दिल्ली के 40 हजार से ज्यादा पल्लेदारों के सामने रोजी-रोटी का संकट, मजदूर का दर्जा न होने से सरकारी मदद भी नहीं नसीब
पूरे देश में अनलॉक की प्रक्रिया शुरू हो गई है। सभी क्षेत्रों में काम धीरे-धीरे रफ्तार पकड़ रहा है। लेकिन दिल्ली के हजारों पल्लेदारों के सामने अब भी आजीविका का संकट बरकरार है।
लॉकडाउन में कठिनाइयों के साथ गुजारा करने वाले पल्लेदार अनलॉक में भी अपनी स्थिति सुधरने को लेकर आशंकित हैं।
अनलॉक की प्रक्रिया भले ही दूसरे वर्गों के लिए राहत की सांस लेकर आई लेकिन पल्लेदारों के पास लॉकडाउन हटने के बाद भी परिवार का गुजारा चलाने लायक काम नहीं है।
दिल्ली की आजादपुर मंडी में ऐसे हजारों पल्लेदार हैं। ये पल्लेदार ज्यादातर बिहार, पूर्वी यूपी, पश्चिम बंगाल और झारखंड से ताल्लुक रखते हैं।
गांव कनेक्शन ने इन पल्लेदारों और इनसे जुड़े दूसरे पक्षों से बातचीत के आधार पर एक खबर प्रकाशित की है।
बिहार में खगड़िया जिले के थाना अलौली के गांव मूजौना के रहने वाले पल्लेदार सियाराम यादव (55वर्ष) कहते हैं, “काम ही नहीं है। पिछले लगभग 2 हफ्तों से खाली बैठा हूं। खाली बैठकर खाना है, जिससे घर पर भी कुछ पैसा नहीं भेज पा रहे हैं। यहीं मंडी में रहते हैं, यहीं खाना बनाते हैं और खाते हैं। जितनी बोरियां उठाएंगे उसके आधार पर हम लोगों को पैसा मिलता है। जो घर भेजने के लिए बचा रखे थे उसी में से खर्च हो रहा है। अब तो यही सोच रहे हैं कि भूख से अपनी जान बचाएं कि अपने परिवार की?”
बिहार के समस्तीपुर जिले में गांव कमलेश्वरी पोस्ट मर्थुआ के पल्लेदार अमोल यादव जोकि प्याज आढ़ती के साथ काम करते हैं, वे हालात पर गुस्सा प्रकट करते हुए कहते हैं, “हम लोग यहां बहुत सालों से काम कर रहे हैं लेकिन आजतक किसी भी सरकार ने एक रुपए तक की मदद नहीं की। सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ता कि मजदूर मरें या जिएं। 2019 में आजमगढ़ के रहने वाले अशोक, जो यहां मंडी में 20 सालों से काम कर रहे थे, उनकी डेंगू से मौत हो गई थी। कोई पूछने वाला नहीं था। यहां पीने का पानी तो शुद्ध रूप से मिलता नहीं है और चीजों की क्या ही बात की जाए।”
आजादपुर मंडी में सजग नाम की संस्था के जरिए पल्लेदारों के बीच काम करने वाले प्रकाश कुमार (45वर्ष) बताते हैं कि मंडी में करीब 2500 आढ़ती (कमीशन एजेंट) हैं। हर आढ़ती के यहां औसतन 6-15 पल्लेदार काम करते हैं। कुछ मजदूर आढ़ती के बगैर भी काम करते हैं।
प्रकाश के मुताबिक, “मंडी में फल-सब्जी सब मिलाकर करीब 40 हजार पल्लेदार जरुर होंगे। लेकिन इतनी बड़ी संख्या होने के बावजूद सरकार द्वारा इन पल्लेदारों को इस कोरोना काल में किसी भी प्रकार की कोई सहायता नहीं की गई।”
प्रकाश कहते हैं कि काम बंद या कम होने से बहुत सारे लोगों के सामने खाने का संकट हो गया था। छात्रों के एक समूह ‘फीडिंग वर्कर्स ऑफ दिल्ली’ के नाम से कैंपेन चलाकर राशन बांटने का काम कर रहा है। इस ग्रुप में दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र और स्वतंत्र पत्रकार शामिल हैं।
असंगठित क्षेत्र के मजदूरों में तमाम क्षेत्रों के मजदूर हैं लेकिन सभी क्षेत्रों के मजदूरों के हालात भी विभन्न है। निर्माण क्षेत्र के मजदूर भी असंगठित क्षेत्र में ही आते हैं लेकिन उनकी स्थिति पल्लेदारों से भिन्न है।
