कोरोना के साथ मंडरा रहा एक और ख़तरनाक़ ‘वायरस’ का ख़तरा, नज़रअंदाज़ करना कितना घातक?
एक ‘भूख’ नामक वायरस भी है जिससे दसियों हज़ार रोज़ मरते हैं। भारत इस भूख सूचकांक में दुनिया में 102 वें नंबर पर है।
इस वायरस का टीका भी हजारों साल से ज्ञात है, उसको बनाना भी मुश्किल नहीं। टीके का नाम है ‘भोजन’।
पर टीका मौजूद होते हुए भी इन मरने वालों को नहीं मिलता।
कोरोना वायरस का टीका भी देर सबेर बन ही जायेगा, फिर भी सबको मिलेगा, मौजूदा दौर में इसकी उम्मीद नहीं।
टीके, दवाइयाँ बनाना वैज्ञानिकों का काम है, उन्होंने इसमें कभी कोताही नहीं बरती।
कइयों ने तो इनके परीक्षण के लिए खुद को ही बीमारी से संक्रमित कर लिया, ताकि सही नतीजा पा सकें।
पर हमारा समाज संपत्ति मालिकों और संपत्तिहीनों में बँटा, जिसमें मानव समाज के सामूहिक श्रम और प्रतिभा से निर्मित उत्पादों पर भी संपत्ति मालिकों का अधिकार हो जाता है।
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सबसे बड़ी बीमारी
मालिकों और श्रमिकों, ‘ऊँचों’ और ‘नीचों’ में बँटवारे की यह समाज व्यवस्था सबसे बड़ी बीमारी है, सब वायरस, बैक्टीरिया, फंगस के कुल संक्रमण से हजारों गुना अधिक बडी़।
इस बीमारी का इलाज करने से मानवता की बहुत सी बीमारियां और संक्रमण दूर हो जायेंगे।
ओडिशा और झारखंड से लेकर देश की राजधानी में भूख से होने वाली मौतें सुर्खियां बनती हैं। आंकड़े बताते हैं कि साल 2015 से 2019 तक पूरे देश में 86 मौतें भूख से हुई हैं।
वहीं झारखंड में पिछले दिसंबर 2016 से अबतक लगभग 23 लोगों की मौत भोजन की अनुपलब्धता के कारण हुई है।
बीते 6 मार्च, 2020 को झारखंड के ही बोकारो जिला मुख्यालय से लगभग 50 किमी दूर, कसमार प्रखंड के अंतर्गत सिंहपुर पंचायत का करमा शंकरडीह टोला निवासी दलित भूखल घासी (42 वर्ष) की मौत भूख से हो गई।
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अमीर मर रहे
कुछ आलोचकों का कहना है कि दुनियाभर मेँ भूख से तक़रीबन 15000 मौतें रोज होती हैं। जबकि कोरोना वायरस से अब तक 10,000 मौतें हुई हैं।
भय इसलिए फैला है क्योंकि इससे अमीर भी मर रहे हैं।
भूख एक बड़ा और असली वायरस है। कोरोना इसके मुक़ाबले में कुछ भी नहीं है। घर में बैठ कर कोरोना से युद्ध संभव है लेकिन भूख के खिलाफ यह संभव नहीं है।
इस देश में बेतहाशा लाचार और दिहाड़ी लोग रहते हैं। जो रोज़ कमाते है वो रोज़ खाते हैं। अगर वे बाहर नहीं आते, तो वे खड़े नहीं हो पाएंगे और यह भूख आपके दरवाज़े पर दस्तक दे रही होगी।
सरकार की ड्यूटी क्या है?
जब चीन में कोरोना संक्रमण का विस्फ़ोट हुआ तो सरकार ने पूरे शहर को ठप कर दिया। ऐसे में लोगों को खाने की परेशानी न उठानी पड़े शहर के 1.11 करोड़ आबादी को घर घर खाना पहुंचाने का इंतज़ाम किया गया था।
भारत में लॉक डाउन की बात कही जा रही है, पहले सरकार के मंत्री एक प्रहसन करते हैं गो कोरोना गो और फिर जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नामुदार होते हैं तो घरों में बंद होने का आह्वान करते हैं।
लेकिन जो ग़रीब और मज़दूर आबादी है उसके खाने का इंतज़ाम कौन करेगा, इसको गोल कर देते हैं।
बात साफ़ है इस महा विपदा में संक्रमण से बचने और भूखे मरने की ज़िम्मेदारी अब जनता के ऊपर है।
दोनों ही मामलों में मोदी सरकार से कोई उम्मीद नहीं रखनी चाहिए- न तो कोरोना वायरस के टेस्ट का कोई इंतज़ाम होगा और ना ही मज़दूर वर्ग को पड़ी आर्थिक चोट की भरपाई की जाएगी।
मज़दूर कहां जाएं
आतिफ़ रब्बानी के फ़ेसबुक वॉल से- सोशल मीडिया पर #StayHome हैशटैग ट्रेंड कर रहा है। देश के 93 प्रतिशत से भी अधिक लोग असंगठित क्षेत्र से संबंधित हैं अथवा अनौपचारिक आर्थिकी का हिस्सा हैं।
दिहाड़ी मज़दूर रोज़ कुंआ खोदता है और पानी पीता है। यानी रोज़ कमाता है तब कहीं जा कर नून-रोटी का जुगाड़ होता हैं।
ऐसे में दिहाड़ी मजदूर और आम मेहनतकश कैसे अपने आप को घर में क़ैद रखेगा। वैसे भी देश की अच्छी-खासी आबादी घरविहीन है।
उसके पास रहने को अपनी छत नहीं। मिसाल के तौर पर, अकेले दिल्ली जैसे महानगर में 2 लाख ऐसे लोग हैं, जो खुले आसमान के नीचे रहते हैं। इनको झुग्गी-झोपड़ी भी मयस्सर नहीं।
ये आंकड़े पुराने हैं; 2011 की जनगणना के। वास्तविक संख्या इसकी डेढ़-से-दोगुनी हो सकती है।
न कमाने-खाने का जुगाड़, और न ही रहने-सर छुपाने की जगह। सैनिटेशन तो दूर की कौड़ी है—मेहनतकशों के लिये यह एक प्रिविलेज है।
#StayHome या #WorkFromHome खाये-अघाये मध्यवर्गीय समाज का ही सुविधाधिकार है, प्रिविलेज है।
ग़रीब मेहनतकश तो बना ही है मरने के लिये। चाहे वह बीमारी से मरे या भुखमरी से, या फिर दंगों में।
“पर तुम नगरों के लाल, अमीरों के पुतले, क्यों व्यथा भाग्यहीनों की मन में लाओगे?
जलता हो सारा देश, किन्तु, होकर अधीर तुम दौड़-दौड़कर क्यों यह आग बुझाओगे?”
(मुकेश असीम और अन्य विद्वान जनों के फ़ेसबुक पेज से साभार)
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