अम्बेडकर की पहली पार्टी का झंडा लाल क्यों था?
भारत में आम जन के बीच डॉ. भीमराव अम्बेडकर की पहचान ‘भारतीय संविधान निर्माता’ और ‘दलित चिन्तक’ की बन गई है।
जबकि सच्चाई यह है कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान डॉ. अम्बेडकर लगातर मज़दूर आंदोलनों में सक्रिय रहे। अम्बेडकर ने भारत में अपने सामाजिक कार्यों की शुरुआत मज़दूर आन्दोलनों से की।
उन्होंने इसके लिए इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी बनाई और मज़दूरों के बीच काम करना शुरू किया।
बाद से समय में भी हम देखते हैं कि संविधान निर्माण के समय उन्होंने मज़दूर वर्ग के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाई।
डॉ. अम्बेडकर द्वारा केन्द्रीय विधान मंडल में विभिन्न सदस्यों द्वारा उठाये गये प्रश्नों के जवाब में उन्होंने भूमिहीन, औद्योगिक मज़दूरों का पक्ष लिया।
चाहे भूमिगत खदान में काम करने वाली महिला मज़दूर और उनके बच्चों के सम्बन्ध में हों या असम चाय बगान के मजदूरों की मज़दूरी से जुड़े हुए सवाल हों।
इसलिए डॉ.अम्बेडकर को सिर्फ जाति और वर्ण के प्रश्न तक बाँध कर रख देना एक बड़ी भूल होगी।
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1936 में इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी का निर्माण
अम्बेडकर ने 1936 में इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी बनाई थी। इसका झण्डा लाल था, और घोषणापत्र का सार मोटा मोटी समाजवादी।
अम्बेडकर और भारतीय मज़दूर आन्दोलन के सवाल पर फॉरवर्ड प्रेस के हिंदी संपादक डॉ. सिद्धार्थ कहते हैं, “डॉ. अम्बेडकर को सिर्फ दलित महानायक बना कर देखना उन्हें सीमित कर देना है। जिस आदमी ने अपनी ज़िंदगी का एक बड़ा हिस्सा मजदूर आंदोलनों का नेतृत्व करते हुए, जुलूसों का नेतृत्व करते हुए उसके लिए लाठी खाते हुए गुज़ारा हो।”
“जिसने पहली पार्टी ही इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी बनाई हो, उस आदमी को मज़दूरों से अलग कर देना और ख़ास दायरे में सीमित कर देना और दलितों को मज़दूरों से बाहर कर देना ठीक नहीं।”
वो कहते हैं, “अगस्त 1936 में अम्बेडकर को जब पहली बार पार्टी बनाने का मौका मिला तो उन्होंने मज़दूरों की पार्टी बनाई। इसी पार्टी से वे पहली बार चुनाव लड़े थे । यहाँ एक सवाल उठेगा कि जब उन्होंने एक स्वतंत्र पार्टी बनाई तो मज़दूर पार्टी ही क्यों?दलित पार्टी क्यों नहीं बनाई? ये सवाल उनसे टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने पूछा था।”
“इस सवाल के जवाब में डॉ. अम्बेडकर ने कहा -मैंने दलितों को मज़दूर वर्ग में शामिल करने के लिए यह पार्टी बनाई है। दलित की पहचान मज़दूर वर्ग की होनी चाहिए।”
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अम्बेडकर और कार्ल मार्क्स के एक समान विचार
जब टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने पूछा कि ‘आप मज़दूर की परिभाषा क्या देते हैं?’
