पेट्रोल पर लूट-5ः अगर तेल आपूर्ति काट दी गई तो चीन के पास कितना तेल बचता है?
By एसवी सिंह
विश्व पूंजीवाद का संकट असाध्य होता जा रहा है। दुनियाभर में कहीं भी नया बाज़ार अब झपटने के लिए नहीं बचा है। नई तकनीक से उत्पादन कई गुना बढ़ाया जा सकता है लेकिन उसे बेचा कैसे जाए? मौजूदा बाज़ार को लेकर ही पूंजीवादी गिद्ध आपस में लड़ मर रहे हैं।
‘अपना सामान हर देश में बेरोकटोक जाए और दूसरे किसी भी देश की वस्तुएं अपने यहां प्रवेश ना करने पाएं’ सारे देशों की विदेश नीतियों, युद्ध नीतियों का ये सार है।
बाज़ार का आकार लगातार घटता जा रहा है क्योंकि कंगाली बढ़ती जा रही है। भारत के सम्पदा पिरामिड पर गौर करने से यह स्थिति स्पष्ट हो जाएगी।
देश की कुल 83.49 की वयस्क आबादी में 77.07 करोड़ लोग जो कुल आबादी का 63.1% हैं और जो भारत देश के पिरामिड का आधार हैं, साल में 1000 डॉलर (क़रीब 78 हज़ार रुपये) से भी कम कमा पाते हैं।
ये आबादी गिनती में ही बची है, असलियत में बाज़ार से बाहर हो चुकी है क्योंकि ये लोग जैसे तैसे ज़िंदा हैं या तो जीने लायक अनाज पैदा कर लेते हैं या खरीदने के नाम पर कुछ अनाज वगैरह ही खरीद पाते हैं।
दूसरी कोई उपभोग की वस्तु खरीद ही नहीं पाते। पूंजीवादी व्यवस्था ने समुदाय से जिसे सर्वहारा के नाम से जाना जाता है सब कुछ छीन लिया है सिवाय उनकी श्रम शक्ति के।
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तेल पर कब्ज़े के लिए जंग?
दूसरी सच्चाई ये है कि पिरेमिड में इनसे ऊपर वाले भाग में स्थित निम्न मध्यम वर्ग भी इनमें शामिल होता जा रहा है। सबसे ऊपर वाले खाने में कुल 760 व्यक्ति हैं जिनके पास कुल सम्पदा का आधे से ज्यादा हिस्सा है।
बिलकुल इसी तरह दुनिया की कुल आबादी 780 करोड़ है लेकिन उसका भी 70% हिस्सा इतना निर्धन हो चुका है कि वो सिर्फ़ जीवित रहने के लिए ही कुछ आनाज या तो उगा लेता है या जैसे तैसे खरीद लेता है।
कॉर्पोरेट को अपना माल बेचने को 780 करोड़ में से सिर्फ़ 234 करोड़ उपभोक्ता ही बचे हैं। इनमें भी ध्रुवीकरण की प्रक्रिया नव उदारवाद से तीव्र हुई है।
70% आबादी को कंगाल बनाकर भी पूंजीवाद पूरी तरह सांस नहीं ले पा रहा इसीलिए बाज़ार हड़पने के लिए पूंजीवादी-साम्राज्यवादी गिद्ध अपने जंगी जहाज़ लिए घूम रहे हैं और एक बड़ा जमावड़ा हमारे नज़दीक दक्षिण चीन महासागर में जमा होता जा रहा है।
पूंजीवादी अन्यायी व्यवस्था ने बाज़ारों पर कब्जे के लिए पिछली शताब्दी में दो भयानक विश्व युद्ध लड़े हैं जिनमें करोड़ों लोगों ने अपनी जान क़ुर्बान की हैं। पूंजीवादी चमचमाते गढ़ों की बुनियाद करोड़ों लाशों पर खड़ी हुई हैं।
आज खुला युद्ध अनियंत्रित विनाश ला सकता है क्योंकि हथियार अधिक से अधिक विनाशक हो चुके हैं और लगभग सभी देशों के पास परमाणु हथियार हैं।
विश्व युद्ध छिड़ा तो बाज़ार का साइज़ बढ़ने की बजाय सारा बाज़ार ही स्वाहा हो सकता है इसलिए आज वो युद्ध वाला पर्याय भी नहीं बचा। इसलिए विशाल युद्ध ना छेड़कर छोटे छोटे युद्ध या युद्ध जैसा माहौल बनाकर रखा जा रहा है।
दूसरा अहम् बदलाव अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ये हुआ है कि दुनियाभर का स्वयं घोषित लठैत अमेरिका जो अपनी विध्वंशक नेवी के बल पर अपने हित के बीच रुकावट बन रहे देशों की बांह मरोड़ता रहा है, उनके व्यापार के रास्ते रोकता रहा है, उसकी हालत पतली हो गई है।
पिद्दी से वायरस ने अमेरिका को नंगा कर दिया है। जब महामारी आई तो इस ‘महाशक्ति’ के पास वेंटीलेटर, मास्क तक भी पर्याप्त नहीं थे। निजी अस्पतालों के माफिया ने ईलाज सस्ता करने के किसी भी सरकारी हुक्म को पूरी तरह दुत्कार दिया।
परिणाम ये हुआ कि दुनिया भर में सबसे ज्यादा मौतें (1,55,000 से भी ज्यादा) अमेरिका में ही हुई हैं। दवाईयों का इन्तेजाम ऐसा है कि बेकार की दवाई क्लोरोक्विन हांसिल करने के लिए उसे मोदी से पहले गुहार फिर घुड़की लगानी पड़ी।
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चीन की तेल सप्लाई काटने की फिराक में अमेरिका
दूसरी तरफ़ चीन दुनिया का उत्पादन केंद्र बनता जा रहा है क्योंकि वहां मज़दूरों का अधिकतम शोषण कर उत्पादन लागत इतनी कम रखे हुए हैं जो कहीं दूसरी जगह सम्भव ही नहीं।
चीन भी अपनी ज़रूरत के लायक़ तेल अपने देश में उत्पादन नहीं कर पाता और उसे समुद्री मार्ग से तेल आयात करना होता है इसलिए उसे अपना मार्ग सुरक्षित चाहिए और मिडिल ईस्ट के तेल उत्पादक देशों जैसे ईरान आदि से अच्छे सम्बन्ध चाहिए।
इसीलिए दक्षिण चीन महासागर में जंगी जहाजी बेड़े जमे हुए हैं। “अगर तेल आपूर्ति काट दी गई तो चीन के पास कितना तेल बचता है?”
चीन की वैश्विक ऊर्जा नीति के बारे में ‘चीन पेट्रोलियम एवं पेट्रोकेमिकाल्स’ पत्रिका के 15 जून 2019 में छपी ये रिपोर्ट गौर करने लायक़ है।
तेल की जंग ने दुनिया में जाने कितनी क्रूर सत्ताओं को भस्म किया है।
प्रकृति का दिया ये अमूल्य संसाधन आज अर्थव्यवस्थाओं के लिए इतना अहम बन गया है कि दुनिया में जाने कितनी जंगों को जन्म दे चुका है, जाने कितनी क्रूर सत्ताएँ तेल की आग में जलकर भस्म हुई हैं।
ईरान-इराक का वो सालों चलने वाला युद्ध तेल की वज़ह से उत्पन्न विश्व साम्राज्यवादी लुटेरों के आपसी हितों के टकराव का नतीजा था ही। (क्रमशः)
(यथार्थ पत्रिका से साभार।)
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