सू लिज्ही की कविताएंः ‘मज़दूरी पर्दों में छुपी है, जैसे नौजवान मज़दूर अपने दिल में दफ्न रखते हैं मोहब्बत’
चार साल पहले मज़दूर वर्ग के कवि सू लिज्ही को व्यवस्था ने आत्महत्या करने पर मज़बूर किया था।
30 सितम्बर 2014 को चीन के मशहूर शेनजेन औद्योगिक क्षेत्र में स्थित फॉक्सकोन कंपनी के मज़दूर सू लिज्ही ने काम की नारकीय स्थितियों से तंग आ कर आत्महत्या कर ली।
सू काम करने की दर्दनाक परिस्थितियों से निकलने का और कोई रास्ता सामने ना पाते हुए अपने प्राण त्यागने का फैसला करने वाले चीनी मज़दूरों की एक लम्बी लिस्ट में शामिल हैं।
उनकी कविताएं श्रम की बोली में लिखी गयी हैं। उनके जीते जी और बाद में उन्हें मज़दूर वर्ग के प्रतिभावान कवियों में शुमार किया जाने लगा है।
पेश है उनकी कुछ कविताओं का हिंदी रूपांतरण किया है सविता पाठक ने।
नहीं पता कैसे होती है शिकायत, कैसे करते हैं मना
1.
मेरी आंखों के सामने काग़ज़ धुंधला के पीला सा होता है
स्टील की कलम से कोंच-कोंच के किया है मैंने उसे काला
काम से भरे शब्द
वर्कशॉप, असेम्बली लाइन, मशीन, वर्ककार्ड, ओवर टाइम, मज़दूरी
उन्होंने मुझे दिया है प्रशिक्षण दब्बू बनने रहने का
मुझे नहीं पता कि कैसे चिल्लाऊं, कैसे चीखूं
कैसे होती है शिकायत, कैसे करते हैं मना
बस यही सीखा कि कैसे खामोशी से सहूं दर्दभरी थकान
जब आया मैं पहली दफ़ा यहां
महज आस रखी महीने की दस तारीख को, धूंसर तनख्वाह वाले-काग़ज़ की
जो थोड़ी देर से ही सही देता था दिलासा
इसकी ख़ातिर मैं पीस देता था अपना कोना, अपने शब्द
काम से नहीं कर सकता था नागा, नहीं मिलेगी बीमारी की छुट्टी
नहीं चलेगा कोई निजी बहाना
देर से आना नहीं है, जल्दी जाना नहीं है
असेम्बली लाइन में खड़ा मैं सीधा लोहे के छड़ माफिक, हाथ जैसे हवा में उड़ रहे हों
न मालूम कितने दिन,कितनी रात
क्या मैं-ऐसे- खड़े-खड़े सो गया?
(20 अगस्त 2011)
मज़दूरी पर्दे में छुपी है
2.
अब तो मशीन भी मुंडी हिला रही है
बंद पड़े वर्कशॉप में ज़ंग खाया लोहा पड़ा है
मज़दूरी पर्दों में छुपी है
जैसे नौजवान मज़दूर अपने दिल में दफ्न रखते हैं मोहब्बत
वक्त नहीं जज्बातों के लिए, भावनाएं धूल में बिला जाती हैं
उनके पेट में भर गया है लोहा
है उसमें एसिड, सल्फर और नाइट्रिक
जैसे गिरने को होते हैं उनके आंसू, कारखाना उसे भी कब्जा लेता है
वक्त बीतता जाता है, उनके सिर कुहांसे में गुम हो जाते हैं
बाहर का वज़न घटाता है उनकी उम्र, दर्द रात-दिन ओवरटाइम कराता है
वे ताउम्र, वक्त पूरा होने से पहले, चक्कर खा कर गिरते नहीं देखे जाते
आड़ी तिरछी ताकतें छील देती हैं त्वचा
वो ये तब है जब चमड़े पर एल्युमीनियम की एक परत सी चढ़ी है
कुछ फिर भी सहते जाते हैं, जबकि बाकियों को उठा ले जाती है बीमारी
मैं उन दोनों के बीच ऊंघ रहा हूं, कर रहा हूं रखवाली
हमारे नौजवानों के आखिरी कब्र की।
(21 दिसम्बर 2011)
संघर्ष
3.
