नौंवें दौर की बातचीत में भी खेती कानूनों को लेकर दोनों पक्षों में नहीं बनी सहमति

नौंवें दौर की बातचीत में भी खेती कानूनों को लेकर दोनों पक्षों में नहीं बनी सहमति

By दीपक भारती

फिर अगली तारीख, जैसे सरकार से वार्ता की अगली डेट लेने आते हों किसान संगठन

15 जनवरी को किसान संगठनों और सरकार के बीच हुई नौंवें दौर की वार्ता का भी कोई नतीजा नहीं निकला। सुप्रीम कोर्ट के खेती कानूनों के अमल पर रोक लगाने और मामले में एक कमेटी बना देने के बाद दोनों पक्षों की यह पहली बातचीत थी।

किसान संगठन और आंदोलनकारी केवल इस बात पर सुकून कर सकते हैं कि कम से कम सरकार उनके साथ बात तो कर रही है वरना एक साल पहले इसी मौसम में शाहीन बाग में महीनों धरना देने वालों पर तो उसने ध्यान तक नहीं दिया था, और फिर भी उसकी सेहत पर कोई असर नहीं पडा।

किसान संगठनों और सरकार के बीच अब तक की वार्ताओं को देखें तो ऐसा लगता है कि सरकार ने आंदोलन तोडने का मन बना लिया है। सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं दायर करवाकर कमेटी बनवाने के पीछे उसकी यही सोच रही होगी।

अब जब कमेटी बन गई है, तो वार्ता में सरकार के नुमाइंदों की बाॅडी लैंग्वेज दबंगों वाली हो गई है कि देखो जी, हम तो अभी भी बात कर रहे हैं, वरना, करना तो अब सब कुछ कमेटी को है और ये लोग हैं, जो न हमारी बात सुन रहे हैं, न ही कमेटी के सामने जाना चाहते हैं।

किसान संगठनों में से एक के नेता बलबीर सिंह राजेवाल ने पिछली बार सरकार के साथ बैठक में जो बात कही, दरअसल वही मोदी सरकार सुनना चाहती है। आठवें दौर की वार्ता में छोटी सी क्लिप में किसान नेता राजेवाल की जो बात सुनाई पड रही है, दरअसल उसी में किसान आंदोलन की ताकत और मोदी सरकार की नीयत का सार है।

राजेवाल कहते हैं, आप यानी सरकार को कोई चिंता नहीं है, आपके पास ताकत है और आप हमें कम समझ रहे हैं. हम सब कुछ समझते हैं, लग रहा है कि हमारे आंदोलन से आपको कोई फर्क नहीं पड रहा. हमारी मांगों के बजाय आप हर बार, बार-बार हमें टाल रहे हैं ।

शब्द चाहें कुछ अलग हों, किसान नेता की गंभीर आवाज में जो बात सुनाई पड रही थी, उसमें चाहे तो आप भारतीय लोकतंत्र की बेबसी महसूस कर लें या एक बहुमत से चल रही सरकार की बेशर्मी।

सोशल मीडिया में जोक की शक्ल में जो बात चल रही है, वह मजाक भर नहीं है कि सरकार जीएसटी लाई जो व्यापारियों की समझ में नहीं आया, सीएए लेकर आई जो अल्पसंख्यकों के गले नहीं उतरा और उन्होंने शाहीन बाग जैसा ऐतिहासिक आंदोलन करके रख दिया, और अब खेती से जुडे कानून लाई, जिन्हें किसान नहीं समझ पा रहे यानी दिमाग केवल सरकार के पास है।

सुप्रीम कोर्ट में ने जो कमेटी बनाई, उसमें भी खेती कानूनों के पैरोकार ही रखे गए हैं, यानी सरकार और सिस्टम, जिनमें सर्वोच्च अदालत भी शामिल हो चुकी है, यही समझता है कि लोग कुछ नहीं समझते।

क्या लोग इतनी सी बात भी नहीं समझते कि बहुमत से चुनी गई सरकार को संसद में कानून बनाने का अधिकार है, क्या लोगों को यह भी नहीं मालूम कि सरकार के पास अपने कानून लागू करवाने के लिए पूरी मशीनरी है, और यह कि सरकार के हर कदम का सडक पर उतरकर विरोध नहीं किया जा सकता।

क्या लोग इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते कि किसी भी तरह के प्रदर्शन, आंदोलन और हडताल से आम लोगों को कुछ न कुछ तकलीफ जरूर होती है।

जाहिर है लोग सब समझते हैं, वे अब अपने नागरिक होने की ही नहीं, मोदी और शाह जैसे चुनाव जिताउ मशीनों की वजह से भारतीय लोकतंत्र की सीमा भी समझने लगे हैं।

अगर नहीं समझे हैं तो किसान आंदोलन शायद हर भारतीय को यह सीमा समझने का मौका भी दे।

दरअसल लोग सब कुछ जानते, समझते हैं, बस सरकार यह समझना नहीं चाह रही कि इस तरह सिस्टम की हेकडी और संस्थाओं को आला दर्जे का नपुंसक बना देने का नतीजा आखिर होगा क्या और वह कब आएगा।

संस्थाओं की बात इसलिए क्योंकि बीते पचास दिनों में आप मीडिया के बडे हिस्से को देखें तो उसे बंगाल चुनाव, वैक्सीन की तैयारी और इसके अलावा तमाम मुददों की चिंता है, सिवाय किसान आंदोलन की।

मीडिया के एक हिस्से की टोन तो यही है कि किसान तेजी से विकास के रास्ते पर आगे जा रही मोदी सरकार की स्पीड कम रहे हैं और अपना फायदा न समझने की बेवकूफी कर अपने साथ देश का भी नुकसान कर रहे हैं।

किसान नेता राजेवाल की बात पर फिर आते हैं, सरकार की हेकडी के बाद रास्ता और होगा क्या, कल अल्पसंख्यकों की बात थी, तो वही महीनों डटे रहे, आज किसानों की है तो वे सडकों पर हैं, नए श्रम कानूनों को असर दिखेगा तो कल को मजदूर भी ऐसा कुछ करने का मजबूर होंगे।

यानी हर तबका अगर अगर एक करके अपने अधिकारों के लिए सरकार से गुहार लगाएगा और सरकार केवल काॅरपोरेट के हितों के लिए काम करती रहेगी तो आंदोलनों को तितर बितर करती रही तो लोग करेंगे क्या।

यकीन मानिए इन्हीं सवालों से रास्ता निकलेगा, इस बार सरकार की हेकडी और चालाकी नहीं चलने वाली। यह जीने और मरने की लडाई है। सरकार भले ही बंगाल चुनाव जीतकर इस आंदोलन की आंच को कम करना चाहे, इसकी चिंगारी अबकी बार तो बदलाव की लौ जलाकर रहेगी।

इसलिए क्योंकि जो लोग इस आंदोलन की मशाल थामे हुए हैं, वे भरोसा जगाते हैं, वे अन्ना हजारे की तरह किसी पार्टीं या संगठन की आड से कोई शिकार नहीं कर रहे, वे अपनी जमीन, अपनी आन, अपनी जिंदगी की लडाई लड रहे हैं।

उनके किसी बडे नेता ने एक बार भी मोदी, शाह, केंद्र सरकार और भाजपाको को लेकर कोई हल्की बात नहीं की। सरकार की साजिशों की समझकर उनका जवाब दिया है, मजबूती दिखाई है और अपने आंदोलन की गरिमा को लगातार नई उंचाई दी है।

Abhinav Kumar

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