घर भेजे जाने की मांग पर 35 मज़दूरों को 36 दिनों तक जेल में रखा, हाईकोर्ट से मिली ज़मानत
जिस देश में उपहार सिनेमा अग्निकांड में 59 व्यक्तियों की हत्या के इल्जाम में सजा होने पर भी अंसल भाइयों को वृद्धावस्था के नाम पर रिहा कर दिया जाता है, जहाँ अदालतें पूँजीपतियों और उनके शीर्ष प्रबंधकों की जमानत पर आधी रात को भी सुनवाई करती हैं, वहाँ अहमदाबाद में 35 मज़दूरों को इस ‘गंभीर अपराध’ में 36 दिन जेल में रखा गया।
वे तालाबंदी के दौरान अपने गाँव लौटने के इंतजाम वास्ते रोजगार देने वाले सरकारी संस्थान आईआईएम के प्रबंधन से मिलने का प्रयास कर रहे थे और उनकी जमानत के लिए हाईकोर्ट तक जाना पड़ा।
18 मई को आईआईएम की नई इमारत के निर्माण में कार्यरत 100 मजदूर गाँव जाने की माँग पर प्रबंधन से मिलना चाहते थे। इनका कहना था कि इस दौरान काम बंद होने से इन्हें मजदूरी नहीं मिल रही है और संक्रमण का भी जोखिम है।
उनकी मांग थी कि इन्हें अपने घरों को लौटने की कोई व्यवस्था की जाये। पुलिस ने लाठीचार्ज करने के बाद इनमें से 35 को दंगा-तोड़फोड़ व पत्थरबाजी के इल्जाम में गिरफ्तार कर जेल भेज दिया।
इन पर दंड संहिता की आधा दर्जन से अधिक धाराओं के साथ ही एपिडेमिक डीजीजिज़ एवं डिजास्टर मैनेजमेंट कानून के उल्लंघन का मुकदमा भी दर्ज कर लिया।
- वर्कर्स यूनिटी के समर्थकों से एक अर्जेंट अपील, मज़दूरों की अपनी मीडिया खड़ी करने में सहयोग करें
- वर्कर्स यूनिटी को आर्थिक मदद देने के लिए यहां क्लिक करें
मज़दूरों पर दर्ज मुकदमे वापस नहीं हुए
23 जून को अहमदाबाद हाईकोर्ट ने इन्हें जमानत तो दे दी है, पर गुजरात सरकार ने अभी भी इनके ख़िलाफ़ दर्ज मुकदमों को वापस नहीं लिया है।
इनकी जमानत की कोशिश करने वाले हाईकोर्ट के जाने वाले वकील नीरव मिश्रा ने बताया कि इन्हें अपने राज्य जाने की अनुमति तो मिल गई है किन्तु मुकदमे की तारीखों पर अहमदाबाद आना पड़ेगा।
लेकिन अगर अब ये काम के लिए अहमदाबाद न आकर अपने गाँव में रहना चाहें या इन्हें कहीं और काम मिले तो सरकार द्वारा मुकदमा वापस न लेने से इनके लिए बड़ी कानूनी दिक्कतें सामने आने वाली हैं।
ये मजदूर आईआईएम अहमदाबाद के नये परिसर के निर्माण के काम में लगे थे जिसका 300 करोड़ रुपये का ठेका पीएसपी प्रोजेक्ट्स लि. नामक कंपनी को दिया गया है।
इस कंपनी को गुजरात सरकार से भी विधानसभा भवन निर्माण और साबरमती रीवरफ्रंट जैसे बड़े प्रोजेक्ट के ठेके मिलते रहे हैं। इसलिए इन मज़दूरों के लिए ये दोनों संस्था ही उत्तरदायी हैं।
अहमदाबाद के वकील-कार्यकर्ता आनंदवर्धन याग्निक के अनुसार, ‘आईआईएम और पीएसपी प्रोजेक्ट्स दोनों ही मज़दूरों को इस स्थिति में पहुंचाने के जिम्मेदार हैं।’
- सैलरी और राशन को लेकर सूरत में सड़क पर उतरे हज़ारों प्रवासी मज़दूर
- सूरत में मज़दूरों का फिर गुस्सा निकला, एशिया की सबसे बड़ी कंपनी डायमंड बोर्स में तोड़फोड़
आईआईएम और ठेकादारों ने तोड़ा क़ानून