जवाब में अम्बेडकर ने कहा, “जो भी व्यक्ति अपना श्रम बेच कर अपनी रोजी रोटी कमाता है,हर वह आदमी चाहे वो किसी भी धर्म या जाति का हो जो श्रम के बल पर जिंदा है, मज़दूर है।”
अक्सर अम्बेडकर और कम्युनिस्टों में गहरे मतभेद की चर्चा सुनने को मिलती है। किन्तु अम्बेडकर और कार्ल मार्क्स के बीच में बहुत से विचार एक समान हैं।
डॉ. अम्बेडकर ने अपने एक लेख ‘संसदीय लोकतंत्र और मज़दूर’ में लिखा है, “श्रमिक वर्ग के प्रत्येक सदस्य को रूसो के “सोशल कॉन्ट्रैक्ट”, मार्क्स के “कम्युनिस्ट मैनीफेस्टो”, पोप लियो तेरहवें के “एनसाईक्लिकल ऑन द कंडीशनस ऑफ़ लेबर” और जॉन स्टुअर्ट मिल के “लिबर्टी” से परिचित होना चाहिए। ये उन ग्रंथों में से चार हैं, जो आधुनिक दुनिया के समाज और शासन व्यवस्था के संगठन के मूल कार्यक्रम से सम्बंधित हैं।”
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1938 के जुलूस में कांग्रेस सरकार ने मजदूरों पर गोली चलाई
डॉ. सिद्धार्थ कहते हैं, “सात नवम्बर, 1938 को कम्युनिस्ट पार्टी के साथ मिलकर अम्बेडकर ने मुंबई में एक बहुत बड़ा जुलूस निकाला था। जुलूस का नेतृत्व अम्बेडकर ने कम्युनिस्ट पार्टी के नेता श्रीपाद अमृत डांगे ने किया। उन्होंने एक -एक फैक्ट्री में जाकर फैक्ट्री बंद कराने से लेकर मज़दूरों को जुलूस के लिए आमंत्रित किया। रात भर फैक्ट्री गेट पर धरना देने जैसी जानकारी क्यों नहीं है अधिकतर लोगों को?”
लेकिन इस हड़ताल के पृष्ठभूमि पर थोड़ा नज़र दौड़ा लेते हैं।
7 नवम्बर की इतनी बड़ी औद्योगिक हड़ताल हुई ही क्यों?
उस समय प्रांत में कांग्रेस की सरकार थी। मजदूरों पर गोली चली। दो लोग मारे गए। मजदूरों की सभा को अम्बेडकर और डांगे ने संबोधित किया।
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अम्बेडकर ने कांग्रेस द्वारा पेश बिल का विरोध किया
1935 में एक एक्ट आया था जिसके तहत 1936 में भारत में चुनाव हुए। उन चुनावों में मुंबई विधान मंडल में कांग्रेस की सरकार बनी।
उस चुनाव में स्वतंत्र मजदूर पार्टी भी खड़ी थी। बहुत अच्छी उसको सफलता मिल रही थी।
17 में से 14 लोग चुनाव जीत गए थे। कांग्रेस की सरकार ने एक बिल पेश किया- “औद्योगिक विवाद विधेयक”।
डॉ. सिद्धार्थ कहते हैं, “अम्बेडकर और कुछ कम्युनिस्ट नेताओं ने इस बिल का बहुत तीखा विरोध किया था।
क्योंकि उस बिल में यह प्रावधान था कि हड़ताल को क्रिमिनल एक्ट बना दिया जाए।
जो आज अदालत हड़ताल पर रोक लगा रही है, यह कांग्रेस की सरकार ने 1938 में किया था।”
“उस समय अम्बेडकर ने कहा था कि मजदूरों से हड़ताल का हक़ छीन लेना मतलब उन्हें बंधुआ मजदूर बना देना है।”
यही वो दौर था जब डॉ. अम्बेडकर ने भारतीय मज़दूर वर्ग के दो प्रमुख शत्रुओं की पहचान की।
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मजदूर वर्ग के दो शत्रु-“ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद”
अम्बेडकर ने महाराष्ट्र के मनमाड़ स्टेशन तथा उसके आसपास क्षेत्र के रेल कर्मचारियों को 12-13 फरवरी सन् 1938 को संबोधित किया।
इस सभा में लगभग 20,000 रेल कर्मचारियों नें भाग लिया था। बाबासाहब ने अपने भाषण में कहा, “मेरे ख्याल में इस देश में मजदूर वर्ग के दो शत्रु हैं- ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद।”
ये जानना दिलचस्प है कि भारत में श्रम विभाग नवंबर 1937 में स्थापित किया गया था और डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने जुलाई, 1942 में श्रम मंत्रालय का कार्यभार संभाला था।
यह अम्बेडकर ही थे, जिन्होंने भारत में काम के घंटे को 12 घंटे से घटाकर 8 घंटे करने की शुरुआत की।
