अमेरिका में यूनियन बनाने की मांग तेज़ी से बढ़ी, मजदूर आंदोलन के उभार का दौर
By प्रकाश रे
आज ToI की यह ख़बर देखकर अगस्त के एक पोस्ट का ध्यान आया, जो इस प्रकार था- अमेरिका में लेबर यूनियन होने के बारे में हुए गैलप के एक हालिया सर्वेक्षण में बड़ी संख्या में लोगों ने इसकी ज़रूरत बतायी है। यह आँकड़ा 1965 के आँकड़ों से 71 प्रतिशत अधिक है।
इससे ध्यान आया कि हमारे देश में नए लेबर क़ानून आ रहे हैं। उसके हवाले से कुछ बातें-
आज जब मीडिया समेत विभिन्न उद्योगों में छँटनी और वेतन कटौती की ख़बरें आ रही हैं तथा असंगठित क्षेत्र पूरी तरह तबाह हो गया है, तो हमें थोड़ा ठहर कर कामगार संगठनों के बारे में सोचना चाहिए।
किसी दौर में ‘कलेक्टिव बार्गेनिंग’ औद्योगिक गतिविधियों में एक पवित्र शब्द हुआ करता था। इसका मतलब है- संगठित कामगारों और मालिक/प्रबंधन के बीच वेतन-भत्तों और अन्य अधिकारों के लिए बातचीत/समझौता।
इस शब्द युग्म का प्रयोग पहली दफ़ा बियत्रिस वेब ने 1891 में किया था, पर यह प्रक्रिया पहले से चली आ रही थी, जिसका इतिहास हमें 19वीं सदी के मज़दूर आंदोलनों में मिलता है। वेब ब्रिटिश विदुषी और कार्यकर्ता थीं।
उनका एक परिचय यह भी है कि वे लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स के संस्थापकों में एक थीं।
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मज़दूर आंदोलन का इतिहास
मज़दूर आंदोलनों के इतिहास बारे में एक क्लासिक किताब अमेरिकी लेखक और कार्यकर्ता विलियम फ़ॉस्टर ने 1956 में लिखी थी- ‘आउटलाइन हिस्ट्री ऑफ़ द वर्ल्ड ट्रेड मूवमेंट’।
वे अमेरिका में कम्यूनिस्ट आंदोलन के शुरुआती लोगों में से थे।
बहरहाल, 1929 की महामंदी और दूसरे महायुद्ध के बाद लोकतांत्रिक देशों में कामगारों को ‘कलेक्टिव बार्गेनिंग’ का अधिकार मिलने का सिलसिला चलता रहा।
पर, बेईमान उद्योगपतियों और कारोबारियों की लगातार कोशिश भी रही कि इसे किसी तरह कमज़ोर किया जाए।
हमारे देश में 1960 के दशक के आख़िरी सालों से बाक़ायदा सरकारी संरक्षण में ऐसे गिरोहों को आगे बढ़ाया गया, जो ट्रेड यूनियन आंदोलन पर हमलावर हुए।
कामगारों की एकजुटता को तोड़ने के लिए क्षेत्रवाद और सांप्रदायिकता का पूरा सहारा लिया गया। मुंबई में एक ठग गिरोह का उभार और अहमदाबाद में 1969 का भयावह दंगा इसका एक उदाहरण है।
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पालतू यूनियनों का दौर
इसी के साथ मालिकों के पैसे पर चलनेवाले ट्रेड यूनियनों का सिलसिला भी चला। मज़दूर नेताओं को भ्रष्ट करने का सिलसिला भी चला।
खदानों में पालतू माफ़िया पाले जाने लगे। हत्याओं और हिंसा का सिलसिला भी चला।
कृष्णा देसाई और शंकर गुहा नियोगी जैसे कई मज़दूर नेताओं की हत्या हुई।
अर्थव्यवस्था की बदलती तस्वीर में मिलों के बंद होने और छँटनी का ठीकरा ट्रेड यूनियन आंदोलन के माथे फोड़ा गया।
नब्बे के दशक में कमज़ोर ट्रेड यूनियन के पास नियो-लिबरल लूट को रोक पाने और कामगारों के हितों को बचाने की ताक़त नहीं रह गयी थी।
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लेबर कोड
इसका फ़ायदा उठाकर सरकारों और संसद ने ताबड़तोड़ मज़दूर-विरोधी क़ानून बनाये। अदालतें भी मज़दूरों का साथ नहीं दे सकीं।
हड़ताल, प्रदर्शन और काम रोको अपराध हो गया। मज़दूर ‘हायर एंड फ़ायर’ का सामान हो गए।
धनकुबेर मालामाल होते चले गए, जीडीपी छलाँगने लगी, कामगार लाचारी का शिकार होता गया।
अब तो मालिकों और सरकारों की दया पर कामगार है।
श्रम क़ानूनों का पहले ही विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका ने कचूमर निकाल दिया था, रही सही कसर अब लेबर कोड से पूरी हो जाएगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं जिनकी अंतरराष्ट्रीय मजदूर आंदोलन पर बारीक नज़र रहती है और यह महत्वपूर्ण आलेख उनके फेसबुक वॉल से लिया गया है।)
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