जा रहे हम…

– संजय कुंदन-

stranded workers walk through roads
जैसे आए थे वैसे ही जा रहे हम
यही दो-चार पोटलियां साथ थीं तब भी
आज भी हैं
और यह देह
लेकिन अब आत्मा पर खरोंचें कितनी बढ़ गई हैं
कौन देखता है

कोई रोकता तो रुक भी जाते
बस दिखलाता आंख में थोड़ा पानी
इतना ही कहता
– यह शहर तुम्हारा भी तो है

उन्होंने देखा भी नहीं पलटकर
जिनके घरों की दीवारें हमने चमकाईं
उन्होंने भी कुछ नहीं कहा
जिनकी चूडि़य़ां हमने 1300 डिग्री तापमान में
कांच पिघलाकर बनाईं

किसी ने नहीं देखा कि एक ब्रश, एक पेचकस,
एक रिंच और हथौड़े के पीछे एक हाथ भी है
जिसमें खून दौड़ता है
जिसे किसी और हाथ की ऊष्मा चाहिए

हम जा रहे हैं
हो सकता है
कुछ देर बाद
हमारे पैर लडख़ड़ा जाएं
हम गिर जाएं
खून की उल्टियां करते हुए

हो सकता है हम न पहुंच पाएं
वैसे भी आज तक हम पहुंचे कहां हैं
हमें कहीं पहुंचने भी कहां दिया जाता है

हम किताबों तक पहुंचते-पहुंचते रह गए
न्याय की सीढिय़ों से पहले ही रोक दिए गए
नहीं पहुंच पाईं हमारी अर्जियां कहीं भी
हम अन्याय का घूंट पीते रह गए

जा रहे हम
यह सोचकर कि हमारा एक घर था कभी
अब वह न भी हो
तब भी उसी दिशा में जा रहे हम
कुछ तो कहीं बचा होगा उस ओर
जो अपना जैसा लगेगा

हमें वहां नहीं रहना
जहां हमारी हैसियत हमारे ठेले से भी कम हो।

ashish saxena