जम्मू के 19 मजदूरों की कहानी: सरकारी तंत्र के झूठ और बदनीयती की मिसाल
यह वह प्रशासन है जो खुद को कोरोना के ख़िलाफ़ जंग का महानायक साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है। देश जब मुश्किल में है और हर किसी पर मुसीबत अलग अलग ढंग से वार कर रही है, ऐसे वक्त में भी प्रशासनिक अकड़, लालफीताशाही और नाकारापन अपने चरम पर है। नेता भाषण देने और जनता को बरगलाने में व्यस्त हैं, तो प्रशासन अपनी शक्ल छुपाने में महारत हासिल कर चुका है।
यकीन जानिये हमें कोरोना से लड़ने, मुसीबतजदा साथियों के साथ खड़े होने के साथ साथ भ्रष्ट और नाकारा व्यवस्था से लड़ने के अपने ज़रूरी काम को भी अंजाम देना होगा।
रोज की तरह मजदूर सहयोग केंद्र के साथी फिर भोपाल में विदिशा बाईपास पर थे। तकलीफ़ों से घिरे इसी देश के नागरिक जो संविधान में मिले अधिकारों के तहत एक राज्य से दूसरे राज्य में अपनी मेहनत के बल पर जीने की कोशिश कर रहे थे, अब लौट रहे हैं।
थके, हारे, निराश, गुस्से में और निपट अंधेरे की ओर। साथी उन्हें खाना, पानी, चाय, मेडिकल सहायता के साथ रास्ते की जानकारी दे रहे थे।
इसी बीच सुबह करीब 9 बजे इंदौर से पैदल चलकर आया 19 मजदूरों का एक समूह मिला। यह गति कंपनी में काम करते थे और इंदौर से चलकर अपने गृह ज़िले जम्मू जाने के लिए निकले थे। बुरी तरह थके मांदे इन 19 नागरिकों के पास कोई जानकारी नहीं थी कि वे आगे कैसे यात्रा करेंगे।
प्रशासन के किसी आदेश के बारे में उन्हें पता नहीं था कि बाहर जाने वालों के बसें संचालित की हैं या नहीं। हेल्पलाइन पर उन्होंने कॉल किया लेकिन कोई जवाब नहीं मिला आखिर वे चल पड़े।
हमने उन्हें खाना दिया, पानी पिलाया। कुछ के पैरों में छाले थे तो प्राथमिक उपचार किया। चप्पलें मुहैया कराईं। हमने उन्हें ईपास एप्लाई करने के बारे में जानकारी दी और फिर एक साथी ने ये प्रक्रिया पूरी की। साथ ही जम्मू प्रशासन और भोपाल प्रशासन से समन्वय की कोशिशें शुरू कीं।
दिल्ली स्थित जम्मू कश्मीर भवन में मिसेज विदुषी से संपर्क हुआ, वे वहां नोडल अधिकारी हैं। उन्होंने हमारी बात डिविजनल कमिश्नर से कराई। उन्होंने हमें जम्मू के डिप्टी कमिश्नर से बात करने को कहा। हमने उनसे भोपाल कलेक्टर और कमिश्नर से समन्वय करने का अनुरोध किया।
जम्मू के डिप्टी कमिश्नर ने कहा कि वे परमिशन के लिए काम कर रहे हैं। उन्होंने यह भी कहा कि हम जम्मू से बस भेजेंगे, लेकिन इसमें दो दिन लग जाएंगे, अगर राज्य इजाज़त देता है, तो हम भोपाल प्रशासन से अनुरोध करेंगे कि वे बस भेज दें।
बाद में उन्होंने कहा कि इंटर स्टेट बसों की परमिशन नहीं हैं। उन्होंने आगे बात करने का वादा कर हमें सूचित करने को कहा।
करीब 3 बजे राजस्व के अधिकारी चंद्रशेखर विदिशा बाईपाए पर आए और उन्होंने जम्मू के प्रवासियों को वहां देखा तो उनसे ग्वालियर के एक वाहन में बैठने को कहा। जम्मू के मजदूरों ने हमें कॉल किया।