उन्होंने इस संबंध में नई दिल्ली में भारतीय श्रम सम्मेलन में 27 नवंबर, 1942 को एक कानून की रूप रेखा रखी। इसे रखते हुए उनकी टिप्पणी थी, “काम के घंटे घटाने का मतलब है रोजगार का बढ़ना।”
साथ ही उन्होंने आगाह किया था कि काम के घंटे कम किये जाते समय वेतन कम नहीं किया जाना चाहिए।
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अम्बेडकर ने महिला श्रमिकों के हित में क़ानून बनाए
इस घटना के 72 सालों बाद आज पूरे देश में अधिकांश क्षेत्रों में न्यूनतम 12 घंटे का कार्यदिवस हो चुका है।
संविधान में बाबा साहब द्वारा बनाए क़ानूनों की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। ऐसे में मज़दूर वर्ग के ज़ेहन में डॉ. अम्बेडकर की स्मृति फिर से लौट रही है।
और ये आनायास नहीं है कि मज़दूर वर्ग अपने अम्बेडकर और भगत सिंह जैसे नायकों को फिर से याद करने लगा है।
अम्बेडकर का योगदान यहीं तक सीमित नहीं रहता है। चूंकि वो देश की दलित और वंचित जातियों को सर्वहारा (खांटी मज़दूर) मानते थे।
इसलिए उन्होंने संविधान बनाते हुए मज़दूरों के पक्ष का ख्याल रखा।
डॉ. सिद्धार्थ कहते हैं, “उन्होंने भारत में महिला श्रमिकों के लिए ‘खदान मातृत्व लाभ अधिनियम’, ‘महिला श्रमिक कल्याण निधि’, ‘महिला एवं बाल श्रमिक संरक्षण अधिनियम’, और ‘कोयला खदानों में भूमिगत काम पर महिलाओं को रोजगार देने पर प्रतिबंध’ आदि क़ानून बनाए।”
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त्रिपक्षीय श्रम परिषद की स्थापना
कर्मचारी राज्य बीमा (ईएसआई) श्रमिकों को चिकित्सा देखभाल में, इलाज़ की छुट्टी, काम के दौरान घायल होने से शारीरिक विकलांगता, कामगारों को मुआवज़ा और विभिन्न सुविधाओं के प्रावधान के लिए मददगार होता है।
पूर्वी एशियाई देशों में भारत ऐसा पहला राष्ट्र था, जिसने कर्मचारियों की भलाई के लिए बीमा अधिनियम बनाया था।
‘महंगाई भत्ता’ (डीए), ‘अवकाश लाभ’, ‘वेतनमान का पुनरीक्षण’ जैसे प्रावधान डॉ. अम्बेडकर के कारण ही हैं।
इतना ही नहीं, 31 जनवरी, 1944 को अम्बेडकर ने श्रमिकों के लाभ के लिए कोयला खान सुरक्षा संशोधन विधेयक अधिनियम बनाया।
8 अप्रैल, 1946 को उन्होंने अभ्रक खान श्रमिक कल्याण कोष का गठन किया।
1942 में डॉ. अम्बेडकर ने श्रमिकों के लिए सामाजिक सुरक्षा उपायों की रक्षा की खातिर, श्रम नीति बनाने में श्रमिकों और मालिकों को समान मौका देने।
तथा श्रमिक संगठनों को अनिवार्य मान्यता शुरू करके श्रमिक आंदोलन को मजबूत बनाने के लिए त्रिपक्षीय श्रम परिषद की स्थापना की।
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अम्बेडकर की मृत्यु के बाद उनके विचारों को दबाया गया
मज़दूर वर्ग के प्रति डॉ. अम्बेडकर के झुकाव की ये बानगी है। ये मानने में कोई असमंजस नहीं होना चाहिए कि वो मज़दूर वर्ग की ताक़त को मज़बूत देखना चाहते थे।
अगर देश के प्रमुख विद्वान आनंद तेलतुमड़े के शब्दों में कहें तो 1956 में अम्बेडकर की मृत्यु के बाद 1960 के दशक में बहुत शातिर तरीक़े से उनके विचारों के उन पहलुओं को दबाया गया।
जिनसे इस देश की ब्राह्मणवादी और पूंजीवादी सत्ता को ख़तरा पैदा हो सकता था, और उन पहलुओं पर अधिक ज़ोर दिया गया, जो एक वर्ग की बजाय पहचान को उभारता था।
आज अम्बेडकर के उन विचारों को अधिक से अधिक बाहर लाने की ज़रूरत है, जिसमें सामाजिक मुक्ति के बीज छिपे हुए हैं।
मसलन, अम्बेडकर राज्य और अल्पसंख्यक किताब में लिखते हैं कि देश की सारी ज़मीनों का सरकारी करण कर लिया जाए।
देश के सारे उद्योगों को सरकार अपने हाथ में ले ले। क्या आज इन मंचों पर बाबा साहब की बताई ये बातें कही जाती हैं?