धोखा देता हूं। मैं धोखा देता रहूंगा अपने आपको। ब्रोंक्स में,
मैं प्यूर्टो रिकन बनकर गुजरूंगा। मैं क्वींस में ग्रीक के होकर निकला,
ब्राज़ील, पाकिस्तानी, बांग्लादेशी, यहां तक कि अच्छे दिखने वाले अमेरिकी फिल्म अभिनेता बनकर निकल जाऊंगा। ईरानी के रूप जाना जाऊंगा
मैनहट्टन में। न्यू जर्सी में मॉल में,
बिक्री क्लर्क ने मेरे इतालवी होने का अंदाजा लगाया। जहां हेनरी फोर्ड
जन्म हुआ, मेरा गृहनगर, मैं हमेशा अरब के रूप में गुजरता हूं।
नियर ईस्ट के पास, अद्भुत कलाकृतियों वाले मर्दों की तरह लग सकता है
लेकिन आपको पक्का भरोसा दिलाता हूं उनकी ज़िन्दगी, उनके तरीके, बीती चीज हैं।
सिर्फ उन तस्वीरों और फिल्मों को छोड़कर, मैंने कई पत्नियों के साथ अरबों को कभी नहीं देखा,
जो करते हों ऊटों की सवारी, रहते हो रेशम के तंबूओं में, रेगिस्तान के कुंओं से निकाल कर पीते हो; सच यही है कि ये अतीत की बात है।
क्या भाषा बनने से पहले हिंसा हुई थी? क्या बगैर ज़बान के खून खराबा जारी रह सकता है।
मेरे अब्बा का दिल टूट गया था, जब मैंने उनसे बात की थी
बराबरी के सिद्धांत के बारे में।
समाचार में चल रहा था एयरलाइन्स के यात्रियों की कहानी
एक अधेड़ आदमी जो अपने बच्चों साथ है, कहता है “मैं उनके साथ महफू़ज महसूस नहीं करता।”
जबकि जहाज में सवार था सिर्फ एक अरब। डेट्रायट से होने के नाते,
मैं कुछ नहीं कर सकता, सिर्फ रोजा पार्क के बारे में सोच सकता हूं।
फिर मुझे गुस्सा आ गया। मैंने गुस्से में टीवी की ओर देखा और कहा, “यदि आप महफूज महसूस नहीं करते हैं, तो आप
जहाज से उतर क्यों नहीं जाते।” आप चाहे तो मेरी बात दर्ज कर सकते हैं।
सचमुच का गुस्सा था मैं,सचमुच का गुस्सा आया मुझे।
वजह एक शायर ने मुझसे पूछा
मैंने मुसलमानों और अरब के बारे में कविताएँ क्यों नहीं लिखीं,
दूसरों के ख़िलाफ़ हिंसा पर कवितायें क्यों नहीं लिखी, और मैंने कहा कि मैंने लिखा है। और तब
उसने समझाया कि मेरा मतलब अमरीकियों और इज़राइल के खिलाफ हुए खून खराबे से था।
फिर मैंने कहा लिखी हैं, पर इससे पहले कि मैं कुछ कहता
वह पूछने लगा कि मैंने क्यों नहीं लिखा, कविता उन मांओं के बारे में जो अपने बेटों और बेटियों को भेजते हैं जेहाद पर। (सवाल यूं थे) मानो, मानो, मानो कि..। मैं बड़ी इज्जत से बाकी सवालों के जवाब देने से कर देता हूं इनकार।
मेरे बस के नहीं है ऐसे सवालों के जवाब। निश्चित ही इनका मकसद तुम्हारी कामोत्तेजना तुष्ट करना नहीं है।
साफ है कि ये कविता तुम्हारे भीतर सरसराहट पैदा करने के लिए नहीं है।
हालांकि ये जगजाहिर है कि, मर्दों की तुष्ट होती है यौनवासना
सत्ता जब हावी होती है-
दूसरों के ऊपर- खासतौर पर महिलाओं, पुरूषों, जीवन और किसी ज़ुबान पर।
मेरे अब्बा ने कहा था , “कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे आपको कितना गुस्सा दिलाते हैं,
घर में एजेंटों को न्योता दो, उन्हें कॉफी पिलाओ,
उनकी करो मेजबानी,अगर वो देर तक खंगाले घर तब भी उन्हें बिठाओ बहुत कायदे से।
नहीं तो वो ठोक देंगे और करेंगे अलग ही मेहमानी।”
पस्त होकर कहते “, यूं होता, यूं होना था, ये करना था, ऐसे करना था”
दरअसल वो थक गये थे कहते, “रुक जाओ, मुझे अकेला छोड़ दो, कुछ नहीं सूझता आगे।
क्योंकि जब से हुआ ( तब से ही) अमरीका पर आतंकवादी हमला
हम और भी जमाने की तरह हो गये। कहने को यह एक कविता है दरअसल ये आपके साथ, एक बातचीत ही है पक्का करो कि आप शामिल हो इसमें।
“हर ज़ुबान है दूसरी ज़बान से ज्यादा तीखी, अब्बा ने कहा। फिर वह हंसे और खूब हंसे, और कहा,
“लेकिन तुम जो इस्तेमाल करते हो उससे ज्यादा खून खराबे से भरी कोई नहीं।” क्या मुनाफे़ को लेकर वहां भी होती होगी खींचातानी जब सरकारें देती हैं युद्ध का ठेका।
सरकारी अधिकारियों के साथ करीबी रिश्ता रखने वाली कंपनियां को?
