पचपन बरस की मज़दूरी पेट में नहीं सीने में दुखती है

पचपन बरस की मज़दूरी पेट में नहीं सीने में दुखती है

इस बरस में लोग अपने घर की छत
देखते हैं
उम्र की घड़ियाँ ठहरती नहीं हैं लेकिन
कुछ पल लोग
अपने बीते दिनों की याद में बिताते हैं
अपने बच्चों को
स्कूल की दहलीज से निकल कर
दुनिया की उस पंक्ति में देखते हैं
जहाँ से तारे परिवार के लिए
सुख लेकर आते हैं

लेकिन वे गए मज़दूरी के लिए
हजारों मील दूर
चेहरे की झुर्रियों को ढोते हुए
उनकी पत्नियों ने अपने आँचल में फिर से उम्मीद को बांधा
उन्होंने अपने बच्चों को भी
साथ जाने दिया
यह पेट का युद्ध है
और इसमें कोई अकेले नहीं रह सकता है

गाँव खाली हो चुके हैं
किसान नहीं हैं गाँव में
वे मजदूर हो गए हैं शहरों में
और जो नहीं गए
वे या तो बीमार हैं या समझदार हैं
कुछ ने दलाल बनना पसंद किया
तो कुछ हथियारबंद हो गये हैं जंगलों में

लोगों ने कहा यह सरकार का दोष है
सरकार ने भी कहा
सरकार का ही दोष है लेकिन उनका नहीं
इस तरह बे बुनियाद बहसों ने
उनकी उम्र को धकेला है पचपनवें बरस में

एक मज़दूर को मज़दूरी चाहिए
मुआवज़ा नहीं
एक किसान को किसानी चाहिए
घोषणा नहीं
उनका यह विचार राजनैतिक नहीं होने दिया गया
और जब चौराहों में विजय के झण्डे फहरने लगे
तब वे अपनी गरीबी का रंग तलाशते रहे

पचपन बरस की मजदूरी पेट में नहीं सीने में दुखती है
जब गरिमा जंगलों से पलायन कर जाती है
तब सड़क पर भीड़ बीमारी बन कर टहलने लगती है

इस उम्र में वे भटकना नहीं चाहते हैं
वे तिनके जमा करना चाहते हैं
घोंसलों के लिए
उन्होंने अभी भी
अपनी आँखों से चिड़ियों को थकने नहीं दिया है
वे जानते हैं घर तक लौटने का पता
वे यह भी जानते हैं कि
केवल वायरस अपराधी नहीं है उनके जीवन के लिए

भले ही उनके रास्तों को रोक दिया गया हो
वे अपने घर तक रोज लौटते हैं
बातों ही बात में
एक दिन वे सभी अपराधियों को हरा देंगे।


विश्व विरासतों के लिए दो मिनट का मौन

मैं मिस्र की पिरामिड से होकर आया हूँ
चीन की दीवार पर
मैं घोड़े दौड़ा कर आया हूँ
मैंने एफिल टावर की ऊँचाई मापी है और
अपनी प्रेमिका को उपहार देने के लिए
मैंने कई बार ताजमहल की बात सुनी है

ऐसी ही न जाने कितनी ही इमारतें हैं
जिनकी कलाओं पर रीझ कर मैंने
मनुष्य के इतिहास को गौरव के साथ पढ़ा
मैंने कहीं नहीं पाया
पत्थर पर खुदा हुआ उन लोगों का नाम
जिनकी औरतों ने
अपने गर्भ में लोहे के गर्म हथौड़ों को
उम्र भर भूखे पेट सहलाया

कल जब मैंने दिल्ली से गाँव की ओर
पैदल लौटते मजदूरों को देखा
तो मुझे फिर से यूनेस्को द्वारा घोषित
विश्व विरासतों की याद आयी
मैंने फिर से उन औरतों को याद किया
जिन्होंने अपने गर्भ से
सभ्यता के ऊँचे प्रतीकों को साँस दी

आज उन्हीं इमारतों के दंभ को देख रहा हूँ
वे हिल नहीं रहे हैं अपनी जगह से
उन्हें कभी शिकायत नहीं होती
भूखे पेट सोने की और
उनके बच्चों को कभी अपना बचपन बेचना नहीं पड़ता
जबकि मजदूरों की टोली
जड़ से उखड़ गई है

जिन्हें लोग मजदूर कहते हैं वे
सभ्यता के पीकदान पर
ठगे हुए भूखे होते हैं
उनकी गरिमा छिलकों की तरह उतार कर
अकादमी के किताबों में छाप दिया जाता है
महान रोमन साम्राज्य की
दीवारों पर लगे धब्बे
उनके खून के छींटे हैं और
वैदिक सभ्यता में
हवन कुंड से बाहर वे शूद्र हैं

वे चल रहे हैं सड़कों पर और
सड़कें डर रहीं हैं अपनी मंजिल से
वे सदन से जंगलों की तरफ
मुड़ सकते हैं
वहाँ हरे रंग के जुगनू होते हैं
जिनकी देह में उधार की रोशनी नहीं होती

मैं विश्व विरासतों के लिए
दो मिनट का मौन चाहता हूँ
उनकी मरी हुई नींव से
मैंने फिर से
मजदूरों को दूर होते हुए देखा है।

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