वे सब कहते हैं
मैं थोड़ा कम बोलता हूं
नहीं करता मैं इससे इन्कार
लेकिन सच तो ये है
मैं बोलूं या ना बोलूं
इस समाज से करूंगा हमेशा
संघर्ष।
(7 जून 2013)
ज़मीन पर गिरा स्क्रू
4.
एक स्क्रू गिर गया है जमीन पर
उछल के हो गया है सीधा, हल्के से झन्न से बज के
नहीं खींचेगा ये किसी का ध्यान
पिछली बार की तरह
ऐसी रात में
जब तलक घुस न जाये किसी के पांव में!
(9 जनवरी 2014)
मैं और मेरे दादा
5.
गांव के बुर्जुग कहते हैं
मैं अपने दादा के जवानी के दिनों सा दिखता हूं
लेकिन बार बार उनकी बात सुनने के बाद
मुझे लगने लगा
मैं और मेरे दादा एक जैसे दिखते हैं
चेहरे के उतार-चढ़ावों में
मिजाज़ और आदत में
ऐसे जैसे हम दोनों ने लिया हो एक ही कोख से जन्म
वे उन्हें लग्गी कहते थे
और मुझे कपड़ा लटकाने वाला हैंगर
वो अक्सर निगल जाते थे अपने मन के भाव
मैं अक्सर बोलने लगता हूं मीठा
उन्हें पहेलियां बुझाना अच्छा लगता था
और मुझे हो जाता है पूर्वाभास
(मुझे होनी की पहले से लग जाती है खबर)
1943 का पतझड़
1943 के पतझड़ में, जापानी दैत्यों ने किया था हमला
और ज़िन्दा जला दिया मेरे दादा को
और 23 की उम्र में
इस बरस मैं होऊंगा तेईस का
(18 जून 2013)
मेरी ज़िन्दगी एक अधूरा सा सफ़र है
6.
ये ऐसी बात है जिसे किसी ने सोचा न था
मेरी ज़िन्दगी एक सफ़र है
अभी भी है मंजिल से दूर
लेकिन आधे रस्ते पर ही रुक गया है उसका इंजन
यूं नहीं कि ऐसी मुश्किलें
पहले नहीं आती थीं
लेकिन वे यूं नहीं आयीं
इतने अचानक
इतनी खूंखार
लगातार संघर्ष
लेकिन बेकार है सब
मैं भी पार पाना चाहता हूं, इस सबसे कहीं किसी से भी ज़्यादा
लेकिन मेरे पांव नहीं देते साथ
मेरा पेट नहीं करता मदद
मेरे शरीर की हड्डियां नहीं देतीं मेरा साथ
मैं अब केवल सीधा लेट सकता हूं
इस अंधेरे में, बाहर भेज रहा हूं
एक खामोश व्यथित संकेत बार-बार
ताकि सुन सकूं व्यथा की गूंज!
(13 जुलाई 2014)
सू लिज्ही की आत्महत्या की खबर सुनकर
(झो जिआओ फॉक्सकॉम में सहकर्मी मज़दूर की कविता)
किसी की ज़िन्दगी का जाना
मेरा आप भी चले जाना है
फिर से कोई स्क्रू ढीला होकर गिरता है
कोई और प्रवासी मजदूर भाई छलांग लगा देता है
तुम मेरे बदले मर गये
मैं तुम्हारे हिस्से का लिख रहा हूं
जब मैं ये कर रहा हूं, तो कसे स्क्रू को और कस रहा हूं
आज हमारे राष्ट्र की 65वीं सालगिरह है
हम कामना करते हैं कि हर्षोंल्लास से मनाये जलसा ये देश
24 बरस के तुम जो कि खड़े हो भूरे फ्रेम वाली तस्वीर में, मुस्कुराते हुए हल्के से
पतझड़ की हवाएं और पतझड़ की बारिश
सफेद बालों वाला पिता, लिये हुए है हंड़िया तुम्हारे राख की
लड़खड़ाते जाता है घर की ओर!
(1 अक्टूबर 2014)
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