याग्निक ने बताया कि आईआईएम व कंपनी दोनों तालाबंदी में ढील मिलते ही काम शुरू करना चाहते थे इसलिए इन मजदूरों को घर नहीं जाने देना चाहते थे हालांकि यह उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।
याग्निक ने आईआईएम और गुजरात सरकार दोनों को 19 मई को ही कानूनी नोटिस देकर कहा था कि यह अंतरराज्यीय प्रवासी मज़दूर कानून, 1979, न्यूनतम मज़दूरी कानून, 1949 व श्रमिकों के मानवाधिकारों का उल्लंघन है।
कानूनी नोटिस में कहा गया था कि निर्माण कार्य में लगे पश्चिम बंगाल व ओडिशा के इन 500 मजदूरों को तालाबंदी के पहले भी न्यूनतम मजदूरी का भुगतान नहीं किया जा रहा था।
तालाबंदी के बाद तो तो इन्हें कोई मजदूरी नहीं मिल रही थी और इन्हें घर लौटने से भी रोका जा रहा था जबकि अंतरराज्यीय प्रवासी श्रमिक कानून, 1979 की धारा 14 तथा 15 के अंतर्गत ठेकेदार व मुख्य रोजगारदाता दोनों पर ही इनके मूल राज्य को वापस लौटने, विस्थापन और यात्रा भत्ता सहित यात्रा प्रबंध की कानूनी ज़िम्मेदारी बनती है।
इसी कानून की धारा 13 में यह भी कहा गया है कि इन मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी कानून, 1948 के अनुसार न्यूनतम मजदूरी दी जानी चाहिये। लेकिन आईआईएम तथा पीएसपी प्रोजेक्ट्स दोनों इन कानूनों का उल्लंघन कर रहे थे।
- सूरत में हज़ारों मज़दूरों और पुलिस के बीच पथराव, लाठीचार्ज, आंसू गैस के गोले
- सूरत में मज़दूरों का फिर गुस्सा निकला, एशिया की सबसे बड़ी कंपनी डायमंड बोर्स में तोड़फोड़
बंधुआ मज़दूरों जैसा था बर्ताव
कई सप्ताह तक किसी ने उनकी स्थिति पर कोई गौर नहीं किया। इसलिए 18 मई को इन्हें विरोध के लिए विवश होना पड़ा। वे सिर्फ आईआईएम के प्रबंधन से मिलना चाहते थे मगर उन्हें अंदर नहीं जाने दिया गया। इसी वजह से सारी घटना हुई।
3 जून को जमानत आदेश में उच्च न्यायालय ने भी माना कि तालाबंदी में उनके पास न रोजगार न था, न पैसा, और वे खाने तक से वंचित थे। इन्हीं स्थितियों में वे घर लौटना चाहते थे और यही 18 मई की अवांछित घटना की वजह थी।
याग्निक इसे बंधुआ मजदूरी की संज्ञा देते हुये कहते हैं कि अगर आईआईएम जैसे संस्थान ऐसा कर बच सकते हैं तो बाकी देश की स्थिति क्या होगी।
हालाँकि हमने यहाँ एक ही घटना का विस्तृत विवरण दिया है पर तालाबंदी के दौरान अखबारी खबरों के अनुसार ऐसी सैंकड़ों घटनायें हुईं हैं जहाँ काम और मजदूरी के बिना भूख और बेघरी से परेशान मज़दूरों के खिलाफ तालाबंदी के उल्लंघन के नाम पर विभिन्न क़ानूनों के उल्लंघन के मामले दर्ज किए गए हैं और उन्हें गिरफ्तार भी किया गया है।
इससे पुलिस एवं न्याय व्यवस्था सहित पूरी राजसत्ता का पूंजीवादपरस्ती वर्ग चरित्र पूरी तरह जाहिर होता है।
(स्रोत: न्यूज़क्लिक, 23 जून 2020)
(मज़दूर मुद्दों पर केंद्रित ‘यथार्थ’ पत्रिका के अंक तीन, 2020 से साभार)
(वर्कर्स यूनिटी स्वतंत्र निष्पक्ष मीडिया के उसूलों को मानता है। आप इसके फ़ेसबुक, ट्विटर और यूट्यूब को फॉलो कर इसे और मजबूत बना सकते हैं। वर्कर्स यूनिटी के टेलीग्राम चैनल को सब्सक्राइब करने के लिए यहां क्लिक करें।))