तहसीलदार ने कहा कि हम बिना परमिशन के उन्हें इस तरह “रोक” नहीं सकते। हमने उन्हें बताया कि हमने उन्हें रोका नहीं है, प्रशासन से बातचीत होने तक उन्हें वहीं रहने को कहा है, ताकि संपर्क में रहें। सुबह से हम जम्मू और भोपाल प्रशासन से बातचीत कर रहे हैं।
जम्मू प्रशासन काफी प्रयास कर रहा है, लेकिन भोपाल प्रशासन की ओर से अब तक कोई जवाब नहीं आया है। चंद्रशेखर ने कहा कि इंटर स्टेट मूवमेंट की इजाजत नहीं है। प्रवासी मजदूर चाहें तो सागर पब्लिक स्कूल में रात गुजार सकते हैं।
इसके बाद हमने तहसीलदार चंद्रशेखर को अपने काम के बारे में बताया। उन्होंने काम की तारीफ़ भी की, साथ ही वे इस बात से चिंतिंत दिखे कि मजदूरों का मामला मीडिया की नजर में आ रहा है।
मजदूरों की आगे की यात्रा को उनकी सहमति के आधार पर किया जा सकता है, लेकिन इसके पहले ज़िला प्रशासन कोई निर्णय ले कि क्या वे उनके लिए कोई वाहन उपलब्ध करा रहे हैं। या फिर उन्हें किसी भी ट्रक आदि में बिना किसी ऑन रिकॉर्ड के भेज रहे हैं।
इस बीच हमारे वरिष्ठ साथी लज्जा शंकर हरदेनिया और सजिन जैन जम्मू और भोपाल प्रशासन से बातचीत करने की कोशिशें जारी रखीं।
हम उम्मीद कर ही रहे थे कि खबर आती है कि मजदूर जम्मू के लिए निकल गए हैं।
जब हमने उनसे कहा कि इस बारे में उन्होंने बताया क्यों नहीं, तो वो बोले कि- “हमसे कहा गया था कि अगर बात करने के लिए मोबाइल निकाला तो जेल में बंद कर देंगे। चुपचाप चले जाओ। हमें लगा कि प्रशासन और आप लोग आपस में मिल गए हैं।” और उन्होंने फोन काट दिया।
यह बात चल रही थी इसी बीच सचिन जैन ने बताया कि जम्मू में प्रिंसिपल सेक्रेटरी से बात हो गई है और 24 घंटे में ट्रेन का अरेजमेंट करने को कहा है। लेकिन तब तक मजदूर निकल चुके थे। उदासी, गुस्सा, दर्द और टूटा हुआ भरोसा लेकर।
ये सिर्फ एक घटना है। बीते कई दिनों से ऐसी कई घटनाओं से हम रूबरू हो रहे हैं। प्रशासन की कोशिश होती यह है कि किसी तरह उनके ज्यूडिरिक्शन से आगे मामला बढ़ जाए। कैसे भी मजदूर किसी अन्य जिले अन्य क्षेत्र में पहुंच जाएं।
मजदूर हर रोज यह सवाल करते हैं कि ‘आखिर सरकार के लिए हमारी जान, हमारी परेशानियों की कोई कीमत नहीं है। जब एसी ट्रेनें चल सकती हैं, तो हमारे लिए बसें भी सरकार नहीं चला सकती क्या?’
‘अन्य लोगों के लिए भी बसें भेजी जा रही हैं, हमने क्या बिगाड़ा है, जो हमारे लिए कोई व्यवस्था नहीं की जा रही है।’
इस व्यवस्था पर भरोसा करना रेत का महल बनाना है, खुद को बेवकूफ बनाना है। कोरोना एक डर है और डर के सहारे सरकारी तंत्र बस अपनी बदनीयती को कानूनी जामा पहना रहा है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और भोपाल में रहते हैं। ये कहानी उनके फ़ेसबुक पेज से साभार ली गई है।)
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