लॉकडाउऩ ने एक मज़दूर की दो महीने में ये हालत कर दी, मौत से 5 दिन पहले वीडियो बना की थी मदद की गुहार

लॉकडाउऩ ने एक मज़दूर की दो महीने में ये हालत कर दी, मौत से 5 दिन पहले वीडियो बना की थी मदद की गुहार

ये दोनों तस्वीरें एक ही शख्स की हैं। दोनों तस्वीरों में महज दो महीने का फ़र्क है।

ये हैं प्रवासी मज़दूर परवेज़ अंसारी, जो झारखंड के रांची से छह महीने पहले गुजरात के अहमदाबाद नौकरी की तलाश में आए थे।

उन्हें कोरोना नहीं था, फिर भी बीते शुक्रवार को भूख, विधिवत इलाज की कमी  और अव्यवस्था ने मिलकर उनकी जान ले ली।

21 साल के परवेज़ रांची के इटकी का मसजिद मुहल्ला के निवासी थे और अहमबाद में डिस्पोजबिल ग्लास बनानेवाली एक कंपनी में उन्हें नौकरी भी मिल गई थी।

लेकिन लॉकडाउन के बीच फंसकर वो भुखमरी के कगार पर पहुंच गए। भुखमरी और बीमारी से मौत के कगार पहुंचे परवेज़ ने 18 अप्रैल को एक वीडियो बनाकर मदद की गुहार लगाई थी।

19 अप्रैल को उनके परिवार ने वीडियो कॉल के ज़रिए उनके बात की। वो अहमदाबाद के अमराईवाड़ी के राबरी कॉलोनी में किराए पर रह रहे थे। वीडियो कॉलिंग के दौरान उनके परिजन भूख से तड़पते और बीमार बेटे को देख कर सदमा खा गए।

इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार, परवेज़ बीती जनवरी में रांची अपने घर गए थे और मार्च में ही अहमदाबाद पहुंचे थे। परिजनों का कहना है कि जब वो घर से गए थे तो पूरी तरह स्वस्थ थे।

डॉक्टरों ने कहा टीबी से हुई मौत

20 मार्च को उनकी तबियत ख़राब हो गई। परिजनों ने लगातार उन्हें वापस घर आने का दबाव डाला लेेकिन इसी बीच लॉकडाउन घोषित होने के कारण वो वहीं फंस कर रह गए।

इसी दिन पुलिस ने परवेज़ को उनके घर से उठाकर अहमदाबाद के सिविल अस्पताल में भर्ती करा दिया। लेकिन तबसे लाख कोशिशें करने के बावजूद परिवार उनसे संपर्क नहीं कर पाया।

24 अप्रैल को एक स्थानीय एनजीओ के सहारे परवेज की मां और बहनें और भाई वीडियो कॉलिंग के ज़रिए अपने इस प्रिय नौजवान की अंतिमक्रिया में शामिल हुए।

परवेज़ की 23 अप्रैल को मौत हो गई. डॉक्टरों ने कहा कि उनकी मौत टीबी की बीमारी से हुई है।

इंडियन एक्सप्रेस की ख़बर के अनुसार, अहमबाद पुलिस ने परवेज़ के परिजनों को कहा था कि शव को सात दिनों तक सुरक्षित रखा जाएगा और इस बीच शव को लिया जा सकता है।

लेकिन परवेज़ का परिवार इतनी ग़रीबी में है कि वो लॉकडाउन की स्थिति में अहमदाबाद नहीं जा सकता था।

जब परवेज़ के परिजनों ने पहली बार उनकी हालत देखी तो एक वीडियो बना कर सरकार से मदद की अपील करने को कहा था। इस वीडियो को झारखंड सरकार को भी भेजा गया।

प्रशासन के जागने पर भी 5 दिन नहीं थी कोई ख़बर

झारखंड प्रशासन अहमबाद पुलिस के संज्ञान में ये मामला ले आया लेकिन इंडियन एक्सप्रेस की ख़बर के अनुसार, 19 से 23 अप्रैल तक पांच दिन तक ट्रांज़िट वार्ड में परवेज़ को रखा गया जहां उनके साथ कोई नहीं था।

प्रभात खबर के अनुसार, अस्पताल में दाखिले के वक्त परवेज की अपने परिजन से बात हुई, लेकिन फिर तीन दिनों तक उसकी कोई खबर नहीं थी। इधर, परिजन की बेचैनी बढ़ रही थी।

परवेज के भाई तौहीद अंसारी ने बताया कि ‘अहमदाबाद के स्थानीय प्रशासन से संपर्क के बाद भी उससे बात नहीं हो पा रही थी। पिछले मंगलवार को 20 सेकेंड के लिए परवेज से बात हुई। उसकी हालत खराब थी। वह बोलने में असमर्थ था और कराह रहा था। उसने बताया कि खाने की दिक्कत हो रही है। घर के लोग परवेज की हालत देखकर रुआंसे थे।’

अख़बार के अनुसार, घरवालों काे यह भी सूचना मिली कि उसको कोरोना नहीं था। डॉक्टरों ने उसे टीबी वार्ड में दाखिल कराया है।

परिजनों का कहना है कि ‘वह रांची में होता, तो बच जाता। अपनी जिंदगी के लिए गिड़गिड़ा रहा था। उसको सही तरीके से इलाज़ नहीं मिला।’

परवेज़ के घर वालों पर ऐसा पहाड़ टूटा कि उन्हें अपने बेटे का जनाज़ा ले जाने का भी मौका नहीं मिला। अहमदाबाद में कुछ स्वयंसेवी संस्था की मदद से मिट्टी दी गयी। इटकी का मसजिद मुहल्ला गम में डूबा है।

प्रवासी मज़दूरों के सामने मौत बन चुकी है भूख

परवेज की तरह ऐसे कई प्रवासी मज़दूर एक-एक दिन मुश्किलों के बीच काट रहे हैं। न जाने ऐसे कितने परवेज़ बीमार, तंगहाल और भूख से कराह रहे होंगे।

वर्कर्स यूनिटी हेल्पलाइन को रोज़ाना दर्जनों ऐसे मैसेज मिलते हैं कि प्रवासी मज़दूरों का परिवार फंसा है, राशन नहीं है, किसी ने राशन लाने के लिए मोबाइल बेच दिया, कोई एक एक किलोमीटर पैदल चलकर खाना लेने पहुंच रहा है और इन सबको मदद की ज़रूरत है।

लेकिन सरकार की ओर से कोई भी इंतज़ाम नहीं है। हेल्पलाइन केवल दिखावे का ढपोरशंख बन गई हैं, न तो राज्य सरकार की और ना ही केंद्र सरकार हेल्पलाइन पर कोई हेल्प पहुंच रही है।

ऐसी हताशा की स्थिति में मज़दूर मरने की बजाय जान पर खेल कर अपने घरों की ओर पलायन कर रहे हैं, पैदल और साइकिल पर।

ऐसा लगता है कि सरकार का पूरा ध्यान प्रवासी मज़दूरों को उनके घरों में बंद करने और उनके घर न लौटने देने पर अधिक है, न कि उन्हें विधिवत राशन, देखभाल करने की।

(सुशील मानव की फ़ेसबुक पोस्ट, प्रभात खबर और इंडियन एक्स्प्रेस की ख़बर से इनपुट के आधार पर।)

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