फ्रांस में जनविद्रोह से पूंजीवाद का ‘बास्तील’ हिला, श्रम क़ानूनों को हाथ लगाना मैक्रों को भारी पड़ा
फ्रांस की लंबी क्रांतिकारी परंपरा रही है। 1789 की क्रांति ने सामंतवाद का खात्मा कर दिया था।
1871 की सर्वहारा क्रांति ने पूंजीवाद-सामंतवाद का ख़ात्मा कर समाजवादी मॉडल के ‘पेरिस कम्यून’ की स्थापना की।
ये दुनिया में मजदूरों-किसानों का पहला राज था। उसके बाद निरंतर संघर्ष चलते रहे।
1968 में फ्रांस के छात्रों के विद्रोह ने पूरी दुनिया पर असर डाला था। माना जा रहा है कि मौजूदा विद्रोह 1968 से भी बड़ा है।
ये गुस्सा डीज़ल की क़ीमतों को लेकर भले फूटा हो लेकिन पिछले कुछ महीनों से जिस तरह श्रम कानूनों को पूंजीपतियों के हवाले करने का अभियान चल रहा था, वो बड़ा कारण लगता है।
घटनाक्रम
फ्रांस में व्यापक जनता के इस विद्रोह से इस बात की उम्मीद बन रही है कि पूंजीवाद के किलों की ध्वस्त होने की शुरुआत भी शायद फ्रांस (बास्तील) से हो।
आइए ज़रा पिछले दो हफ्तों से जारी घटनाक्रम पर नज़र दौड़ाते हैं।
पीेला जैकेट पहन कर प्रदर्शन करने के कारण इसे येलो शर्ट प्रोटेस्ट कहा जा रहा है।
17 नवंबर को 3 लाख लोग से अधिक सड़कों पर उतरे।
30 नवंबर को एक लाख 60 हज़ार लोगों ने प्रदर्शन में हिस्सा लिया।
अबतक 4 लोग मारे गए हैं, जबकि 400 से अधिक लोग घायल हुए हैं और सैकड़ों लोग जेलों में डाल दिए गए हैं।
प्रदर्शन के दौरान जनता ने कारोबारी ठिकानों पर हमला बोला और उन्हें अपने कब्ज़े में ले लिया।
बड़े पैमाने पर बड़े मालों और शापिंग काम्पलेक्स पर लोगों ने धावा बोल दिया।
सरकारी भवनों को भी लोगों ने निशाना बनाया, जली हुई कारें और अन्य वाहन फ्रांस की सड़कों का आम नज़ारा बन गए हैं।
बडे पैमाने पर आंसू गैस के गोले दागे गए, पानी की बौछारें हुईं, पुलिस और विद्रोहियों के बीच जगह-जगह भिड़ंत हुई।
विद्रोहियों की प्रमुख मांगें और असंतोष एवं आक्रोश का कारण
ग्रीन टैक्स के नाम पर डीज़ल और पेट्रोल पर लगाए टैक्स में कटौती हो।
बताते चलें कि पिछले कुछेक महीनों के भीतर फ्रांस में डीजल-पेट्रोल के दामों में 23 प्रतिशत की बेतहाशा वृद्धि हुई है।
फ्रांस में एक परिवार को जीने के लिए न्यनूतम जितना चाहिए बहुसंख्य परिवारों की उस आमदनी में तेजी से गिरावट आ रही है।
प्रदर्शनकारी मांग कर रहे थे कि हमें जीने दो और बेरोजगारी खत्म करो। यहां 9.5 प्रतिशत बेरोजगारी है।
18 महीने पहले चुने गए मैक्रों ने बड़े पैमाने पर रोज़गार देने का वादा किया था, लेकिन बेरोज़गारी की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ।
श्रम क़ानूनों को पूंजीपतियों के हवाले करने का विरोध
दुनियाभर के कार्पोरेट चाहते हैं कि फ्रांस अपने श्रम कानूनों में बदलाव कर पूंजीपतियों के अनुकूल बनाए।
और पिछले ही साल लोकप्रिय बहुमत से राष्ट्रपति बने मध्यमार्गी मैक्रों भी देश को उसी तरफ़ धकेलना चाह रहे हैं।
जबकि अन्य यूरोपीय देशों के मुकाबले फ्रांस में मज़दूरों के पक्ष में बहुत सख़्त क़ानून हैं।
प्रर्दशनकारी नव उदारवादी, पूंजीवादी नीतियों के खात्मे और राष्ट्रपति मैक्रों के इस्तीफ़े की भी मांग कर रहे हैं।
यूरोप का अरब स्प्रिंग
फ्रांस में व्यापक जनविद्रोह शुरू हो गया है। मैक्रों ने जनविद्रोह की स्थिति की समीक्षा के लिए वरिष्ठ मंत्रियों की बैठक बुलाई।
इसमें इस बात की संभावना व्यक्त की गई कि व्यापक अशान्ति, आगजनी, तोड़-फोड़ और लूटपाट की घटनाओं की देखते हुए देश में आपातकाल लगाया जा सकता है।
जी-20 की बैठक में भी फ्रांस में विद्रोह की स्थिति पर चिंता ज़ाहिर की गई। मैक्रों ने कहा कि हिंसा बर्दाश्त नहीं की जाएगी।
किसी ऐसे मंच पर राष्ट्रपति को ये बयान देने के लिए मज़बूर होना पड़ा, अपने आम में स्थिति की गंभीरता को दर्शाता है।
फ्रांस में लोगों का राजनीतिक पार्टियों से मोहभंग तेजी से हो रहा है।
18 महीने में ही मोहभंग
इसी के चलते लोगों ने 18 महीने पहले ही गैर राजनीतिक व्यक्ति, जो पेश से बैंकर थे, मैक्रों को राष्ट्रपति चुना था।
उन्होंने लोगों की जीवन स्थिति में सुधार करने और सबको रोजगार मुहैया कराने का वादा किया।
संसदीय चुनानों में भी लोगों ने परंपरागत पार्टियों को दरकिनार कर मैक्रों की नई-नई पार्टी को समर्थन दिया था।
लेकिन सत्ता में आने के साथ ही मैक्रों ने नवउदारवादी पूंजीवादी नीतियों को और जोर-शोर से लागू करना शुरू कर दिया।
जिसका परिणाम व्यापक पैमाने पर असंतोष के रूप में सामने आया है।
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