1995 से 2000 तक, संयुक्त राज्य अमेरिका के उपराष्ट्रपति डिक चेनी,
हॉलिबर्टन(तेल कम्पनी) के सीईओ थे,
जिसका मुख्यालय ह्यूस्टन, टेक्सास में है,
बुश इंटरनेशनल एयरपोर्ट के पास।
क्या एलाने जंग उन्होंने अपने फायदे के लिए नहीं किया? रहम करके इन लोगों को वापस भेज दो। मेरे दादा वहां बेहोश पड़े रहे।
अब नहीं था पानी, दवा और कुछ भी नहीं था खाने के लिए।
सैनिकों के पांव के निशान छप गये हैं दरवाजे पर
रोना रूक नहीं रहा बेटे बेटियां का
दो होमलैंड सुरक्षा एजेंट करके गये दौरा मेरे घर का
दे गये सलाह, बस करो ये मातम का शोर
एक बार नहीं, दो बार नहीं, बल्कि तीन बार गये बोल कर।
मैं कोशिश कर रहा हूं ठहर कर होकर सोचने की। अंग्रेज़ी बहुत दूर है उस ख्याल से,
बम गिरने के बाद की ख़बर मिलते ही, हर रात मैं करता था फ़ोन, पता करने के लिए,
कि अब्बा ज़िंदा हैं मुर्दा। उन्होंने हमेशा पूछा,
“वहाँ मौसम कैसा है?” फिर मुझे देते, तसल्ली,
ठीक हो जायेगा सबकुछ, जंग रूकने का होने वाला है एलान।
मैंने अपने पिता के साथ अंग्रेजी में बात की, उन्होंने अरबी में दिया जवाब
भीतर एक कसक उठी कौन तय करता है कि ये किसकी है भाषा,क्या मैं,क्या आप
आपके माँ, बाप, किताबें,
नज़रिया, ज़मीन, आसमान, गंदगी, गुजर चुके लोग
बार्डर के टैक्स, ताकत, तकलीफ, खौफ, रूह, शायरी, ख़ुदा,
कुत्ता, बिल्ली, बहन, भाई, बेटी, परिवार और आप खुद।
रातें, ख्याल, राज़, आदतें, लकीरें, शिकायतें,
टूटन, यादें, डरावने ख्वाब, सुबह, विश्वास, इच्छा,
सेक्स, अंतिम संस्कार। यही आपका है, आप इनमें हैं।
वहां है आसमान, बारिश, माज़ी, नींद, सुकूंन, जिन्दगी,रूकना,चलना और सांस लेना।
(हिन्दी अनुवाद-सविता पाठक)
(वर्कर्स यूनिटी स्वतंत्र निष्पक्ष मीडिया के उसूलों को मानता है। आप इसके फ़ेसबुक, ट्विटर और यूट्यूब को फॉलो कर इसे और मजबूत बना सकते हैं। वर्कर्स यूनिटी के टेलीग्राम चैनल को सब्सक्राइब करने के लिए यहां क्लिक करें।)