निर्माण मजदूरों के लिए द बिल्डिंग एंड अदर्स कंस्ट्रक्शन वर्कर (REGULATION OF EMPLOYMENT AND CONDITIONS OF SERVICE) ACT, 1996 में पास किया गया था। इन कर्मचारियों की भलाई के लिए एक बोर्ड भी है, जिसने दोनों साल के लॉकडाउन में मजदूरों को तीन बार 5000-5000 रुपए दिए हैं।
निर्माण श्रमिकों के लिए इस कानून को पास कराने में अहम भूमिका निभाने वाले ‘निर्माण’ संस्था के संस्थापक सुभाष भटनागर बताते हैं, “पल्लेदारों के लिए अभी दिल्ली में कोई कानून नहीं है जबकि कंस्ट्रक्शन वर्कर्स के लिए 1996 में कानून बना जिसके अंतर्गत 10 लाख से अधिक लागत के प्रोजेक्ट पर मजदूरों की सामाजिक सुरक्षा के लिए 1-2 प्रतिशत सेस लगाकर उस पैसे को एक कमेटी के पास जमा करते हैं और वो कमेटी निर्माण मजदूरों की सामाजिक सुरक्षा का ध्यान रखती है। दिल्ली के कंस्ट्रक्शन वर्कर्स वेलफेयर बोर्ड के पास मजदूरों के 30-32 हजार करोड़ रुपए हैं और इस बोर्ड ने कोरोनाकाल में मजदूरों को तीन बार में 5000-5000 रुपए की मदद की है।”
पल्लेदारों के मुताबिक उन्हें नगद आर्थिक सहायता तो दूर की बात केंद्र या दिल्ली सरकार किसी से भी खाना या सूखा राशन तक नहीं मिला। क्योंकि मंडियों के पल्लेदारों को सरकार मजदूरों की श्रेणी में मानती ही नहीं है।
आजादपुर मंडी में पल्लेदारों को राशन बांटने वाले छात्रों में से एक रोशन पांडेय (25 वर्ष ) बताते हैं, “2019 में एक मजदूर की ट्रक के नीचे आ जाने से मौत हो गई, लेकिन उसके पास एक सबूत भी नहीं था कि वो वहां मजदूरी करता है। पुलिस ने आंदोलन कर रहे मजदूरों को डरा-धमका कर मामला रफा-दफा कर दिया था।”
वो आगे बताते हैं, “दिल्ली कृषि उपज विपणन विनिमयन अधिनियम- 1998 के अनुसार एपीएमसी ( APMC) 07 तरीके का लाइसेंस जारी करती है। जिसमें पल्लेदारों के लिये G श्रेणी के लाइसेंस का प्रावधान है। लेकिन कभी संसाधनों और मैन पावर की कमी, तो कभी तकनीकी खामियों का हवाला देकर पल्लेदारों को लाइसेंस देने के सवाल को टाल दिया जाता है।”
इस G श्रेणी का लाइसेंस पल्लेदारों को एक पहचान देता है। इस लाइसेंस के मिल जाने के बाद पल्लेदारों को एक पहचान मिल जाती है कि वो एक मजदूर हैं। अगर उनके साथ कोई दुर्घटना होती है तो वो इस लाइसेंस के आधार पर मुआवजे की मांग कर सकते हैं।
नागरिक समाज के संगठनों, एनजीओ आदि के द्वारा दिल्ली मथाड़ी कानून तैयार किया गया है। The Delhi Mathadi, Palledars And Other Unprotected Manual Workers’ (Regulation Of Employment And Welfare) Bill, 2019 नाम से आए इस बिल में असंगठित मजदूरों के रोजगार और जीवन की सुरक्षा की गारंटी के लिए कई सारे प्रावधान किए गए थे, लेकिन राजनीतिक उदासीनता के चलते ये बिल ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है।
दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने इसको 2020 के विधानसभा से पहले पेश किया लेकिन एलजी (उपराज्यपाल) द्वारा इसे रोक दिया गया। जिसके बाद करीब डेढ साल का समय हो गया है, इस किसी ने कोई कदम नहीं उठाया।
जहां दिल्ली सरकार से कोई भी इसपर बात नहीं कर रहा है तो विपक्ष, सत्ता पक्ष पर आरोप लगा रहा है। हालांकि इस पूरी राजनीति में 40 हजार पल्लेदारों की जान पिस रही है।
(साभार- गांव कनेक्शन)
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